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निष्पक्ष चुनाव के लिए नख दंत हीन आयोग
Election Commission of India: देश में जिस तरह सामाजिक परिवर्तन आ रहे हैं, जागरूकता बढ़ रही है, उसे देखते हुए चुनाव आयोग और नीति निर्माताओं को समय की मांग समझनी चाहिए।
Election Commission of India: निर्वाचन आयोग को देश में चुनावों का संरक्षक माना जाता है। देश में निष्पक्ष चुनाव कराने की इसकी ज़िम्मेदारी है। पर इस ज़िम्मेदारी के निर्वहन में आयोग कितना कामयाब है, यह किसी से छिपा नहीं है। दुनिया के जिन देशों के संविधान को लेकर हमने भारत का संविधान तैयार किया है, उनमें से किसी में यह या इससे मिलती जुलती संस्था इतनी नखदंत विहीन नहीं है। चुनाव सुधारों के क्षेत्रों में चुनाव आयोग (Election Commission) से कहीं ज्यादा काम कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने किया है। एसोसिएशन फ़ार डेमोक्रेटिक रिफार्म (ADR) इनमें उल्लेखनीय है। क्योंकि इसी के प्रयासों के चलते हम अपने माननीयों के आपराधिक कारनामें जान सके हैं। यह जान सके हैं कि हमारे माननीयों की संपत्ति किसी भी ख़ास आदमी की संपत्ति की तुलना में कितनी तेज़ी से बढ़ती है। माननीयों के परिजनों के बारे में जान सके हैं।
पर आयोग समय समय पर एवीएम को लेकर उठाये जाने वाले सवाल या संदेह का माकूल जवाब देने की स्थिति में नहीं दिखा है। आयोग किसी भी ग़लत तरीक़े का इस्तेमाल करने वाले उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोक पाने की स्थिति में नहीं दिखा है। चुनावों को लेकर दाखिल याचिकाओं का निस्तारण उसी पाँच साल के कार्यकाल में हो जाये, इसकी भी कोई मुकम्मल व्यवस्था आयोग आज तक नहीं कर पाया है। देश भर के चुनावों के लिए एक मतदाता सूची (Voters List) तैयार कराने की व्यवस्था आयोग नहीं कर पाया है। आयोग की हैसियत को इसी से समझा जा सकता है कि टी .एन.शेषन के पहले आयोग आम जनता की जानकारी से बहुत दूर था। शेषन के पहले और उनके बाद आयोग में न कोई तेवर रहा है और न कोई हनक।
आयोग सुनता कहां?
अंधी आँखों को भी दिखता है कि विधायक बनने के लिए पाँच सात करोड़ रूपये और सांसदी का चुनाव जीतने के लिए दस करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। चुनाव के दौरान शराब व पैसे बाँटना आम चलन है। चुनाव में नेताओं के ओछे बयान जनता को बताते हैं कि नेताजी के मुँह की लगाम रह नहीं गयी है, पर आयोग सुन नहीं पाता?
कई राजनीतिक दल अपने व्यय विवरण और राजनीतिक योगदान रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत करने में विफल रहते हैं। चुनाव आयोग चुनाव में उनकी भविष्य की भागीदारी पर रोक लगाने की धमकी दे सकता है। लेकिन वह निष्क्रिय दर्शक बना रहता है। जब राजनीतिक दल यह प्रमाणित करने में विफल रहे कि उनके द्वारा प्राप्त कॉर्पोरेट योगदान कंपनी अधिनियम और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप थे, तो चुनाव आयोग उन्हें कारण बताने के लिए कह सकता था कि उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाये। लेकिन चुनाव आयोग ने ऐसा कुछ नहीं किया।
आयोग प्रत्येक चुनाव में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने के लिए एक आदर्श आचार संहिता जारी करता है जिसका कोई विशिष्ट वैधानिक आधार नहीं है, बल्कि यह सिर्फ एक प्रेरक सुझाव मात्र है। इसमें चुनावी नैतिकता के नियम शामिल हैं। संहिता के उल्लंघन में सख्त सजा कभी सुनी नहीं गई। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के खिलाफ चुनावी भ्रष्टाचार, उम्मीदवारों द्वारा अपने हलफनामे में सटीक जानकारी का खुलासा न करने आदि के मामले दर्ज कर सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होता।
पंजीकरण रद्द करने तक की शक्ति नहीं
इसके पास राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने तक की शक्ति नहीं है। जबकि तमाम ऐसी पार्टियां हैं, जो कभी चुनाव नहीं लड़ती हैं, जो अपने खाते के बारे में जानकारियाँ जमा नहीं करती हैं, जो समय पर चुनाव कराने के अपने आंतरिक संविधान का पालन नहीं करती हैं। पर चुनाव आयोग कुछ कर नहीं सकता। पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने 2019 में एक इंटरव्यू में कहा था कि पार्टियों का रजिस्ट्रेशन रद करने के अधिकार की मांग 20 साल से लंबित है। सुप्रीम कोर्ट भी एक फैसले में आयोग को यह शक्ति देने की बात कह चुका है। लगभग 2,000 पार्टियां पंजीकृत हैं। उनमें से ज्यादातर फर्जी हैं; वे केवल मनी लॉन्ड्रिंग के लिए बनी हैं।
इसी के साथ छोटे राजनीतिक दल बड़े दलों के साथ गठबंधन का हिस्सा बन कर टिकट बेचते हैं। उत्तर प्रदेश में अपना दल, निषाद पार्टी के बारे में यह आम कहन में सुना जा सकता है। मायावती तो यह काम बरसों से कर रही हैं। पर बेचारे आयोग के पास कोई 'संजय' तो है नहीं कि जान सके। राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा पत्र, संकल्प पत्र के माध्यम से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश आयोग की निरीहता की पोल खोलती है। साइकिल, स्कूटी, मंगलसूत्र, टीवी, लैपटॉप सरीखे सामान बाँटने का राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान किये जाने वाले दावे आयोग की बुद्धि में घुस नहीं पाते हैं? आयोग को तो अपने लिए बढ़े हुए और ज़्यादा अधिकारों की माँग करनी चाहिए ताकि राजनीतिक दलों के भीतर लोकतंत्र स्थापित करने या फिर राजनीतिक दलों की हर समय की गतिविधियों पर उसका नियंत्रण रहे, पर जो है, जहां है, उस पर आयोग संतुष्ट रहता है।
सरकार के नियंत्रण में चुनावी सिस्टम
समय-समय पर, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनिवार्य है और संविधान के बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा है। आयोग के लिए बजट की व्यवस्था विधि मंत्रालय करता है। वर्ष 22-23 के लिए बजट आवंटन 260 करोड़ रुपये का है। वर्ष 21-22 के लिए यह 259 करोड़ रुपये का था। जो अमूमन आयोग में तैनात 400 अधिकारियों पर खर्च हो जाता है। इसके अलावा प्रत्येक राज्य-स्तरीय चुनाव आयोग के कार्यालयों में भी थोड़े कर्मचारी होते हैं। आयोग का तो पूरा काम राज्य व केंद्र के कर्मचारी करते हैं। वोटर लिस्ट बनाना, वोटों की गिनती, ईवीएम संचालन, पर्यवेक्षक, आदि सब काम सरकारी स्कूल टीचर से लेकर जिलाधिकारी और ऊपर के आईएएस करते हैं। कहने को यह स्वायत्त व स्वतंत्र निकाय है। पर पूरा चुनावी सिस्टम सरकार के नियंत्रण में रहता है। इसमें सब काम सरकारी अधिकारी करते हैं।
कौन होता है चुनाव आयोग का सदस्य?
चुनाव आयोग का सदस्य होने के लिए कोई निर्धारित योग्यता नहीं है। किसी को भी सदस्य बनाया जा सकता है। लेकिन अमूमन आईएएस ही सदस्य बनते रहे हैं। सेवानिवृत्त होने वाले चुनाव आयुक्तों को सरकार द्वारा आगे कोई भी नियुक्ति लेने से वंचित नहीं किया जाता है। चुनाव आयोग के सदस्यों की शर्तें संविधान द्वारा निर्दिष्ट नहीं हैं। इनकी जिम्मेदारी, कर्तव्य आदि कहीं लिखे नहीं हैं। 2015 में विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम सिस्टम की तरह की जाए। लेकिन इस सिफारिश को माना नहीं गया।
UK-US में ऐसे काम करती है राष्ट्रीय चुनाव आयोग
यूनाइटेड किंगडम में एक राष्ट्रीय चुनाव आयोग है, जिसे 2001 में राजनीतिक दलों, चुनाव और जनमत संग्रह अधिनियम 2000 के परिणामस्वरूप बनाया गया था। यह एक स्वतंत्र एजेंसी है, जो पार्टी और चुनाव फाइनेंसिंग को नियंत्रित करती है और मानकों को निर्धारित करती है कि चुनाव कैसे कराया जाना चाहिए। इसका प्रमुख एक सीईओ होता है। इसका वार्षिक बजट करीब 2 अरब रुपए का होता है। इस आयोग को व्यापक विधिक अधिकार मिले हुए हैं जिसमें पार्टियों और प्रत्याशी को आर्थिक दंड देना और अन्य सज़ा देने का अधिकार शामिल है।
अमेरिका में संघीय चुनाव आयोग (एफईसी) एक स्वतंत्र नियामक एजेंसी है जिसका उद्देश्य संघीय चुनावों में कानून लागू करना है। आयोग पार्टियों और प्रत्याशियों की चुनांवी खर्च और चंदे की जानकारी का खुलासा करता है, कानून के प्रावधानों को लागू करता है और सार्वजनिक धन की निगरानी करता है। अमेरिका में तो चुनावी प्रक्रिया में निजी प्लेयर्स को भी शामिल किया जाता है।
देश में जिस तरह सामाजिक परिवर्तन आ रहे हैं, जागरूकता बढ़ रही है, लोगों में एक बेचैनी सी है, उसे देखते हुए चुनाव आयोग और नीति निर्माताओं को समय की मांग समझनी चाहिए। अब कोई भी चीज छिपाई नहीं जा सकती। लोगों के मन में सवाल ज्यादा से ज्यादा उठने लगे हैं। ऐसे में लोकतंत्र की मजबूती और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनमानस का भरोसा मजबूत करने के लिए चुनावों से जुड़ी एक-एक चीज को पारदर्शी, सबके लिए समान और विधि सम्मत बनाया जाना और उसी तरह चलाना होगा, नहीं तो जिस दिन लोगों का भरोसा उठ गया तो लोकतंत्र का सबसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण सहारा ढह जाएगा जो अंततः विनाशकारी परिणाम ले कर आयेगा, जैसा कि इतिहास के पन्नों में कई देशों के अनुभवों के रूप में दर्ज है।
( लेखक पत्रकार हैं।)
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