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Chandra Shekhar Azad death anniversary: आज के ही दिन क्रांतिकारी चंद्रशेखर 'आजाद' हुए थे फिरंगियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त

महान स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों से लड़ते हुए 27 फरवरी 1931 को वीरगति को प्राप्त हो गए थे।

Bishwajeet Kumar
Published By Bishwajeet Kumar
Published on: 27 Feb 2022 4:02 PM IST (Updated on: 27 Feb 2022 4:08 PM IST)
Chandra Shekhar Azad
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चन्द्रशेखर 'आजाद' 

चन्द्रशेखर 'आजाद' (Chandra Shekhar Azad) का जन्म अलीराजपुर जिला के भाबरा गांव में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके पूर्वज उन्नाव जिला के (बैसवारा) से थे। आजाद के पिता सीताराम तिवारी अकाल के समय मध्य प्रदेश के अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गांव में बस गए थे। उनकी मां का नाम जगरानी देवी था। आजाद का बचपन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में बीता। भील बालकों के साथ में धनुष-बाण का खेल खेला इस से आजाद ने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली।

जब पहली बार आजाद हुए गिरफ्तार

1919 में हुए जलियांवाला बाग (Jallianwala Bagh) नरसंहार ने देश के युवाओं को तोड़ दिया। आजाद उस समय पढाई कर रहे थे। गांधी जी ने सन 1920 में जब असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो वह आग बनकर फैल गया और तमाम अन्य छात्रों की भांति आजाद भी सड़को पर उतर आएं। अपने कालेज के छात्रों के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर पहली बार गिरफ़्तार किए गए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का जिक्र पं० जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने कानून तोड़ने वाले एक लड़के की कहानी के रूप में किया है - कानून तोड़ने के लिये एक लड़के को, जिसकी उम्र 14 से 15 साल थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, 15 बेंत की सजा दी गयी। उसे नंगा किया गया और सजा देना शुरू हुआ जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते वह 'भारत माता की जय' चिल्लाता रहा था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वह लड़का भारत के क्रान्तिकारी दल का बड़ा नेता बना।

आजाद ने एक समय के लिए झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में अपने रहने का ठिकाना बनाया। वहां वह निशानेबाजी का दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से बच्चों को पढ़ाने का कार्य भी करते थे। वह धिमारपुर गांव में अपने इसी हरिशंकर नाम से स्थानीय लोगों के बीच लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी।

सन 1922 में गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लेने के कारण आजाद की विचारधारा बदल गई और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गये। इस के माध्यम से राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम देकर फरार हो गये। इसके बाद सन 1927 में बिस्मिल समेत 4 प्रमुख साथियों की वीरगति के पश्चात उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया। तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स की हत्या करके लिया। बाद में छिपकर दिल्ली पहुँच के असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दे दिया।

ऐसा भी कहा जाता हैं कि आजाद को पहचानने के लिए ब्रिटिशों ने लगभग 700 लोग नौकरी पर रखें थे। आजाद के संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) सदस्य वीरभद्र तिवारी अंग्रेजो के मुखबिर बन गए। उन्होंने ही आजाद की मुखबिरी की थी। संगठन के क्रांतिकारी सदस्य रमेश चंद्र गुप्ता ने उरई जाकर तिवारी पर गोली चला दी थी। गोली मिस होने से वीरभद्र तिवारी बच गए। रमेश चंद्र गुप्ता गिरफ्तार हुए फिर 10 साल की सजा भी हुई।

साण्डर्स हत्या और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाए भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से मना कर दिया। अन्य अभियुक्तों में से 3 लोग ने ही अपील की। 11 फरवरी, 1931 को लन्दन की प्रीवी काउन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति मांगी। किन्तु अनुमति नहीं मिली। बहस के बिना ही अपील खारिज कर दी गई। आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रांतिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे हरदोई जेल जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श के बाद इलाहाबाद गए। 20 फरवरी को नेहरू से उनके आवास पर मुलाकात हुई।

आजाद ने नेहरू से निवेदन किया कि वे गांधी जी पर लार्ड इरविन से इन तीनों की फांसी की सीज को उम्र- कैद में बदलवाने के लिए कहें। इसी विषय पर शाम को अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र से मंत्रणा कर रहे थे। तभी सीआईडी का एसएसपी नाट बाबर जीप से वहा आ पहुचा। उसके साथ भारी संख्या में कर्नलगंज थाने की पुलिस भी थी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद ने तीन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। कई अंग्रेज सैनिक घायल हो गए। अंत में जब उनकी बंदूक में एक ही गोली बची तो वो गोली आजाद ने खुद को मार ली। आजाद हमेशा के लिए इस दुनिया से आजाद हो गए। यह घटना 27 फरवरी, 1931 के दिन घटी और हमेशा के लिये इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी।

लेख - प्रशांत दीक्षित



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