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Bhagavad Gita: विवेक पैदा नहीं, बल्कि जाग्रत से आता है बुद्धि
Bhagavad Gita: यह विवेक परमात्मा का दिया हुआ और अनादि है। इस लिये यह पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत होता है। सत्संग से यह विवेक जाग्रत और पुष्ट होता है। सत्संग में भी खूब ध्यान देने से, गहरा विचार करने से ही विवेक जाग्रत होता है, साधारण ध्यान देने से नहीं होता।
Bhagavad Gita: मानव शरीर की जो महिमा है, वह आकृति को लेकर नहीं है, प्रत्युत विवेक को लेकर ही है। सत और असत, जड़ और चेतन, सार और असार, कर्तव्य और अकर्तव्य – ऐसी जो दो-दो चीजें हैं, उनको अलग-अलग समझने का नाम ‘विवेक’ है। यह विवेक परमात्मा का दिया हुआ और अनादि है। इस लिये यह पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत होता है। सत्संग से यह विवेक जाग्रत और पुष्ट होता है। सत्संग में भी खूब ध्यान देने से, गहरा विचार करने से ही विवेक जाग्रत होता है, साधारण ध्यान देने से नहीं होता। आजकल यह प्राय: देखने में आता है कि सत्संग करने वाले, सत्संग कराने वाले, व्याख्यान देने वाले भी गहरी पारमार्थिक बातों को समझते नहीं। वे जड़-चेतन के विभाग को ठीक तरह से जानते ही नहीं। थोड़ी जानकारी होने पर व्याख्यान देने लग जाते हैं। जिनका विवेक जाग्रत हो जाता है, उनमे बहुत विलक्षणता, अलौकिकता आ जाती है।
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साधक को सबसे पहले शरीर (जड़) और शरीरी (चेतन) – का विभाग समझना चाहिये। शरीर और अशरीरी से आरम्भ करके संसार और परमात्मा तक विवेक होना चाहिये। शरीर और अशरीरी का विवेक मनुष्य के सिवाय और जगह नहीं है। देवताओं में विवेक तो है, पर भोगों में लिप्त होने के कारण वह विवेक काम नहीं करता।
शरीर और शरीरी के विभाग को जानने वाले मनुष्य बहुत कम हैं। इसलिये सत्संग के द्वारा इस विभाग को जानने की ख़ास जरूरत है। शरीर जड़ है और स्वयं (आत्मा) चेतन है। स्वयं परमात्मा का अंश है। शरीर प्रकृति का अंश है। चेतन अलग है और जड़ अलग है। मुक्ति चेतन की होगी, जड़ की नहीं; क्योंकि बन्धन चेतन ने स्वीकार किया है। जड़ तो हरदम बदल रहा है और नाश की तरफ जा रहा है। हमारी जितनी उम्र बीत गयी है, उतने दिन तो हम मर ही गये हैं। ‘मरना’ शब्द भले ही खराब लगे, पर बात सच्ची है। जन्म के समय जीने के जितने दिन बाकी थे, उतने दिन अब बाकी नहीं रहे। जितने दिन बीत गये, उतने दिन तो मर गये, अब कितने दिन बाकी हैं, इसका पता नहीं है। जीवन का जो समय चला गया, नष्ट हो गया, वह जड़-विभाग में हुआ है, चेतन-विभाग में नहीं। चेतन-विभाग में मृत्यु नहीं है। उसकी कोई उम्र नहीं है। वह अमर है। शरीर मरता है आत्मा नहीं मरती। इस प्रकार आरम्भ से ही जड़-चेतन के विभाग को समझ लेना चाहिये। जो चेतन- विभाग है वह परमात्मा का है और जो जड़-विभाग है, वह प्रकृति का है।
गीता में आया है –प्रकृति और पुरुष – दोनों अनादि तो हैं, पर दोनों में पुरुष (चेतन) अनादि तथा अनन्त है, और प्रकृति अनादि तथा सान्त है । ( गीता 13/19) |
कई विद्वान् प्रकृति को भी अनन्त मानते हैं, पर यह दार्शनिक मदभेद है। यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि जो अपने को भी नहीं जानता और दूसरे को भी नहीं जानता, उसका नाम ‘जड़’ है। जो अपने को भी जानता है और दूसरे को भी जानता है, उसका नाम ‘चेतन’ है। जानने की शक्ति चेतनता है। यह शक्ति जड़ में नहीं है।
मन-बुध्दि चेतन में दिखते हैं, पर हैं ये जड़ ही। ये चेतन के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। हम (स्वयं) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुध्दि को जानने वाले हैं। इन्द्रियों के दो विभाग हैं – कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ। कर्मेन्द्रियाँ तो सर्वथा जड़ हैं। ज्ञानेन्द्रियों में चेतन का आभास है। उस आभास को लेकर ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण – ये पाँचों इन्द्रियाँ ‘ज्ञानेन्द्रियाँ’ कहलाती हैं। ज्ञानेन्द्रियों को लेकर जीवात्मा विषयों का सेवन करता है।
ज्ञानेन्द्रियों में और अन्त:करण में जो ज्ञान दीखता है, वह उनका खुद का नहीं है, प्रत्युत चेतन के द्वारा आया हुआ है। खुद तो वे जड़ ही है। (गीता 15/9) |
जैसे दर्पण को सूर्य के सामने कर दिया जाय तो सूर्य का प्रकाश दर्पण में आ जाता है। उस प्रकाश को अँधेरी कोठरी में डाला जाय तो वहाँ प्रकाश हो जाता है। वैसे प्रकाश मूल में सूर्य का है, दर्पण का नहीं। ऐसे ही इन्द्रियों में और अन्त:करण में चेतन से प्रकाश आता है। चेतन के प्रकाश से प्रकाशित होने पर भी इन्द्रियाँ और अन्त:करण जड़ हैं। हम स्वयं चेतन हैं और परमात्मा के अंश हैं।
गीता में भगवान् कहते हैं – ‘ममैवांशो जीवलोके’( 15/7) ।
जैसे शरीर माँ और बाप दोनों से बना हुआ है, ऐसे स्वयं प्रकृति और परमात्मा दोनों से बना हुआ नहीं है। यह केवल परमात्मा का ही अंश है।