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सुधांशुजी महाराजः मन को अपने स्वभाव में ला सकते हैं, करें ये अभ्यास

मन में सोचें जैसे - मैं शांत हो रहा हूं, शांत, शांत, शांत, शांत। इस प्रकार अपने को ढीला करते जाएं। भावना हो कि मस्तिष्क में शांति की लहरें उतर रही हैं, मैं शांत होता जा रहा हूं। चंद्रमा की चांदनी शांति बनकर संसार में उतर रही है।

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Published on: 28 Nov 2020 4:15 PM GMT
सुधांशुजी महाराजः मन को अपने स्वभाव में ला सकते हैं, करें ये अभ्यास
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Sudhanshuji Maharaj: Can bring the mind to its nature, do these exercises

सुधांशुजी महाराज

किसी किसी व्यक्ति के मन पर दुनिया के अनेक आघात लगे होते हैं। ये आघात उसके कार्य, व्यवहार, वार्तालाप, सोचने की शक्ति, स्वास्थ्य सब को प्रभावित करते हैं। ऐसे व्यक्ति को मनः चिकित्सक भी ध्यान में उतरने की सलाह देते हैं।

ध्यान की भी अनेक तकनीकें हैं। जैसे मन को स्वतंत्र छोड़ कर उसकी गति को देखना, मन को किसी दिव्य वातावरण से गुजारना, उसे साक्षीभाव से देखना आदि। नींद लेने की तरह ध्यान के लिए अपने मन को खाली करने का अभ्यास करना पड़ता है।

बार बार ऐसा प्रयोग करने से ध्यान में परिपक्वता आने लगती है। जैसे नींद का कोई ठीक समय नहीं है उसी प्रकार शांत होते जाना और विचार शून्य होते जाना, मन का दबाव हटाते जाना ही ध्यान है। इससे मन अपने स्वभाव में आकर स्थित हो जाता है।

पहचानें मन की आदत

मन की एक और आदत है कि वह अवसर मिलते ही कहीं से कहीं पहुंचने का प्रयास करता है। मनोविश्लेषक बताते है मन अनन्त शक्तियों और विभूतियों से भरा है। यह जिस काम में लगता है, उसे जादू की तरह पूरा करता है। मन को अनुकूल दिशा में साधने के कारण ही असंख्य लोग कलाकार, वैज्ञानिक, सिद्धपुरुष, महामानव बनने में सपफल हुए हैं।

पर मन को साधना इतना आसान नहीं। इन व्यक्तियों ने मन को साधने के लिए अपने अंदर रुचियां जगाई। भागते मन की धरा को विपरीत रुचि से जोड़ा, तत्पश्चात् एकाग्रता, तन्मयता द्वारा अपने को उपलब्ध्यिों तक पहुंचाया। कहते हैं पानी की तरह मन की गति भी अधेगामी है।

मनोविज्ञानी कहते हैं कि मन को कभी खाली न छोड़ें, अपितु कहीं कोई ऐसे स्थान, वातावरण या ऐसे काम से जोड़कर रखें, उसकी रुचि का हो, मन को वैसे भी स्वस्थ दिशा सुझाते ही रहना चाहिए।

बदलें मन की रुचियां

मन की उड़ानें, वासना, तृष्णा की ओर जाने के लिए अभ्यस्त रही हैं, इसलिए वह पुराना मार्ग ही पकड़ने लगता है। स्वेच्छाचार तक के लिए भी वह आतुर होता है। पर यह मनुष्य का मन है, इसलिए पशुओं की तरह कुछ भी कर गुजरने के लिए स्वतंत्र छोड़ा भी नहीं जा सकता।

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यदि मन का रुचि केन्द्र बदला जा सके, तो इसी मन के सहारे सम्पूर्ण संसार को अपना बनाया जा सकता है। मन जब अनुकूल बन जाता है, तो मालिक की इच्छानुसार अपनी कार्य करता है।

मन की अवस्था को अंतःकरण के भावावस्था से जोड़ते ही प्रार्थनायें परिवर्तनकारी साबित होती हैं। शांतचित्त से ध्यान में बैठकर क्रमशः प्रार्थना अनुरूप भाव दशा में उतरने का प्रयास करें तो कुछ दिन के अभ्यास से साधक का मन सहज साधने लगेगा।

ध्यान कुछ इस तरह से करें

जैसे - मैं शांत हो रहा हूं, शांत, शांत, शांत, शांत। इस प्रकार अपने को ढीला करते जाएं। भावना हो कि मस्तिष्क में शांति की लहरें उतर रही हैं, मैं शांत होता जा रहा हूं। चंद्रमा की चांदनी शांति बनकर संसार में उतर रही है।

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ऐसे शांति की लोरी गाते-गाते मन को एक जगह टिकाकर पलकों को इतनी कोमलता से बंद करें, जैसे फूलों की पंखुड़िया बंद हो रही हैं। इस प्रकार जैसे-जैसे शांत होते जायेंगे, अंदर असीम शांति और गहन मौन का वातावरण बन जाएगा।

इस प्रकार मन हमारे आत्म स्वभाव से जुड़कर उपलब्ध्यिों का मार्ग प्रशस्त करता है।

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