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73rd Republic Day: दलबदल विरोधी कानून तो बना मगर कभी नहीं रुक सका यह खेल, चुनावी माहौल में फिर तेज हुई रफ्तार

73rd Republic Day: भारतीय संविधान को सम्मान देने के लिए 26 जनवरी को पूरे देश में गणतंत्र दिवस मनाया जाता है क्योंकि 1950 में इसी दिन देश का संविधान लागू हुआ था।

Anshuman Tiwari
Written By Anshuman TiwariPublished By Vidushi Mishra
Published on: 26 Jan 2022 9:45 AM IST (Updated on: 26 Jan 2022 9:53 AM IST)
52nd constitution amendment act
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52वां संविधान संशोधन अधिनियम (फोटो-सोशल मीडिया)

73rd Republic Day: देश आज अपना 73वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। भारतीय संविधान को सम्मान देने के लिए 26 जनवरी को पूरे देश में गणतंत्र दिवस मनाया जाता है क्योंकि 1950 में इसी दिन देश का संविधान लागू हुआ था। भारत का संविधान किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इस संविधान में समय की आवश्यकताओं के अनुरूप की बार संशोधन भी किए गए। संविधान में एक महत्वपूर्ण संशोधन दलबदल विरोधी कानून का भी है मगर दलबदल का यह खेल कभी रुक नहीं सका।

पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के मद्देनजर इस समय दलबदल का खेल खूब खेला जा रहा है। तमाम नेता टिकट पाने और अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए एक दल से दूसरे दल में छलांग लगा रहे हैं। इसलिए गणतंत्र दिवस के मौके पर यह जानना जरूरी है कि दलबदल विरोधी कानून (anti-defection law) क्या है, इसे कब पारित किया गया और कानून बनने के बाद भी किस तरह यह खेल अभी तक जारी है।

क्या है दलबदल विरोधी कानून

(anti-defection law)

राजीव गांधी की सरकार ने 1985 में 52वें संविधान संशोधन विधेयक (52nd Constitution Amendment Bill) के माध्यम से दलबदल विरोधी कानून (anti-defection law) पारित किया था और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य मकसद देश में दलबदल के खेल को समाप्त करना था।

हालांकि इस कानून बनने के बाद भी दलबदल का खेल पहले की तरह ही बदस्तूर जारी है। इस कानून के तहत किसी भी निर्वाचित सदस्य को स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ने पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल की सदस्यता लेता है तो उसे भी अयोग्य घोषित किया जा सकता है। यदि कोई निर्वाचित सदस्य सदन में पार्टी के रुख के विपरीत वोट करता है तो वह भी अयोग्य माना जाएगा। किसी सदस्य के वोटिंग से खुद को अलग रखने पर भी उसकी सदस्यता जा सकती है। इस कानून में सदन के अध्यक्ष को सदस्यों को अयोग्य करार देने की शक्ति दी गई है।

अध्यक्षों को यह शक्ति दिए जाने के बाद कई बार विवाद भी पैदा हुआ क्योंकि कई बार मामले को लंबे समय तक लटकाए रखा गया तो कई मामलों में पक्षपातपूर्ण फैसले लेने के भी आरोप लगे।


1985 के अधिनियम के अनुसार किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक तिहाई सदस्यों के दलबदल को विलय माना जाता था। 2003 के 91वें संविधान संशोधन के मुताबिक दलबदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय करने की अनुमति दी गई है मगर इसके साथ यह शर्त होगी कि उसके कम से कम दो तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों।

कानून बनने के बाद भी नहीं रुका खेल

वैसे दलबदल विरोधी कानून बनने के बाद भी नेताओं के दल बदलने के खेल पर कभी रोक नहीं लग सकी। एक चर्चित शेर है कि मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। देश में दल बदलने की बीमारी पर यह पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हैं।

देश में चुनाव के मौके को दल बदलने का सबसे उम्दा सीजन माना जाता है क्योंकि इस समय सदन में है किसी भी सदस्य का कार्यकाल पूरा हो चुका होता है। पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव के दौरान इस दलबदल के खेल का नंगा नाच देखा जा सकता है। उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के अन्य चुनावी राज्यों में भी दलबदल का खेल खूब खेला जा रहा है।

दलबदल की यह घटना अब भारतीय राजनीति में किसी को नहीं चौंकाती। यदि देश में के इतिहास को देखा जाए तो दलबदल का एकमात्र कारण नेताओं का निजी स्वार्थ रहा है और उन्होंने सियासत में खुद को प्रभावी बनाने के लिए हमेशा इस खेल का सहारा लिया है।

कई राज्यों में सरकारें तक बदल गईं

यदि बहुत पुरानी घटनाओं को छोड़ भी दिया जाए तो हाल में 2020 में मध्य प्रदेश, गोवा और कर्नाटक आदि राज्यों में दलबदल के खेल के सहारे सरकारें तक बदल गईं। मजे की बात यह है कि यह खेल ऐसे समय खेला गया जब पूरा देश कोरोना महामारी से जूझ रहा था।

वैसे मध्यप्रदेश में तो दलबदल विरोधी कानून के तहत दल बदलने वाले सभी सदस्यों की विधानसभा सदस्यता समाप्त कर दी गई। दल बदलने वाले विधायकों को पार्टियों की ओर से फिर चुनाव मैदान में उतारा गया और उनमें से एक कई जीत कर फिर नई सरकार में मंत्री बन गए। जो जीतने में कामयाब नहीं हो सके या जिन्हें चुनाव मैदान में नहीं उतारा गया, उन्हें दूसरे तरीकों से सरकार की ओर से उपकृत कर दिया गया।


काफी दिनों से खेला जा रहा है यह खेल

दलबदल के इस खेल का सबसे बड़ा लाभ हमेशा सत्तारूढ़ दल को मिलता रहा है। वैसे दलबदल का यह खेल हाल-फिलहाल की घटना नहीं है बल्कि यह खेल काफी दिनों से खेला जा रहा है। यदि 1957 से 67 के बीच के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो इस दौरान 98 सदस्यों ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया जबकि 419 सदस्यों ने दूसरी पार्टियों से कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। 1967 में तो गजब खेल हुआ था और निर्वाचित लगभग 35 सौ सदस्यों में से करीब 550 ने पार्टी बदलकर दूसरी पार्टी का दामन थामा था।

हरियाणा में तो 1967 में एक रोचक घटना हुई थी जिसमें विधायक गया राम ने 15 दिनों के भीतर तीन बार दल बदलने का रिकॉर्ड कायम किया था। उसी के बाद भारतीय सियासत में आया राम,गया राम की कहावत प्रचलित हुई। हरियाणा में ही एक चर्चित नेता भजनलाल ने तो गजब का खेल खेला था और उन्होंने पार्टी के सभी सदस्यों के साथ पाला बदलकर मुख्यमंत्री बने रहने में कामयाबी हासिल की थी।

देश में हमेशा दलबदल करने वाला नेता अपनी पुरानी पार्टी को और डूबती हुई नाव बताकर दलबदल का खेल खेलता रहा है। गणतंत्र दिवस के मौके पर यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भले ही संविधान संशोधन विधेयक के जरिए दलबदल विरोधी कानून पारित किया गया हो मगर दलबदल के खेल को अभी तक रोका नहीं जा सका है।

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Vidushi Mishra

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