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Raja Mahendra Pratap Singh: राजा था​ बिना ताज का, सपूत था सच्चा देश का

भले ही अंग्रेजों द्वारा पकड़कर जेल में नहीं रखे जा सके। वे वैश्विक मंच पर जंगे आजादी की मशाल को प्रज्जवलित करते रहे।

K Vikram Rao
Written By K Vikram RaoPublished By Divyanshu Rao
Published on: 18 Sept 2021 8:07 PM IST
azadi ka amrut mahotsav
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राजा महेंद्र प्रताप सिंह की तस्वीर (फोटो:न्यूज़ट्रैक)

आज आजादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष में भारत की सत्ता पर यदि नेहरु—परिवार जमा रहता तो? उन असंख्य जनों में जो सैकड़ों स्वाधीनता सेनानी है, अभी तक गुमनामी में ही खोये रहते। गहन शोध कर राष्ट्रभक्तों ने जनसंचार माध्यमों द्वारा रोज सैकड़ों शहीदों को पेश किया। हर भारतीय गौरव महसूस करता है। उन पर चर्चा हो रही है। अत: मथुरा के इस महान विद्रोही राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की याद को चाह कर भी सरकारें मिटा नहीं पायीं। इसीलिये हाथरस (गुरसान) नरेश घनश्याम सिंह के आत्मज आर्य पेशवा राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की स्मृति जीवित है।

भले ही अंग्रेजों द्वारा पकड़कर जेल में नहीं रखे जा सके। वे वैश्विक मंच पर जंगे आजादी की मशाल को प्रज्जवलित करते रहे। बापू, नेताजी सुभाष, वीर सावरकर, रास बिहारी बोस की भांति महेन्द्र प्रताप इस प्राचीन राष्ट्र में जालिम ब्रिटिश शासकों द्वारा किये जा रहे अमानुषिक अत्याचारों को सर्वत्र उजागर करते रहे।

एक निजी परिदृश्य द्वितीय लोकसभा से है। मेरे सांसद—संपादक पिता की वजह से हर ​ग्रीष्मावकाश में लखनऊ से दिल्ली जाना होता था। उस दिन 1956 में लोकसभा में विदेश नीति पर चर्चा हो रही थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु जटिल वैश्विक रिश्तों की व्याख्या कर रहे थे। तभी प्रतिपक्ष की सीटों पर से महेन्द्र प्रताप सिंह उठे। अध्यक्ष एम. अननाशयनम अय्यंगर ने उन्हें चन्द मिनटों में बात समाप्त करने का आदेश दिया क्योंकि निर्दलीय सदस्यों की समय अवधि केवल तीन या चार मिनट की होती है।

राजा महेंद्र प्रताप सिंह की तस्वीर (फोटो:न्यूज़ट्रैक)

अपने निराले अंदाज में ओजस्वी वाणी में वे बोले : ''मैं इस नेहरु सरकार की त्रुटिपूर्ण राष्ट्रनीति को खारिज करता हूं। मैं अपनी विदेश नीति का मसौदा पेश करता हूं।'' सदन में कुछ देर तक फुसफुसाहट हुई, फिर लहजा मजाक में बदल गया था। हालांकि उप विदेश मंत्री लक्ष्मी एन मेनन ने रोकने का प्रयास किया था। उनके पति प्रो. वीके नन्दन मेनन लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर थे।

चूंकि मैं बीए में राजनीति शास्त्र का छात्र था, वयस्क था, अत: सांसदों द्वारा राजा महेन्द्र का उपहास बनाने पर दर्शक दीर्घा में मुझे रोष हुआ। ये सांसद राजा से अनजान थे, जैसे आज भी कई युवा अनभिज्ञ रहते है। जवाहरलाल नेहरु से तीन वर्ष बड़े राजा महेन्द्र यूरोप में कभी तहलका मचा चुके थे। तब तक जवाहरलाल नेहरु ने लंदन देखा भी नहीं था। अर्थात आज के ज्ञानीजन को कैसे पता चले कि राजा महेन्द्र प्रताप के मुलाकातियों में मास्को में तभी सत्ता में आये व ब्लादीमीर लेनिन तथा लिआन त्रास्की, इस्तांबुल (तुर्की) के सुलतान मोहम्मद रिशाद, बर्लिन में जर्मन बादशाह कैसर विल्हम आदि थे।

इन सब ने अफगानिस्तान के युवा बादशाह अमानुल्लाह को सुझाया कि राजा से मिले। तब तक अफगान सम्राट महाबली ब्रिटेन को युद्ध में परास्त कर चुका था और कराची की ओर कूच करने वाला था। बादशाह अमानुल्लाह खान ने तुरंत राजा महेन्द्र प्रताप को निर्वाचित भारत सरकार के रुप में मान्यता दे दी। वे राष्ट्रपति बने, मौलवी बरकतुल्लाह 10 अप्रैल, 1915 गृह मंत्री, मौलाना उबैदुल्लाह सिद्दीकी और मलयाली भाषी चम्पकराम पिल्लई विदेश मंत्री बने। यही पिल्लई थे जिन्होंने जयहिन्द का नारा गढ़ा था।

अपने विदेश प्रवास के दौरान राजा महेन्द्र ​के संबंध बढ़े। उन्होंने रास बिहारी बोस की आजाद हिन्द फौज को मजबूत बनाया। जो बाद में नेताजी सुभाष बोस के नेतृत्व में पनपी। जब राजा महेन्द्र ​प्रताप भारत आये तो सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल के अतिथि थे। मदन मोहन मालवीय के परामर्श पर उन्होंने मथुरा में 1909 में पॉलिटेक्निक स्थापित किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को उन्होंने जमीन देकर मदद की। मगर यहां भारत का विभाजन करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना को वैचारिक फायदा मिला।

हालांकि मेरी एक जिज्ञासा रही कि 25 जून, 1975 को इन्दिरा गांधी ने राजा महेन्द्र सिंह जैसे बागी को जेल में क्यों नहीं ठूसां? फिर महसूस किया कि 1975 में 95—वर्षीय राजा साहब को कैद करने की हिम्मत नहीं हुयी होगी। तब अमानुषिकता की पराकाष्ठा हो जाती। तो ऐसे राजा को सलाम। वे राजा नहीं फकीर थे। भारत की तकदीर बने थे। भले ही नई पीढ़ी अनजान रहे।



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