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रोज़गार की धार, सरकार पर भार

भारत में सरकारी नौकरियों में कितने खाली पद पड़े हुए हैं, इसका अनुमान लगाया जाये तो 25 से 50 लाख तक का आंकड़ा बताया जा सकता है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Divyanshu Rao
Published on: 1 Feb 2022 10:36 PM IST
रोज़गार की धार, सरकार पर भार
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रोजगार की प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

Government Jobs: निषिद चाकरी, भीख निदान। पर जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जा रहे हैं, विकास करते जा रहे हैं, वैसे वैसे नौकरी की निषिद्धता को लेकर घाघ के कहे के ठीक उलट काम करते हम नजर आ रहे हैं। तभी तो चुनाव के दिनों में सरकार बनाने के एजेंडे में सरकारी नौकरी (Government Jobs) का दावा बहुत काम आता दिखता है। हद तो यह है कि आदमी की हैसियत व रिश्तों के लिए भी नौकरी नहीं, सरकारी नौकरी मानदंड बन बैठी है। अब नौकरी उत्तम हो गयी है। सरकार की सफलता का पैमाना सरकारी नौकरी (Sarkari Naukari) देना बन बैठा है। सरकारी नौकरी के कितने पद ख़ाली व भरे हैं, यह सरकार की सफलता की कहानी कहता है।

भारत में सरकारी नौकरियों में कितने खाली पद पड़े हुए हैं, इसका अनुमान लगाया जाये तो 25 से 50 लाख तक का आंकड़ा बताया जा सकता है। केंद्र के विभिन्न मंत्रालयों के अधीन पद, केंद्र सरकार से जुड़ी विभिन्न सेवाओं के पद, राज्यों में केंद्र पोषित योजनाओं के पद, राज्यों में पुलिस से लेकर टीचरों के पद, जजों समेत अदालतों में खाली पड़े पद, विश्वविद्यालयों के पद, सरकारी नौकरियों के ढेरों ऐसे पद जो फिक्स्ड अवधि के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर भरे जा रहे हैं। इन सबको जोड़ा जाए तो आंकड़ा कहाँ पहुंचेगा, यह खुद ही समझा जा सकता है।

सरकारी डेटा

सरकारी डेटा के अनुसार सिर्फ केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के तहत कम से कम 8 लाख 70 हजार पद खाली पड़े हैं। जबकि केंद्र सरकार की अन्य विभिन्न सेवाओं (केंद्रीय यूनिवर्सिटी, केंद्रीय विद्यालय, सशस्त्र बल, सरकारी बैंक, ग्रामीण डाक सेवा आदि) के तहत 3 लाख 60 हजार पद खाली हैं।

कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने 29 जुलाई, 2021 को राज्यसभा में बताया था कि एक मार्च , 2020 तक केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में करीब 8.72 लाख पद खाली हैं। उनके अनुसार केंद्र सरकार के सभी विभागों में एक मार्च, 2020 तक स्वीकृत पदों की संख्या 40,04,941 थी, जिनमें से 31,32,698 कर्मचारी कार्यरत थे। इस आधार पर एक मार्च, 2020 तक रिक्त पदों की कुल संख्या 8,72,243 थी।

बेरोजगारी की प्रतीकात्कम तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

इन सबके अलावा राज्यों में बहुत सी ऐसी नौकरियां हैं जिनको केंद्र सरकार वित्त पोषित करती है। इसका सबसे बड़ा हिस्सा नेशनल हेल्थ मिशन का है, जिसमें केंद्र सरकार की बड़ी फंडिंग होती है। पिछले साल दिसंबर में स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में बताया था कि नेशनल हेल्थ मिशन के तहत डाक्टरों के 10,861 पद और विशेषज्ञों के 9026 पद खाली पड़े हैं। यही नहीं , नर्सिंग स्टाफ के 18278 पद और टेक्निकल स्टाफ के 9 हजार से ज्यादा पद खाली हैं। दिसंबर 2020 तक राज्यों में प्राथमिक शिक्षकों के ही 8,37, 592 पद खाली पड़े थे। इसके अलावा राज्यों में पुलिस विभाग में 5.32 लाख पद खाली हैं।

पिछले 5 साल में सबसे ज्यादा यहां हुई भर्तियां

सरकार के अनुसार 2016-17 से 2020-21 के बीच सबसे ज्यादा भर्तियां तीन संस्थाओं द्वारा की गई है। इसके तहत कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) ने 2,14,601 और रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) ने 2,04,945 उम्मीदवारों की भर्ती की है। जबकि इसके बाद संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने 25,267 उम्मीदवारों की भर्तियां की हैं।

मिनिमम गवर्नेंस

केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार का मन्त्र है – मिनिमम गवर्नेंस। मतलब यह कि जनता के बीच सरकार का दखल न्यूनतम होना चाहिए। इसी मंत्र के तहत वेतन और भत्तों पर सरकारी खर्च घटाया गया है, निजीकरण का रास्ता चुना गया है, नई भर्तियाँ कम से कम की गईं हैं। रेगुलर सरकारी नौकरी की बजाय निश्चित अवधि के कॉन्ट्रैक्ट पर लोग रखे जा रहे हैं। कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी भले ही सरकारी काम करते हैं।

लेकिन उनको रेगुलर वेतनमान की बजाय कम वेतन मिलता है और भत्ते नहीं दिए जाते हैं। बहरहाल, जो 8 लाख 70 हजार वैकेंसी सरकार ने खुद बताईं हैं, उनमें से 87 फीसदी, यानी 7 लाख 56 हजार ग्रेड सी के नॉन गजेटेड पद हैं। सिर्फ 2.4 फीसदी पद ग्रेड ए केटेगरी के हैं। मतलब यह कि निचले लेवल के पदों पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है।

बेरोजगारी दर

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में बेरोजगारी दर (दिसंबर 2021) को 16.0 फीसदी के दर पर पहुंच गई है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर है 6.7 फीसदी पर है। इसी तरह झारखंड में 17.1 फीसदी , हरियाणा में 34.1 फीसदी, राजस्थान में 17.1 फीसदी बेरोजगारी दर है।

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर सस्टेनेबल एंप्लॉयमेंट रिसर्च सेंटर के मुताबिक़, बिहार में बेरोज़गारी की दर 40 फ़ीसदी और उत्तर प्रदेश में 22 फ़ीसदी है। 2005 में 18 से 23 साल के क़रीब 15 प्रतिशत छात्र हायर एजुकेशन यानी कॉलेज में जा रहे थे, जो आज बढ़कर क़रीब 25 प्रतिशत हो गए हैं। दूसरी तरफ़, सरकारी नौकरियों में पिछले दो दशकों में लगातार कमी आई है। एक अनुमान है कि हर साल 80 लाख नए लोग नौकरी के लिए तैयार हो रहे हैं, जबकि सरकार एक लाख नौकरियां भी नहीं दे पा रही है। ये आंकड़ा भी 2013 तक के हैं क्योंकि उसके बाद से सरकार ने निश्चित आंकड़े नहीं दिए हैं।

बेरोजगारी और आत्महत्या

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़, बेरोज़गारी की वजह से 2018 में 2,741 लोगों ने आत्महत्या की थी। 2014 की तुलना में 2018 में आत्महत्या के मामले क़रीब 24 फ़ीसद बढ़े। देश में बेरोज़गारी की वजह से 2018 में सबसे ज़्यादा आत्महत्या के मामले कर्नाटक से आए थे।

पीरियाडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे के आंकड़े

2019-20 में कुल रोजगारों में से 53.5 फीसदी हिस्सा स्वरोजगार का था, 22.9 फीसदी नियमित वेतनभोगियों का और 23.6 फीसदी कैजुवल वर्कर्स का था। 2019-20 में फॉर्मल सेक्टर में 15.3 फीसदी कामगार थे । जबकि इनफॉर्मल सेक्टर में 84.7 फीसदी। गिनती की बाते करें तो सिर्फ 7 करोड़ 79 लाख लोग नियमित वेतन वाले कामों यानी फॉर्मल सेक्टर में लगे हैं। दूसरी ओर 43 करोड़ 10 लाख लोग इनफॉर्मल सेक्टर में लगे हैं। इनफॉर्मल में खेती मजदूर से लेकर स्विगी डिलीवरी बॉय से लेकर उबर ड्राईवर तक शामिल हैं। अनुमान है कि 41.19 फीसदी कृषि सेक्टर में, 26.18 फीसदी लोग उद्योग सेक्टर में और 32.33 फीसदी लोग सर्विस सेक्टर में कार्यरत हैं। यही नहीं, इनमें से 94 फीसदी कामगार अनियोजित और असंगठित उद्यमों में लगे हुए हैं।

गिग इकॉनमी का सहारा

ज़ोमैटो, स्विगी, ऊबर ओला, वगैरह जितनी भी सेवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है उसमें काम करने वाले कामगार कोई नियमित वेतनभोगी नहीं हैं। इन कामगारों को गिग वर्कर कहा जाता है और ये गिग अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। दुनिया में जितने गिग वर्कर हैं उनमें भारत में 29 फीसदी बताये जाते हैं। अमेरिका व यूरोप में तो गिग वर्कर मजबूरीवश ये काम नहीं करते । लेकिन भारत में कामकाज की कमी के चलते बेरोजगारों का बहुत बड़ा सहारा यही गिग इकॉनमी बनी है। बड़ी बड़ी डिग्रियां लिए युवक और बेरोजगार लोग सामानों की डिलीवरी करके अपना काम चला रहे हैं जबकि इस सेक्टर में बीमा, पीएफ या कोई भी अन्य सामाजिक सुरक्षा नहीं है।

बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की बेटर प्लेस ब्लू कॉलर रिपोर्ट 2021 में कहा गया है कि भारत में अभी 80 लाख गिग जॉब्स हैं , जो अगले तीन साल में 2.4 करोड़ हो जाएंगे। 2028 तक इनकी संख्या 9 करोड़ तक हो जाएगी। मिसाल के तौर पर भारत में जोमैटो और स्विगी कंपनियों के साथ करीब 5 लाख डिलीवरी पार्टनर जुड़े हुए हैं।

मसला पे-पैरिटी का

बेरोजगारी के साथ साथ सरकारी नौकरियों के प्रति युवाओं की पसंदगी की एक बहुत बड़ी वजह देश में पे-पैरिटी का न होना है। पे-पैरिटी का मतलब है समान काम के लिए समान वेतन। मिसाल के तौर पर रेलवे में ग्रुप डी की नौकरी में 17 हजार रूपये के वेतन से शुरुआत होती है । जबकि वही काम अन्यत्र करने पर बमुश्किल पांच हजार रुपये मिलते हैं। ऐसे में यूपी-बिहार के करोड़ों युवक रेलवे की छोटे पदों के कामों के लिए मारामारी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे।

फरवरी 2019 में मद्रास हाईकोर्ट ने सरकारी और निजी कंपनियों के कर्मचारियों के वेतन में बड़े अंतर को लेकर तमिलनाडु सरकार को फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा कि सरकारी कर्मचारी अपने अधिकारों की बात तो बहुत करते हैं।लेकिन उन्हें भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए।

न्यायमूर्ति एन किरुबाकरण और न्यायमूर्ति एस एस सुंदर की पीठ ने वेतन में विसंगतियों और सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों की हालिया हड़ताल से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई के दौरान में ये बात कही थी। पीठ ने कहा कि हर वेतन आयोग के लागू होने के बाद सरकारी और निजी कर्मचारियों के बीच वेतन अंतर बढ़ रहा है। अदालत ने यह भी कहा कि सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते हैं। इसने पूछा कि सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को केवल सरकारी स्कूलों में ही डालने के लिए एक नियम क्यों नहीं होना चाहिए।

वेतन विसंगति व सामाजिक सुरक्षा के अभाव ने हमारे आप के मन में सरकारी नौकरी को लेकर एक ऐसा आकर्षण तैयार कर रखा है, जिसके चलते सरकारी नौकरी को लेकर मारा मारी जारी है। यही वजह है कि सरकारी नौकरियों के आये दिन पेपर आउट होते हैं। भले ही ढेर सारी परीक्षा लेने वाली सरकारी संस्थाएँ हो पर निजी समूह के छोटे छोटे संस्थान बड़ी बड़ी परीक्षाएँ लेते मिल जायेंगे।

तभी तो प्राय: हर परीक्षा का पेपर आउट हो ही जाता है। जब तक सरकारी , कांट्रेक्ट व ग़ैर सरकारी नौकरियों के बीच सरकारी मॉनिटरिंग सख़्त नहीं होती है, सेवा शर्तों में सुधार नहीं होता है, जब तक रोज़गार व नौकरी को लेकर नज़रिया नहीं बदलता है , तब तक सरकारी नौकरी ही उम्मीद बनी रहेगी। यह उम्मीद किसी भी इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश के लिए नाउम्मीद जगाती रहेगी।

( लेखक पत्रकार हैं ।)



Divyanshu Rao

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