TRENDING TAGS :
Caste Politics in India: नजर सवर्णों पर, क्या वोट की राजनीति शिफ्ट हो रही है
Caste Politics in India: बिहार, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश और कर्नाटक– इन राज्यों में एक चीज कॉमन हो गयी है और वह है - सवर्ण जाति आयोग।
Caste Politics in India: भारत में जातियों (castes in india) का मसला कुछ ज्यादा ही गरमा रहा है या गर्माया जा रहा है। ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियों को लेकर काफी खींचतान चल रही है। यूपी के चुनाव में ओबीसी ही नहीं बल्कि जितनी भी जातियां हैं उनको लेकर खींचतान है। जातिगत सम्मलेन इसके गवाह हैं। जातिगत आधार पर बने छोटे-छोटे राजनीतिक दल अपनी चुनावी हैसियत दिखाने पर तुले हुए हैं। कुल मिला कर मामला ओबीसी और उसके बाद दलित जातियों के इर्दगिर्द घूमता दिखाई दे रहा है।
लेकिन इससे इतर भी बहुत कुछ चल रहा है। उनमें न जो ओबीसी है न दलित। यानी सवर्ण जातियों (upper castes) के बीच। सवर्णों को खुश करने की कवायद जारी है और इस दिशा में पहला कदम आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए रिजर्वेशन करने का था। अब नई कवायद है सवर्णों के लिए आयोग बनाने की। ठीक उसी तर्ज पर जैसे कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़ा वर्ग आयोग होते हैं। सवर्णों के लिए योग बनाने की जरूरत आज़ादी के 75 साल बाद कैसे और क्यों आन खड़ी हुई है, ये विचारणीय और गंभीर सवाल है। गंभीर इसलिए कि जब सभी जातियों के लिए अलग अलग आयोग बन जायेंगे तो फिर होगा क्या? ये किस तरह की सामाजिक व्यवस्था बनने की दिशा में कदम होगा – जोड़ने वाला या तोड़ने वाला?
तीन राज्य आगे बढ़े
बहरहाल, बिहार, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश और कर्नाटक– इन राज्यों में एक चीज कॉमन हो गयी है और वह है - सवर्ण जाति आयोग (swarn jati aayog)। जिस तरह अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग है, उसी तर्ज पर सवर्ण जाति या सामान्य वर्ग आयोग। ऐसा आयोग बिहार में दस साल पहले बन गया था जबकि चंद दिन पहले ऐसे आयोग के गठन की घोषणा हिमाचल (samanya varg aayog in himachal pradesh) में हुई है। मध्यप्रदेश में इसकी घोषणा पहले ही हो चुकी और आयोग बनाने का काम जारी है। बता दें कि देश में सवर्णों की कुल आबादी 15 फीसदी है और इनके द्वारा आरक्षण हटाने की मांग बहुत जोरशोर से की जाती रही है।
बिहार
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा 27 जनवरी, 2011 को सवर्ण आयोग का गठन किया गया था। सवर्णों के बीच आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के अध्ययन के बाद आयोग की रिपोर्ट बताती है कि अगड़ी जातियों की बड़ी आबादी को रोजगार नहीं मिल पा रहा है, हिंदू व मुसलमानों की अगड़ी जातियों में काम करनेवाली कुल आबादी के एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत जनसंख्या रोजगार से वंचित और आर्थिक तंगी की चपेट में है तथा हिंदुओं में सबसे अधिक बेरोजगारी भूमिहारों में है।
सवर्ण जाति का 56.3 फीसदी हिस्सा तनख्वाह व मजदूरी पर निर्भर करता है, ग्रामीण इलाकों में हिंदू सवर्णों की 34 फीसदी जनसंख्या के पास नियमित आमदनी नहीं है , जबकि मुसलमान सवर्णों के 58 फीसदी लोग नियमित आमदनी से वंचित हैं। ग्रामीण बिहार में गरीबी के कारण ऊंची जाति के 49 फीसदी हिंदू और 61 फीसदी मुस्लिम स्कूल व कॉलेज नहीं जा पाते। इन जातियों में हायर सेकेंड्री तक की शिक्षा ग्रहण करनेवाली ग्रामीण आबादी महज 36 फीसदी है , जबकि मुसलमानों में यह मात्र 15 फीसदी ही है। इन जाति समूहों की लगभग एक चौथाई आबादी साक्षर नहीं है. इस स्थिति में बिहार सरकार ने सलाना डेढ़ लाख से कम आमदनी वाले सवर्ण परिवार को गरीब मानकर सभी कल्याणकारी योजनाओं के दायरे में रखने की अनुशंसा की है।
हिमाचल प्रदेश
हिमाचल में सवर्ण जाति आयोग के गठन की मांग को लेकर काफी समय से आंदोलन चल रहा था। पिछले हफ्ते आंदोलन काफी उग्र हो गया था और हजारों प्रदर्शनकारियों ने विधानसभा का घेराव करते हुये भीतर घुसने का प्रयास किया था। बवाल इतना बढ़ गया कि हिमाचल प्रदेश की जयराम ठाकुर सरकार ने आंदोलनकारियों की माँगों को मानते हुए 10 दिसंबर को सामान्य वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी। सीएम जयराम ठाकुर ने विधानसभा में बताया कि सामान्य वर्ग आयोग का तीन माह में गठन कर दिया जाएगा। इस आयोग का उद्देश्य सामान्य वर्ग यानी सवर्ण जातियों के हितों के लिए काम करना और उसी अनुरूप नीतियां बनाने का होगा।
कर्नाटक
कर्नाटक में तो जाति आधारित डेवलपमेंट बोर्ड और निगमों की भरमार हो गयी है। जब बीएस येदियुरप्पा मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने लगभग हर जाति को खुश करने के लिए उनके डेवलपमेंट बोर्ड और निगम बना दिए। ब्राह्मण डेवलपमेंट बोर्ड, वीरशैव - लिंगायत डेवलपमेंट कारपोरेशन, काडू गोल्ला डेवलपमेंट कारपोरेशन, मराठा डेवलपमेंट बोर्ड वगैरह। इनमें सवर्ण जातियों के भी ढेरों बोर्ड शामिल हैं। सभी बोर्डों के लिए अच्छा खासा बजट भी रखा गया था। अब इन बोर्डों का मामला हाई कोर्ट में क्योंकि दो याचिकाओं में जाति आधारित बोर्डों के गठन को चुनौती दी गयी है।
मध्यप्रदेश
इस साल जनवरी में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि सामान्य वर्ग के कल्याण के लिये भी सवर्ण आयोग बनाया जायेगा, जैसे अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़ा वर्ग आयोग है। ये आयोग बन भी गया है जिसका नाम है राज्य सामान्य वर्ग कल्याण आयोग।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीते 30 नवम्बर को इस योग की बैठक में कहा था - सामाजिक समरसता हमारा मूलमंत्र है और सभी वर्गों को न्याय दिलाना हमारी प्राथमिकता है। इसके लिए प्रदेश के हर संभाग में राज्य सामान्य वर्ग कल्याण आयोग के दौरे होंगे और सामान्य निर्धन वर्ग से सुझाव लेकर उन्हें लाभान्वित करने की कार्य-योजना बनाई जाएगी। आयोग के भ्रमण से लोगों की भागीदारी बढ़ेगी और उनके विचार शासन तक पहुँच सकेंगे। हर संभाग में गोष्ठी, संवाद, विचार-विमर्श एवं चिंतन का दौर आयोग द्वारा जारी रखा जाए।
यूपी
उत्तर प्रदेश में विभिन्न सवर्ण जाति संगठन सवर्ण आयोग बनाने की मांग उठाते रहे हैं। ये मसला संसद में उठा है जब 2018 में चित्रकूट-बांदा लोकसभा सीट से सांसद भैरव प्रसाद मिश्रा ने लोकसभा में सामान्य वर्ग आयोग की मांग उठाई थी। शून्य काल में मुद्दा उठाते हुए उन्होंने कहा था कि देश में एससी-एसटी व ओबीसी के लिए आयोग बना है तो सवर्णों के लिए भी सवर्ण आयोग का गठन होना चाहिए। यूपी के मौजूदा चुनावी माहौल में भी ये मसला उभरा है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मंत्री अभिषेक मिश्र ने ऐलान किया है कि यूपी में सपा की सरकार आने पर सवर्ण आयोग का गठन किया जाएगा। यूपी अलावा सवर्ण आयोग बनाने की मांग राजस्थान में भी उठी हुई है।
कितने सवर्ण
भारत की जनगणना में जातियों की अलग से गिनती होती नहीं है सो किस जाति के कितने लोग हैं ये पक्का पता नहीं है। सभी जातिगत नेताओं के अपने अपने अनुमान हैं, दावे हैं। वैसे, 2007 में सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा कराये गये एक सर्वे के मुताबिक देश की हिंदू आबादी में पिछड़े वर्ग की संख्या 41 फीसदी और सवर्णों की संख्या 30 प्रतिशत है।
मतदान पर असर
2014 के एक अनुमान के मुताबिक, 125 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां हर जातिगत समीकरणों पर सवर्ण उम्मीदवार भारी पड़ते हैं और जीतते हैं। लोकनीति के एक सर्वे के मुताबिक 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सामान्य जाति के 35.3 फीसदी और कांग्रेस को 25.5 फीसदी वोट मिले थे। 2014 में भाजपा को सवर्ण जाति के 47.8 फीसदी और कांग्रेस को महज 13.8 प्रतिशत वोट मिले थे।
देश की संसद की बात करें तो 1989 में ओबीसी सांसदों की संख्या 11 प्रतिशत से बढ़ कर 21 प्रतिशत हो गई। इसके बाद के चुनाव में यानी 2004 में संसद में ओबीसी सांसदों की तादाद बढ़ कर 26 प्रतिशत हो गई। सवर्ण सांसदों की तादाद 1984 में 49 प्रतिशत से गिर कर 39 प्रतिशत हो गई। इसके बाद के चुनाव यानी 2004 में सिर्फ़ 34 प्रतिशत सवर्ण ही संसद पहुँच सके। लेकिन इसके बाद यह ट्रेंड बदल गया। साल 2009 में 43 प्रतिशत सवर्ण चुने गए जबकि ओबीसी के सांसदों की संख्या गिर कर 18 प्रतिशत हो गई। यह ट्रेंड चलता रहा। साल 2014 के आम चुनाव में अगड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ कर 44.5 प्रतिशत हो गया। दूसरी ओर, ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व 20 प्रतिशत पर रुका रहा। अब संसद के कुल निर्वाचित 542 सांसदों में 232 सवर्ण हैं, जबकि ओबीसी सदस्यों की तादाद 120 है। अनुसूचित जाति के 86 और अनुसूचित जनजाति के 52 सांसद इस बार लोकसभा में हैं।
ब्रिटिश हुकूमत का जाति सिस्टम
भारत में जातिगत सिस्टम प्राचीन काल से चलता आया माना जाता है। मुग़ल और उसके बाद ब्रिटिश शासन काल में जाति सिस्टम का अपने लाभ के लिए बहुत इस्तेमाल किया गया। वर्तमान जाति सिस्टम मुग़ल युग की समाप्ति और ब्रिटिश शासन के उत्थान का नतीजा कहा जाता है।
मुगलिया साम्राज्य के पतन के साथ भारत में ऐसे शक्तिशाली लोगों का उदय हुआ जो अपने आप को राजाओं, पुरोहितों और साधू-संतों के साथ जुड़ गए और अपनी हैसियत में इजाफा करने लगे। इसके चलते जातिविहीन सामाजिक ग्रुप्स अलग अलग जातिगत समुदायों में बंटते चले गए। ब्रिटिश राज ने इस चीज को और आगे बढ़ाया और प्रशासन के मूल तंत्र में जाति सिस्टम को शामिल कर दिया। 1860 से 1920 के बीच ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपने गवर्नेंस के तंत्र में जाति सिस्टम को पूरी तरह ढाल दिया जिसके चलते प्रशासनिक नौकरियां और सीनियर पदों पर नियुक्तियां सिर्फ ईसाइयों और कुछ खास जातिवालों की ही होती थीं।
1920 की सामाजिक उथलपुथल के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी नीति में बदलाव किया और सरकारी नौकरियों का कुछ हिस्सा निचली जातियों के लिए रिज़र्व करना शुरू कर दिया। इसे समाजशास्त्रियों ने 'सकारात्मक भेदभाव' की संज्ञा दी है। आज़ादी के बाद 1948 में जाति के अधर पर नकारात्मक भेदभाव को बैन कर दिया गया और बाद में संविधान में इसकी व्यवस्था कर दी गयी।
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर सुसान बेली ने अपनी पुस्तक 'कास्ट, सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया में तथा जवाहर लाल नेहरु ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में इन बातों का उल्लेख किया है।
वैसे जाति आधारित भेदभाव भारतीय उपमहाद्वीप में अन्य धर्मों और अन्य क्षेत्रों में भी कायम है। नेपाली, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, यहूदी और सिक्खों में भी ये है। भारत के अलावा थाईलैंड, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, में भी यही सिस्टम चल रहा है।
अनुसूचित जाति आयोग (Scheduled Caste Commission)
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 21 जुलाई 1978 को एक प्रस्ताव के जरिये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए अध्यक्ष सहित पांच सदस्यीय आयोग का गठन किया था। बाद में कल्याण मंत्रालय ने एक प्रस्ताव के जरिये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया। वर्ष 1990 में संविधान के 65वें संशोधन के जरिये अनुच्छेद 332 में बदलाव करते हुए सरकार के प्रस्ताव द्वारा गठित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के राष्ट्रीय आयोग और संविधानिक व्यवस्था राष्ट्रीय आयुक्त को मिलाकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के राष्ट्रीय आयोग को संविधानिक संस्था का दर्जा दिया गया। यह कानून 12 मार्च 1992 को लागू किया गया। वर्ष 2003 में संविधान के 89 वें संसोधन से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग अलग राष्ट्रीय आयोग गठित किये गए।