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Independence Special: गुमनाम क्रांतिकारी नरेंद्र मोहन सेन, जिनसे कांपते थे अंग्रेज
Independence Special: अगस्त का महीना बहुत खास है खासकर तब जबकि इस महीने की शुरुआत में ही देश ने हुंकार भर दी थी कि अंग्रेजों भारत छोड़ो। और इसी महीने हमें आजादी भी मिली।
Independence Special: भारत की आजादी के लिए अगस्त (August) का महीना बहुत खास है खासकर तब जबकि इस महीने की शुरुआत में ही देश ने हुंकार भर दी थी कि अंग्रेजों (British) भारत छोड़ो। और इसी महीने हमें आजादी भी मिली। तारीखें इतिहास (History of 15 August) बनती हैं। अगस्त माह हमारी क्रांति के इतिहास की धरोहर है जिसमें अनगिनत क्रांतिवीर हुए कुछ के नाम चर्चा में आ गए तो कुछ गुमनामी में खो गए। जिनके बारे में कोई जान ही नहीं पाया।
इसकी मूल वजह ये थी कि इन क्रांतिकारियों का कहना था कि हमने देश सेवा की है व्यापार नहीं किया जिसके चलते देश की आजादी के बाद जब क्रांतिकारियों को पेंशन और मुआवजे की लिस्ट बनी तो इन क्रांतिकारियों का कहीं नाम ही नहीं आया क्योंकि इन्होंने पेंशन ली ही नहीं थी।
देशभक्ति का संचार
ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी थे नरेंद्र मोहन सेन (Narendra Mohan Sen)। जिनका जन्म तो अविभाजित बंगाल के जलपाईगुड़ी में हुआ था, लेकिन अपना अंतिम समय इन्होंने एक संन्यासी के रूप में वाराणसी में बिताया।
जन्म की तारीख की बात करें तो 13 अगस्त 1887 को जन्मे नरेंद्र मोहन सेन की यह 134वीं जयंती है। बचपन में इन्हें विख्यात क्रांतिकारी और "अनुशीलन समिति" के नेता पुलिन बिहारी दास का सानिध्य मिला। उनके घर पर पढ़ने का अवसर मिला और यहीं से उनके अंदर देशभक्ति का संचार हुआ।
अनुशीलन समिति स्वतंत्रता संग्राम के समय बंगाल में बनी अंग्रेज-विरोधी, गुप्त, क्रान्तिकारी, सशस्त्र संस्था थी। इसका उद्देश्य वन्दे मातरम् के प्रणेता व प्रख्यात बांग्ला उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के बताये गये मार्ग का 'अनुशीलन' करना था।
नरेंद्र बनना चाहते थे डॉक्टर, लेकिन देश प्रेम का ऐसा जुनून चढ़ा कि ढाका मेडिकल स्कूल में द्वितीय वर्ष की पढ़ाई छोड़ कर ये क्रांतिकारी अनुशीलन समिति में सम्मिलित हो गए।
अंग्रेजों का पिट्ठू
अपने साहसपूर्ण व्यवहार और कठिनतम कामों में आगे रहने से नरेन्द्र मोहन सेन को समिति में प्रमुखता मिली और उनका घर क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया। लेकिन 1909 में जब अंग्रेज़ सरकार ने समिति को ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया तो चुनौत बढ़ गई। समिति के सदस्यों को जहां तहां से गिरफ्तार कर लिया गया।
उन पर "ढाका षड़यंत्र केस" के नाम से मुक़दमा चलाया गया। इस दमन चक्र में अनेक लोगों को सजाएँ हुई, लेकिन नरेन्द्र मोहन सेन पुलिस के हाथ नहीं आए, वे गुप्त रूप से समिति की गतिविधियाँ संचालित करते रहे। साल बीतते बीतते 1910 में उनके ऊपर समिति का पूरा भार आ गया।
नरेन्द्र मोहन सेन अनुशीलन समिति के काम को आगे बढ़ाया और समिति का विस्तार आसाम, मुंबई, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब तक किया। समिति की प्रमुख गतिविधियों में स्थान स्थान पर नवयुवकों को एकत्र करना, उन्हें मानसिक व शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाना, ताकि वे अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर सकें।
उनकी गुप्त योजनाओं में बम बनाना, शस्त्र-प्रशिक्षण देना व दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों वध करना भी शामिल था। अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य उन भारतीय अधिकारियों का वध करने में भी नहीं चूकते थे जिन्हें वे 'अंग्रेजों का पिट्ठू' व हिन्दुस्तान का 'गद्दार' समझते थे।
विद्रोह को उकसाने की योजना
सेन ने 1911 में क्रांतिकारियों को रूस, जर्मनी आदि देशों में भेजने की योजना भी बनाई थी। कृषि फ़ॉर्म खोल कर उसके अंदर कार्यकर्ताओं को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया।
जेलों में बंद रहने का क्रम चलता रहा
1913 में "बारीसाल षड़यंत्र केस" में नरेन्द्र मोहन सेन गिरफ़्तार कर लिए गए, लेकिन पुलिस उन्हें सजा नहीं दिला पाई। 1914 में इन्हें नजरबंद कर लिया गया। उसके बाद गिरफ़्तारी और भारत तथा बर्मा की जेलों में बंद रहने का क्रम चलता रहा।
1913 का बारिसल षडयंत्र केस ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा 44 बंगालियों के खिलाफ मुकदमा चलाया गया था, जिन पर राज के खिलाफ विद्रोह को उकसाने की योजना बनाने का आरोप लगाया गया था इसमें त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती और प्रतुल चंद्र गांगुली प्रमुख थे।
इस प्रकार, यह स्वतंत्रता के लिए बड़े आंदोलन का हिस्सा था जिसने 1947 में अंग्रेजों के जाने से पहले के दशकों में भारत को प्रभावित किया था। लेकिन नरेंद्र मोहन सेन अनवरत क्रांति की अलख जगाए रहे। जिसके चलते द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में भी नरेन्द्र मोहन जेल से बाहर नहीं रह पाए।
देश आजाद हो जाने के बाद जीवन के उत्तरार्ध में नरेन्द्र मोहन सेन ने संन्यास ले लिया और वाराणसी आकर रहने लगे। यहीं 23 जनवरी सन 1963 को उनका निधन हो गया।