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Bharat Mein Adivasi Itihas: ऐ वतन के सारे लोगों: जरा याद करो क़ुर्बानी

Bharat Mein Adivasi Itihas: भारत में आदिवासियों ने 18वीं शताब्दी से ही ब्रिटिश दखल का विरोध करना शुरू कर दिया था। उपनिवेशकालीन भारत के इतिहास और स्वतंत्रता आन्दोलनों के इतिहास में इनके संघर्ष को कभी स्थान नहीं मिला।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Vidushi Mishra
Published on: 15 Nov 2021 3:21 PM GMT
Bharat Mein Adivasi Itihas: ऐ वतन के सारे लोगों: जरा याद करो क़ुर्बानी
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Bharat Mein Adivasi Itihas: इतिहास को फिर से लिखे जाने की ज़रूरत है, क्योंकि इतिहास को लेकर यहाँ दो दृष्टियाँ- वामपंथी व दक्षिणपंथी हैं। जो इतिहास हमारे सामने है, उसने वामपंथी लिबास पहन रखा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा के चरमोत्कर्ष काल में उम्मीद थी कि इतिहास की दक्षिणपंथी धारणा भी सामने आयेगी। पर यह हो न सका। हालाँकि कि कुछ छिटपुट प्रयास दिखते हैं। इस कड़ी में 'जनजातीय स्व तंत्रता सेनानियों के संग्रहालय' विकसित करने की योजना को ले सकते हैं।

नरेंद्र मोदी ने इसका एलान 15 अगस्तत, 2016 को स्वतंत्रता के अवसर पर किया था। ये संग्रहालय इतिहास की उन पगडंडियों का पता लगाएंगे जिन पर चलकर जनजातीय लोगों ने अपने जीने और इच्छा2 के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी। इससे राष्ट्र निर्माण में मदद मिली।

2 संग्रहालयों का निर्माण कार्य पूरा हुआ, 2022 के अंत तक सभी अस्तित्व़ में आ जाएंगे। इनमें जनजातीय प्रतिरोध जो महात्मा गांधी के प्रेरक नेतृत्वर में स्वतंत्रता आंदोलन का एक अभिन्न अंग बने, उसकी कथा होगी।

इन संग्रहालयों में बिरसा मुंडा, रानी गैदिन्लोयू, जैसे प्रतिष्ठित आदिवासी नेताओं तथा अन्य लोगों ने कैसी ऐतिहासिक भूमिका निभाई इस सब को वर्चुअल रियटी कध (वीआर), ऑगमेंटेड रियल्टी (एआर), 3 डी / 7 डी होलोग्राफिक प्रोजेक्शनों जैसी प्रौद्योगिकियों के माध्यम से दिखाया जायेगा।

आदिवासी भारत के मूल निवासी

सबसे बड़ा संग्रहालय गुजरात में राजपीपला में 102.55 करोड़ रुपये की लागत से बनाया जा रहा है। अन्य संग्रहालय रांची (झारखंड), लाम्बासिंगी (आंध्र प्रदेश), रायपुर (छत्तीसगढ़), कोझीकोड (केरल), छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश), हैदराबाद (तेलंगाना), सेनापति (मणिपुर) और केल्सी (मिजोरम) में बनाए जा रहे हैं। ये संग्रहालय बतायेंगे कि कठिन जीवन जीने के बाद भी जंग ए आज़ादी में ये आदिवासी समाज किसी से पीछे नहीं रहा।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार पूरी दुनिया में मूलवासियों/आदिवासियों की कुल जनसंख्या लगभग 48 करोड़ है, जिसका लगभग 22 फीसदी आदिवासी समाज भारत में रहता है। कहा जाता है कि आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं। आर्यों के भारत आने से पहले से ही यहाँ निवास करते रहे हैं। भारतीय पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों में इन्हें अत्विका और वनवासी भी कहा गया है। महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) कहकर पुकारा है।

आदिवासी शब्द किसी भी जनजातीय भाषा में नहीं पाया जाता है। किसी भी प्राचीन ग्रंथ- वेद, पुराण, संहिता, उपनिषद, रामायण, महाभारत, कुरआन, बाइबल आदि में कहीं भी आदिवासी शब्द नहीं मिलता। इस शब्द का प्रचलन 20वीं शताब्दी के आरंभ में मिलता है। समझा जाता है कि 1879 तक यह शब्द आम प्रचलन में नहीं आया था। 1936 के आते-आते इस शब्द ने शब्दकोष में जगह बनाई। भारतीय संविधान के मुताबिक, इस शब्द का इस्तेमाल किसी भी सरकारी दस्तावेज में नहीं होना चाहिए।

1961 की जनगणना के अनुसार जनजातियों की संख्या 3 करोड़ थी, जो 2011 में हुई जनगणना के अनुसार बढ़कर 10.5 करोड़ हो चुकी है। यानी आज भारत की आबादी के 8.5 प्रतिशत से ज्यादा लोग जनजातीय समुदाय से हैं। भारत सरकार ने इन्हें संविधान की पांचवी अनुसूची में अनुसूचित जनजातियों के रूप में मान्यता दी है। अनुसूचित जातियों के साथ ही इन्हें एक ही श्रेणी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत रखा है।

दो सदियों में छोटे-बड़े 125 विद्रोह और संघर्ष हुए

केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं। भारत में आदिवासी वैसे तो सभी राज्यों में हैं। लेकिन इनकी बड़ी संख्या मुख्य रूप से सभी पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, अंडमान निकोबार में है।


विभिन्न राज्यों में आदिवासी आबादी की बाते करें तो झारखंड में ये 26.2 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 5.49 फीसदी, बिहार में 0.99 फीसदी, सिक्किम में 33.08 फीसदी, मेघालय में 86.0 फीसदी, त्रिपुरा में 31.08 फीसदी, मिजोरम में 94.04 फीसदी, मणिपुर में 35.01 फीसदी, नागालैंड में 86.05 फीसदी, असम में 12.04 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश में 68.08 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 0.07 फीसदी हिस्सेदारी है।

भारत में आदिवासियों ने 18वीं शताब्दी से ही ब्रिटिश दखल का विरोध करना शुरू कर दिया था। उपनिवेशकालीन भारत के इतिहास और स्वतंत्रता आन्दोलनों के इतिहास में इनके संघर्ष को कभी स्थान नहीं मिला। अयोध्या नाथ सिंह ने अपनी पुस्तक 'भारत का मुक्ति संग्राम' में बताया है कि जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत की व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेना शुरू किया था, तभी से आदिवासियों ने ब्रिटिश कंपनी से संघर्ष करना शुरू कर दिया था। इन दो सदियों में छोटे-बड़े 125 विद्रोह और संघर्ष हुए।

आदिवासी बहुल छोटा नागपुर का इलाका वर्ष 1765 में ब्रिटिश व्यवस्था में शामिल हुआ था। ब्रिटिश नियंत्रण की इस कोशिश का मतलब यह था कि उन्होंने आदिवासियों की सदियों से चली आ रही पारंपरिक शासन व्यवस्था को प्रभावित किया, जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के अधिकार सीमित कर दिए गए। जंगलों को आरक्षित क्षेत्र घोषित किया।

उन जंगलों में आदिवासियों की आवाजाही को सीमित कर दिया। आदिवासियों को मजबूरी में जंगलों से पलायन का विकल्प भी अपनाना पड़ा। इन परिस्थितियों में आदिवासियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के सामने झुकने के बजाये उनके खिलाफ विद्रोह करने का विकल्प अपनाया।

चुआड़ विद्रोह या जंगल महल विद्रोह

1783 में तिलका मांझी विद्रोह हुआ। फिर कोल विद्रोह, तमाड़ विद्रोह, मुंडा विद्रोह, भूमिज विद्रोह और चेरो विद्रोह हुए। यह संघर्ष मध्य-पूर्वी भारत के बड़े हिस्से में फैलता गया। इनमें सभी समुदायों ने सहभागिता भी की। आदिवासियों का संघर्ष हमेशा अपनी स्वतंत्रता और गरिमा बनाए रखने के लिए रहा।


पश्चिम बंगाल के उत्तर-पश्चिम मिदनापुर के जंगल महल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों ने ब्रिटिश कंपनी द्वारा लगाए गए भारी करों के खिलाफ़ रघुनाथ महतो के नेतृत्व में विद्रोह किया, जो वर्ष 1768-69 से शुरू हुआ और अलग अलग रूपों में 1832 तक चलता रहा। इसे चुआड़ विद्रोह या जंगल महल विद्रोह भी कहते हैं।

महाराष्ट्र के खान देश के भीलों ने भी अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ़ सन 1818 से 1848 तक संघर्ष किया। सिंहभूम और छोटा नागपुर क्षेत्र में रखने वाले 'हो' आदिवासियों ने जमीन मालिकों और जमींदारों को जमीन से किरायेदार किसानों को बेदखल करने, जमीन बेचने, उन जमीनों पर काम करने वालों को अपना बंधक बना लेने का अधिकार दिए जाने के खिलाफ़ वर्ष 1820-21 में संघर्ष किया।

गुजरात और महाराष्ट्र के कोली समुदाय ने वर्ष 1824, 1828 और फिर 1844-48 में संघर्ष किया। असम में वर्ष 1828 से 1833 के बीच अहोम समुदाय ने लड़ाई लड़ी। असम और मेघालय के खासी समुदाय ने वर्ष 1829 से 1833 के बीच संघर्ष किया। उत्तर-पूर्व क्षेत्र के सिंग्पो ने वर्ष 1830 से 1839 के बीच संघर्ष किया।

छोटा नागपुर के कोल आदिवासियों ने वर्ष 1831-1832 में, आंध्रप्रदेश में कोयास ने वर्ष 1879 से 1880 में और 1922-24 में, कौंध ने ओड़ीसा में वर्ष 1846-48, 1855 और फिर 1914 में विद्रोह किया। वर्ष 1857 के आंदोलन में भी इनकी अहम् भूमिका थी। इसके अलावा संथाल, काचा नागा, मुंडा, भील, ओराँव, कुकी और चेंचू आदिवासी समुदायों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ़ संघर्ष किया है।

जरायम पेशा

आदिवासियों के आंदोलनों के चलते ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था ने वर्ष 1874 में अनुसूचित जिला अधिनियम के अंतर्गत आदिवासी क्षेत्रों में संवेदनशील प्रशासन के नये मानदंड बनाए, ताकि मूलनिवासियों के अधिकारों की रक्षा की जा सके।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर की किताब 'जाति का विनाश' में कहा गया है कि - अपवर्जित और अंशतः समाविष्ट क्षेत्रों के बारे में हाल की संवैधानिक चर्चाओं ने भारत के मूलनिवासियों की स्थिति के प्रति ध्यान आकृष्ट करने का काम किया है। इनकी संख्या 1.30 करोड़ है। यह सवाल महत्वपूर्ण है कि ये मूलनिवासी एक ऐसे देश में असभ्य अवस्था (शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक स्थिति के सन्दर्भ में) में बने हुए हैं, जो हज़ारों वर्ष पुरानी सभ्यता की डींग हांकता है। न केवल वे असभ्य रहे, बल्कि उनके कामों को 'जरायम पेशा' कह कर वर्गीकृत किया गया।

ब्रिटिश सरकार ने भारत की एक बड़ी जनसँख्या को क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, 1871 और 1911 के तहत आपराधिक जातियां घोषित कर दिया था। इनके बारे में कहा जाता था कि ये जीवन जीने के लिए अपराध करती हैं। इन्हें जरायम पेशा कहा जाता था। यह क़ानून भी संविधान के साथ ख़त्म नहीं हुआ। यह वर्ष 1952 में हटाया गया। लेकिन उसकी जगह आदतन अपराधी अधिनियम, 1952 बना दिया गया।

भारत में जरायम पेशा जनजातियों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत कर दिया गया - विमुक्त जनजाति (198 समूह) और घुमंतू जनजाति (1500 समूह)। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि - सभ्यता के बीच रहने वाले 1.30 करोड़ लोग आज भी वन्य अवस्था में हैं। वंशानुगत अपराधियों का जीवन जी रहे हैं। लेकिन हिन्दुओं ने कभी इस बात की शर्म महसूस नहीं की।

वे संभवतः यह स्वीकार नहीं करेंगे कि भारत के हिन्दुओं ने उन्हें सभ्य बनाने, मेडिकल सहायता देने, उनकी स्थिति बेहतर करने या समग्र नागरिक बनाने की कोशिश नहीं की। लेकिन मान लीजिये कि कोई हिन्दू आदिवासियों के लिए वह सब करना चाहता, जो ईसाई मिशनरियां कर रही हैं, तो क्या वह कर पाता? मेरा उत्तर है कि नहीं! क्योंकि आदिवासियों की स्थिति बेहतर बनाने का मतलब है।

उन्हें अपना समझकर अपनाना, उनकी बीच रहना और उनके साथ भातृत्व की भावना विकसित करना; यानी उनसे प्रेम करना। किसी भी हिन्दू के लिए ऐसा करना कैसे संभव है? उसका पूरा जीवन अपनी जाति जो बचाए रखने की उद्विग्न चेष्टा में बीतता है। आर्यों ने भारत के देशज लोगों को अनार्य कहा है, वेदों में भी देशज लोगों को अनार्य कहा गया। आर्यों ने भिन्न जीवन पद्धति और जीवन शैली के कारण, अनार्यों को घृणित रूप में अपने ग्रंथों में चित्रित किया है।

आदिवासी मूर्ति पूजक नहीं हैं, प्रकृति पूजक


भारत में आदिवासियों को दो वर्गों में अधिसूचित किया गया है- अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित आदिम जनजाति। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार यह अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है। यानी ये अधिनियम संवैधानिक स्तर से भी इन्हें हिन्दू नहीं बनाता है।

आदिवासियों की जीवन शैली, उनके रस्मो-रिवाज, उनकी संस्कृति, उनका पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ, पूजा की पद्धति, पूजा स्थल सब कुछ हिन्दुओं से अलग है। आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं, वे कर्मकांड में विश्वास नहीं करते हैं। वे नदी, पहाड़ व पेड़ की पूजा करते है। आदिवासी मूर्ति पूजक नहीं हैं, प्रकृति पूजक हैं। आदिवासी समाज में वर्ण व्यवस्था नहीं है।

आदिवासी मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर में पूजा पाठ नहीं करते हैं बल्कि उनके पूजास्थल वृक्षों के बीच सरना या जाहेरथान आदि कहे जाते हैं। आदिवासियों की भाषा संस्कृति, सोच संस्कार, पूजा पद्धति आदि पूरी तरह प्रकृति के साथ जुड़ी हुई हैं। आदिवासी के बीच दहेज प्रथा नहीं है। भारत के आदिवासी प्रकृति पूजा धर्म सरना धर्म कोड के साथ 2021 की जनगणना में शामिल होना चाहते हैं। जो उनके अस्तित्व पहचान और एकजुटता के लिए जरूरी है।

भारत में 1871 से लेकर 1941 तक हुई जनगणनाओं में आदिवासियों को अन्य धमों से अलग धर्म में गिना गया है, जिसे एबओरिजिन्स, एबोरिजिनल, एनिमिस्ट, ट्राइबल रिलिजन या ट्राइब्स इत्यादि नामों से वर्णित किया गया है। 1951 की जनगणना के बाद से आदिवासियों को अलग से गिनना बन्द कर दिया गया।

आदिवासियों का 'धर्म कोड' समाप्त

ब्रिटिश शासनकाल में भी आदिवासियों ने अपनी एक अलग पहचान बनाये रखी। उन्होंने 1901 की जनगणना में आदिवासियों के धर्म को प्रकृतिवादी लिखा था, वहीं 1911 की जनगणना में जनजातीय धर्म व प्रकृति पूजक लिखा, तथा 1931 में आदि धर्म लिखा गया था। देश आजाद होने के बाद पहली बार जब जनगणना 1951 को हुई तो अंग्रेजों द्वारा दिया गया 'धर्म कोड' हटाकर आदिवासियों को धर्म कॉलम में 'एसटी' दिया गया। इसके बाद जब 1961 में जनगणना हुई तो आदिवासियों का 'धर्म कोड' समाप्त कर दिया गया।

आदिवासी स्वयं को किसी भी संगठित धर्म का हिस्सा नहीं मानते हैं। इसलिए वे लंबे समय से अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग करते रहे हैं। इनमें प्रमुख रूप से सरना जनजाति है जो झारखण्ड में प्रमुखता से है। सरना आदिवासियों के पूजा स्थल को भी कहा जाता है, जहां वे अपनी मान्यताओं के अनुसार विभिन्न त्योहारों के मौके पर एकत्रित होकर पूजा-अर्चना करते हैं। इसमें मूर्ति पूजा की बजाय प्रकृति पूजा का विधान है।

झारखंड के आदिवासियों को जनगणना में अलग से धर्म कोड का प्रस्ताव केंद्र सरकार ठुकरा चुकी है। पूर्व में इस संबंध में विभिन्न आदिवासी संगठनों के आग्रह पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने स्पष्ट कहा था कि यह संभव नहीं है। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने कहा है कि पृथक धर्म कोड, कॉलम या श्रेणी बनाना व्यावहारिक नहीं होगा। अगर जनगणना में धर्म के कॉलम के अतिरिक्त नया कॉलम या धर्म कोड आवंटित किया गया तो बड़ी संख्या में पूरे देश में ऐसी और मांगे उठेंगी।

नशा, अंधविश्वास और जादू-टोना में विश्वास नहीं करने का आग्रह

फिलहाल जनगणना में हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन इन छह धर्मो को 1 से 6 तक के कोड नंबर दिए जाते हैं। 2011 की जनगणना में पूरे देश में 40,75,246 लोगों ने अपना धर्म सरना दर्ज कराया था। इसमें सर्वाधिक झारखंड में 34,50,523, ओडिशा में 3,53,520, पश्चिम बंगाल में 2,24,704, बिहार में 43,342, छत्तीसगढ़ में 2450 और मध्य प्रदेश में 50 लोगों ने खुद का धर्म सरना बताया था।

बिरसा मुंडा, रानी गैदिन्‍लयू, लक्ष्मणनायक, वीर सुरेंद्र , ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, चेरो सरदारभवानी राय, कोल विद्रोह के नायक सिंदराय और बिंदराय मानकी, टिकैत उमराव सिंह, पलामूके नीलाम्बर एवं पीताम्बर और शेख भिखारी, तिलका मांझी ,वीर नारायणसिंह,श्रीअल्लूरी सीता राज राजू और सिधु-कान्हू मुर्मू जैसे प्रतिष्ठित आदिवासी नेताओं केस्वतंत्रता संग्राम में योगदान तो लिए अलग से लिखा जाना ज़रूरी है।अभी तक सब लोग केवल बिरसा मुंडा तक बंधे हैं।

बिरसा मुंडा सही अर्थों में एक स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे,ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बहादुरीसे संघर्ष कर वह एक किंवदंती नायक (लीजेंड) बन गए।उन्होंने जनजातियों के बीच"उलगुलान" (विद्रोह) का आह्वान करते हुए आदिवासी आंदोलन को संचालित और इसकानेतृत्व किया। उन्होंने उनसे नशा, अंधविश्वास और जादू-टोना में विश्वास नहीं करने का आग्रह किया।

प्रार्थना के महत्व, भगवान में विश्वास रखने एवं आचार संहिता का पालन करने पर जोरदिया। वे इतने करिश्माई जनजातीय नेता थे कि जनजातीय समुदाय उन्हें 'भगवान' कहकरबुलाते थे। जब हमारा धर्म, हमारी संस्कृति प्राणी व पारिस्थितिकी को भगवान की देन मानताहै। तब हर आदिवासी को हमें भगवान मानना चाहिए क्योंकि इन सबको बचा कर रखने काकाम यह समुदाय करता है।

(लेखक पत्रकार हैं।)


Vidushi Mishra

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