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krishi kanoon Bill: फिर एक नजर उन कृषि कानूनों पर जिनको वापस लिया जाएगा

krishi kanoon Bill: कृषि व्यापार (Krishi vypara) को सभी तरह की बंदिशों से आज़ादी देते हैं।

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Newstrack NetworkPublished By Ragini Sinha
Published on: 19 Nov 2021 11:41 AM IST (Updated on: 19 Nov 2021 12:52 PM IST)
Krishi kanun Bill 2020
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Krishi kanun Bill 2020 : फिर एक नजर उन कृषि कानूनों पर जिनको वापस लिया जाएगा (Social Media)

krishi kanoon Bill: केन्द्र सरकार सितंबर 2020 में 3 नए कृषि विधेयक (New Agriculture Bill) लाई थी, जिन पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद वे कानून बन (Kanoon) गए। लेकिन किसानों (Kisan bill) को ये कानून कभी रास नहीं आये। उनका कहना रहा है कि इन कानूनों से किसानों को नुकसान और निजी खरीदारों व बड़े कॉरपोरेट घरानों को फायदा होगा। किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाने का भी डर था। विभिन्न राज्यों के कई किसान और किसान संगठन लगातार तीनों कृषि कानूनों (Krishi Kanun Bill 2020) को विरोध कर रहे हैं। ऐसे में सरकार और सत्तासीन भाजपा (BJP) को बड़े राजनीतिक नुकसान का इतना डर हो गया कि तीनों कानून वापस (Bjp krishi kanoon Bill wapas lenge) लेने का ऐलान करना पड़ा। राजनीतिक नुकसान की परवाह उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) और पंजाब (Punjab) के चुनावों को लेकर सबसे ज्यादा रही होगी।

ये हैं कृषि कानून

केंद्र सरकार (central government) ने दावा किया था कि तीन कानूनों (krishi kanoon Bill) का उद्देश्य स्पष्ट है - देश के कृषि बाजार को आजाद करना। दावा किया गया कि इन विधेयकों के जरिये कृषि सेक्टर में जबरदस्त बदलाव और सुधार का रास्ता खुलेगा क्योंकि ये कृषि व्यापार (Krishi vypara) को सभी तरह की बंदिशों से आज़ादी देते हैं। इन विधेयकों के पारित होने के बाद किसान अपनी मर्जी का मालिक होगा और खेती करने तथा उपज बेचने के लिए मल्टीनेशनल्स और बड़े व्यापारी आदि से करार कर सकेगा।


ये तीन विधेयक हैं -

1. कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020

2. मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020

3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020

कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक

  • किसान अब मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकेंगे। बिना किसी रुकावट दूसरे राज्यों में भी फसल बेच और खरीद सकेंगे। मिडिलमैन और आढ़तियों का शिकंजा ख़त्म होगा।
  • -सरकारी मंडियां अपनी जगह पर कायम रहेंगी लेकिन किसानों पर वहां जाने की बाध्यता नहीं होगी। किसान को अगर मंडी से बाहर न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा है तो वो मंडी में जा कर अपनी उपज बेच सकता है।
  • मुक्त बाजार में फसल की बिक्री पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। जबकि एपीएमसी मंडियों में कृषि उत्पादों की खरीद पर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग मंडी शुल्क व अन्य उपकर लगे रहते हैं।
  • कृषि उपज की ऑनलाइन बिक्री की भी अनुमति होगी।















किस बात पर है विरोध

ट्रेड एरिया - मुख्यतः कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिसूचना की धारा 2 (एम) का विरोध है। धारा 2 (एम) किसान की उपज के व्यापार की जगहों को 'ट्रेड एरिया' के जरिये स्पष्ट करती है। इस धारा में एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्किट कमिटी एक्ट यानी सरकारों द्वारा संचालित मंडियों को शामिल नहीं किया गया है। ट्रेड एरिया वो स्थान होंगे जहाँ उपज की खरीद - बिक्री की जायेगी। इसमें उत्पादन, संग्रह, एकत्रीकरण की जगहें होंगी। ट्रेड एरिया में फार्म गेट यानी खेत, कारखाना परिसर, वेयर हाउस, बुखारी, कोल्ड स्टोरेज, के अलावा वो सब स्थल शामिल होंगे जहाँ किसानों की उपज का व्यापार किया जाएगा।


इस परिभाषा में एपीएमसी एक्ट के तहत बनाई गयी बाजार समितियों के व्यापर स्थल का कोई उल्लेख नहीं है। साथ ही एपीएमसी एक्ट के तहत नोटिफाई किये गए बाजारों का भी कोई उल्लेख नहीं है। विरोधियों का कहना है कि एपीएमसी मंडियां का क्षेत्र बहुत सीमित हो जाएगा और बड़े कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जायेगी।

ट्रेडर - एक विरोध धारा 2 (एन) को लेकर है जो ट्रेडर यानी व्यापारी को परिभाषित करती है। इसके अनुसार ट्रेडर वह व्यक्ति है जो राज्य के भीतर या अंतर-राज्यीय व्यापार के जरिये किसानों की उपज खरीदता है। ये खरीद थोक व्यापार, खुदरा व्यापार, वैल्यू एडिशन, प्रोसेसिंग, निर्यात, निर्माण, उपभोग, आदि के लिए की जा सकती है। ट्रेडर ये खरीद अपने लिए, या अन्य व्यक्ति-व्यक्तियों के लिए कर सकता है। कुल मिला कर ट्रेडर में प्रोसेसर, एक्सपोर्टर, होलसेलर, मिलर और रिटेलर सब शामिल हैं। कोई भी ट्रेडर जिसके पास पैन कार्ड है वो ट्रेड एरिया में किसानों की उपज खरीद सकता है। ट्रेडर एपीएमसी मंडी या ट्रेड एरिया दोनों जगह ऑपरेट कर सकता है। लेकिन एपीएमसी मंडी में ऑपरेट करने के लिए ट्रेडर के पास सम्बंधित राज्य के एपीएमसी एक्ट के तहत जारी लाइसेंस या रजिस्ट्रेशन होना चाहिए। वर्तमान व्यवस्था में आढ़तियों या कमीशन एजेंटों के पास मंडी में काम करने का लाइसेंस होना चाहिए।

नयी व्यवस्था का विरोध करने वालों का कहना था कि आढ़तियों की एक साख होती है क्योंकि मंडी सिस्टम में काम करने के लाइसेंस के लिए उनकी वित्तीय स्थिति को वेरीफाई किया जाता है। नए सिस्टम में किसान किसी व्यापारी या ट्रेडर पर कैसे भरोसा करेंगे। पंजाब और हरियाणा में आढ़ती सिस्टम काफी मजबूत है सो वहां इसका ज्यादा विरोध हो रहा है।

बाजार शुल्क : सेक्शन 6 में कहा गया है कि किसी ट्रेड एरिया में किसानों की उपज पर किसी किसान, ट्रेडर, इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और अन्य लेनदेन पर किसी भी राज्य के एपीएमसी एक्ट या राज्य के किसी भी अन्य कानून के तहत कोई भी बाजार शुल्क या उपकार या लेवी या किसी भी अन्य नाम से कोई शुल्क नहीं लगाया जाएगा। इससे लेनदेन की लगत घटेगी और किसानों और व्यापारियों - दोनों को फायदा होगा। वर्तमान व्यवस्था में राज्य की मंडियों में कई तरह के शुल्क लगते हैं। मिसाल के तौर पर पंजाब में 8.5 फीसदी चार्ज पड़ता है जिसमें 3 फीसदी बाजार शुल्क, 3 फीसदी विकास शुल्क और 2.5 फीसदी आढ़तिया कमीशन शामिल है। विरोधियों का कहना है कि व्यापर पर शुल्क हटा कर सरकार अप्रत्यक्ष रूप से बड़े कार्पोरेट्स को मदद पहुंचा रही है और सरकारी मंडियों के साथ असमानता का व्यवहार किया जा रहा है।

विवाद समाधान : एक विरोध सेक्शन 8 को लेकर है जिसमें विवादों को सुलझाने की व्यवस्था की गयी है। इस सेक्शन में कहा गया है कि किसान और व्यापारी के बीच लेनदें को लेकर अगर कोई विवाद होता है तो दोनों पक्ष एसडीएम के यहाँ प्रार्थना पत्र देंगे। एसडीएम इस प्रार्थना पत्र को एक समझौता बोर्ड के समक्ष रिफर करेगा। ये समझौता बोर्ड एसडीएम द्वारा नियुक्त किया जाएगा जिसका फैसला दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होगा। विरोधियों का कहना है कि समझौते का प्रस्तावित सिस्टम का किसानों के खिलाफ दुरुपयोग किया जा सकता है। ये भी विरोध है कि किसानों को सिविल कोर्ट जाने की इजाजत अध्यादेश में नहीं दी गयी है।

मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020

इस विधेयक के जरिये देशभर में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव है। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। अनुबंधित किसानों को सभी प्रकार के कृषि उपकरणों की सुविधाजनक आपूर्ति करने और नियमित और समय पर भुगतान सुनिश्चित करने की व्यवस्था बनाई जायेगी। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में जमीन पर किसान का ही अधिकार रहेगा, फसल खराब होने पर उसके नुकसान की भरपाई किसानों को नहीं बल्कि एग्रीमेंट करने वाले पक्ष या कंपनियों को करनी होगी। किसान कंपनियों को अपनी कीमत पर फसल बेचेंगे।

किसानों को देय भुगतान राशि के उल्लेख सहित डिलीवरी रसीद उसी दिन किसानों को दी जाएगी। मूल्य के संबंध में व्यापारियों के साथ बातचीत करने के लिए किसानों को सशक्त बनाने के लिए प्रावधान है कि केंद्र सरकार, किसी भी केंद्रीय संगठन के माध्यम से, किसानों की उपज के लिए मूल्य जानकारी और बाजार सूचना प्रणाली विकसित करेगी। कोई विवाद होने पर निपटाने के लिए बोर्ड गठित किया जाएगा, जो 30 दिनके भीतर समाधान करेगा। किसानों का कहना है कि फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाने का प्रयास करेंगी और छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी।

आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन बिल

आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन किया गया है और अब खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू जैसे कृषि उत्पादों पर से स्टॉक लिमिट हटा दी गई है। बहुत जरूरी होने पर ही इन पर स्टॉक लिमिट लगाई जाएगी। ऐसी स्थितियों में राष्ट्रीय आपदा, सूखा जैसी अपरिहार्य स्थितियां शामिल हैं। इसके अलावा अगर सब्जियों की कीमतें दोगुनी हो जाएँगी या खराब न होने वाली फसल की रिटेल कीमत 50 फीसदी बढ़ जाएगी तो स्टॉक लिमिट लागू होगी। प्रोसेसर या वैल्यू चेन पार्टिसिपेंट्स के लिए ऐसी कोई स्टॉक लिमिट लागू नहीं होगी। उत्पादन, स्टोरेज और डिस्ट्रीब्यूशन पर सरकारी नियंत्रण खत्म होगा। इसके पीछे तर्क है कि सरकार सामान्य अवस्था में इनके संग्रह करने और वितरण करने पर अपना नियंत्रण नहीं रखेगी। इसके जरिए फूड सप्लाई चेन को आधुनिक बनाया जाएगा साथ ही कीमतों में स्थिरता बनाए रखेगा।

मंडियां और एमएसपी

किसानों को डर है कि नए कानून के बाद एमएसपी पर खरीद नहीं होगी। विधेयक में इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है कि मंडी के बाहर जो खरीद होगी वह एमएसपी से नीचे के भाव पर नहीं होगी। अगर बाहर दाम कम मिलते हैं तो किसान मंडी आकर फसल बेच सकते हैं जहां उन्हें एमएसपी मिलेगा।

सरकार का कहना है कि किसान इस कानून के जरिये अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे। निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे। सरकार ने इस कानून के जरिये एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है। एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी की मंडियों को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है। किसानों को यह भी डर है कि सरकार धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म कर सकती है।

किसानों की मांगें?

आंदोलनकारी किसान संगठन केंद्र सरकार से तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं और इनकी जगह किसानों के साथ बातचीत कर नए कानून लाने को कह रहे हैं। किसानों की 5 प्रमुख मांगें इस तरह हैं –

  • तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाए क्योंकि ये किसानों के हित में नहीं है और कृषि के निजीकरण को प्रोत्साहन देने वाले हैं। इनसे जमाखोरों और बड़े कॉरपोरेट घरानों को फायदा होगा।
  • एक विधेयक के जरिए किसानों को लिखित में आश्वासन दिया जाए कि एमएसपी और पारंपरिक अनाज खरीद सिस्टम खत्म नहीं होगा।
  • किसान संगठन कृषि कानूनों के अलावा बिजली बिल 2020 को लेकर भी विरोध कर रहे हैं। आरोप है कि इस बिल के जरिए बिजली वितरण प्रणाली का निजीकरण किया जा रहा है। इस बिल से किसानों को सब्सिडी पर या फ्री बिजली सप्लाई की सुविधा खत्म हो जाएगी।
  • चौथी मांग एक प्रावधान को लेकर है, जिसके तहत पराली जलाने पर किसान को 5 साल की जेल और 1 करोड़ रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
  • प्रदर्शनकारी यह भी चाहते हैं कि पंजाब में पराली जलाने के चार्ज लगाकर गिरफ्तार किए गए किसानों को छोड़ा जाए।

झगड़ा एमएसपी का

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के मुताबिक़ उनकी अहम माँगों में से एक है - सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम कीमत पर ख़रीद को अपराध घोषित करे और एमएसपी पर सरकारी ख़रीद लागू रहे। एमएसपी पर ख़ुद प्रधानमंत्री ट्वीट कर कह चुके हैं कि – एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी, सरकारी ख़रीद जारी रहेगी।

लेकिन ये बात सरकार बिल में लिख कर देने को तैयार नहीं है। सरकार की दलील है कि इसके पहले के क़ानूनों में भी लिखित में ये बात कहीं नहीं थी इसलिए नए बिल में इसे शामिल नहीं किया गया है। दरअसल एमएसपी पर सरकारी ख़रीद चालू रहे और उससे कम पर फसल की ख़रीदने को अपराध घोषित करना, इतना आसान नहीं हैं जितना किसान संगठनों को लग रहा है।

एमएसपी क्या है

  • देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू की गई है। अगर कभी फसलों की क़ीमत बाज़ार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल ख़रीदती है ताकि किसानों को नुक़सान से बचाया जा सके। किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है।
  • भारत सरकार का कृषि मंत्रालय, कृषि लागत और मूल्य आयोग (की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय करता है। इसके तहत अभी 23 फसलों की ख़रीद की जा रही है। इन 23 फसलों में धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन, तिल और कपास जैसी फसलें शामिल हैं। एक अनुमान के अनुसार देश में केवल 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है, जिनमें से सबसे ज्यादा किसान पंजाब हरियाणा के हैं। और इस वजह से नए बिल का विरोध भी इन इलाकों में ज्यादा हो रहा है।
  • भारत के 60 करोड़ किसानों में 82 फीसदी लघु और सीमान्त किसान है जो देश के कुल अनाज प्रोडक्शन में 40 फीसदी का योगदान करते हैं। यही नहीं, फल, सब्जी, तिलहन और अन्य फसलों में छोटे किसानों की हिस्सेदारी 50 फीसदी है। कृषि और सम्बंधित क्षेत्रों पर देश की 60 फीसदी आबादी आश्रित है। ग्रामीण क्षेत्रों में 70 फीसदी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। भारत में किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के मकसद से 18 नवंबर 2004 को केंद्र सरकार ने कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने पांच रिपोर्ट सौंपी थीं लेकिन इस रिपोर्ट पर आज तक संसद में चर्चा तक नहीं हुई है। आयोग की सिफारिश के अनुसार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का डेढ़ गुना दिया जाना चाहिए और सरकार यह दावा भी करती है लेकिन किसान अपनी फसलों की गणना के तरीके पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। कर्ज किसानों की बड़ी समस्या है। आयोग की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 52.5 फीसदी किसान भारी कर्जे में दबे हुए हैं। नाबार्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 तक कृषि कर्ज 61 फीसदी बढ़कर 11.79 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। सरकारें यदाकदा किसानों का कर्जा माफ़ करती रहीं हैं लेकिन समस्या ज्यों कि त्यों है।


Ragini Sinha

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