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Atal Bihari Vajpayee: वाजपेयी की वो कविताएं, जिन्हें आज भी याद किया जाता है

देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आज तीसरी पुण्‍यतिथि है...

Ragini Sinha
Newstrack Ragini Sinha
Published on: 16 Aug 2021 9:34 AM IST (Updated on: 16 Aug 2021 9:42 AM IST)
Atal Bihari Vajpayee poem
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 वाजपेयी की वो कविताएं, जिन्हें याद किया जाता है (social media)

देश आज पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी पुण्‍यतिथि पर श्रद्धापूर्वक याद कर रहा है। 16 अगस्त को पूर्व पीएम भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की तीसरी पुण्यतिथि है। उनकी गिनती देश की सियासत के उन चंद नेताओं में होती है, जो कभी राजनीति के बंधन में नहीं बंधे। उन्हें हमेशा ही सभी पार्टियों से भरपूर प्यार व स्नेह मिला। देश के तमाम नेता और जनता आज भी उनको याद करती है। बता दें की 16 अगस्त 2018 को उनका निधन हो गया था।

अटल बिहारी वाजपेयी की वो कविताएं, जिनको आज भी याद किया जाता है। आइए आपको बताते हैं उनकी कविताओं के बारे में।

  • गीत नहीं गाता हूँ

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं

टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ

गीत नहीं गाता हूँ

लगी कुछ ऐसी नज़र, बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ

गीत नहीं गाता हूँ

पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद

मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ

गीत नहीं गाता हूँ

  • कदम मिला कर चलना होगा

कदम मिला कर चलना होगा, बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते

आग लगाकर जलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

  • मैं न चुप हूँ न गाता हूँ

मैं न चुप हूँ न गाता हूँ

सवेरा है मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल

रूई से धुंधलके में मील के पत्थर पड़े घायल ठिठके पाँव

ओझल गाँव जड़ता है, न गतिमयता

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूं

मैं न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

समय की सदर साँसों ने, कीनारों को झुलस डाला

मगर हिमपात को देती, चुनौती एक दुर्ममाला

बिखरे नीड़, विहँसे चीड़, आँसू हैं न मुस्कानें

हिमानी झील के तट पर, अकेला गुनगुनाता हूँ।

मैं न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

  • आओ फिर से दिया जलाएं

आओ फिर से दिया जलाएं

भरी दुपहरी में अंधियारे, सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएं

हम पड़ाव को समझे मंज़िल,लक्ष्य हुआ आंखो से ओझल

वर्त्तमान के मोहजाल में, आने वाला कल न भुलाएं।

आओ फिर से दिया जलाएं।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने, नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएं

  • कौरव कौन, कौन पांडव

कौरव कौन, कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है

दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है

धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है

हर पंचायत में पांचाली अपमानित है

बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है

कोई राजा बने, रंक को तो रोना है

  • दूध में दरार पड़ गई

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया।

बँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,गले लगने लगे हैं ग़ैर

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।

बात बनाएँ, बिगड़ गई। दूध में दरार पड़ गई।

  • पुनः चमकेगा दिनकर

आज़ादी का दिन मना, नई ग़ुलामी बीच

सूखी धरती, सूना अंबर,मन-आंगन में कीच

मन-आंगम में कीच,

कमल सारे मुरझाए, एक-एक कर बुझे दीप,अंधियारे छाए;

कह क़ैदी कबिराय न अपना छोटा जी कर

चीर निशा का वक्ष, पुनः चमकेगा दिनकर।

  • मैंने जन्म नहीं मांगा था,

किन्तु मरण की मांग करुँगा।

जाने कितनी बार जिया हूँ,जाने कितनी बार मरा हूँ।

जन्म मरण के फेरे से मैं,इतना पहले नहीं डरा हूँ।

अन्तहीन अंधियार ज्योति की,कब तक और तलाश करूँगा।

मैंने जन्म नहीं माँगा था,किन्तु मरण की मांग करूँगा।

बचपन, यौवन और बुढ़ापा, कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।

फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, यह मजबूरी या मनमानी?

पूर्व जन्म के पूर्व बसी, दूनिया का द्वारचार करूँगा।

मैंने जन्म नहीं मांगा था,किन्तु मरण की मांग करूँगा।

  • मौत से ठन गई

ठन गई! मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।



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Ragini Sinha

Ragini Sinha

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