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Manual Scavenging: मैनुअल स्कैवेंजिंग को खत्म करने में केंद्र सरकार विफल
Manual Scavenging: 29 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेस ने सवाल किया था कि सरकार बताये मौजूदा समय में कितने लोग हाथ से मैला ढोने का काम कर रहे हैं और इस कारण कितने लोगों की मौत हुई है?
Manual Scavenging: भारत के दोनों ही सदनों में अभी मानसून सत्र (Monsoon Session) चल रहा है। केंद्र सरकार (Central Government) द्वारा सवालों के जवाबों में सच्चाई देखने को नहीं मिल पा रही है, क्योंकि वे खुद अपने बयान से पलटते हुए दिखाई दे रहें हैं। दरअसल 29 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेस (Congress) नेता मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) ने सरकार से सवाल किया था कि सरकार बताये मौजूदा समय में कितने लोग हाथ से मैला ढोने का काम कर रहे हैं और पिछले पांच सालों में इस कारण कितने लोगों की मौत हुई है?
जवाब में राज्यसभा में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री रामदास अठावले ने कहा है कि भारत में पिछले पांच सालों में हाथ से मैला ढोने (Manual Scavenging) से कोई मौत रिपोर्ट नहीं हुई है।
जबकि अभी 4 महीने पहले ही अठावले ने एक बयान दिया था कि पिछले पांच सालों में नालों और टैंकों की सफाई के दौरान 340 लोगों की जान गई है, जिसमे से सिर्फ सिर्फ 217 लोगों को पूरा मुआवजा तथा 47 लोगो को आधा ही मुआवजा मिल पाया था।
इसके अलावा सरकार स्वयं सितंबर 2020 के मानसून सत्र में हाथ से मैला उठाने के खिलाफ विधेयक लायी थी। सरकार ने कहा था कि हाथ से मैला सफाईकर्मी कार्य का प्रतिषेध एवं उनका पुनर्वास (संशोधन) विधेयक, 2020 में सीवर की सफाई को पूरी तरह मशीन से कराने और कार्य स्थल पर बेहतर सुरक्षा व दुर्घटना के किसी मामले में मुआवजा देने का प्रस्ताव किया जाएगा। अतः समझा जा सकता है जो सरकार पिछले साल भी हाथ से मैला ढोने के खिलाफ सख्त होती नज़र आ रही थी । वह अब अपने बयान से पलट क्यों रही है?
विपक्ष हुआ हमलावर
राज्यसभा में मंगलवार को विभिन्न दलों के सदस्यों ने हाथ से मैला ढोने और कचरा साफ करने की कुप्रथा, ओडिशा के संबलपुर रेलवे स्टेशन को बंद करने, कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को किसान की मान्यता देने और कोविड-19 से संबंधित जैव चिकित्सकीय कचरों के प्रबंधन का मामला उठाया गया और इनके समाधान के लिए समुचित कार्रवाई की मांग की गई.समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन (Jaya Bachchan) ने राज्य सभा (Rajya Sabha) में शून्यकाल के दौरान मंगलवार को हाथ से मैला ढोने और कचरा साफ करने का मुद्दा उठाया. जया बच्चन ने कहा कि मैला ढोने वालों या उनकी मौत पर सदन में चर्चा करनी पड़ रही है, यह पूरे देश के लिए शर्म की बात है।
कांग्रेस की ही अमी याज्ञिक ने कोविड-19 महामारी से संबंधित जैव चिकित्सकीय कचरों के प्रबंधन का मामला उठाया और इसके निष्पादन की उचित प्रक्रिया विकसित करने की मांग की ताकि समाज को इसके खतरे से बचाया जा सके. राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने भी इसे गंभीर मामला बताया।
सरकार के द्वारा पेश पिछले दो सालों के आंकड़े
पिछले साल लोकसभा में इसी तरह के एक सवाल का जवाब देते हुए अठावले ने दोनों प्रथाओं के बीच अंतर किया था. उन्होंने कहा था कि हाथ से मैला ढोने से किसी की मौत की सूचना नहीं है, लेकिन उन्होंने कहा कि 2016 और 2019 के बीच 282 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई हैं.बुधवार को अपने जवाब में अठावले ने ये भी उल्लेख किया कि दो सरकारी सर्वेक्षणों ने बताया कि 2013 से पहले 66692 लोग हाथ से मैला ढोने में लगे थे. उन्होंने ये भी उल्लेख किया कि 2020-21 में 14,692 हाथ से मैला ढोने वालों या उन पर निर्भर लोगों को आर्थिक सहायता दी गई. अठावले ने कहा कि सभी पहचान किए गए और पात्र मैला ढोने वालों को 40,000 रुपए की दर से एकमुश्त नकद सहायता प्रदान की गई है.
पिछले 10 सालों में श्रमिकों के मरने के आंकड़े (Death Records)
सरकारी आंकड़ो के मुताबिक, 2019 में 115 श्रमिक की मौत हुई, 2018 में 73, 2017 में 93,2016 में 55,2015 में 62,2014 में 52, 2013 में 68,2012 में 47 , 2011में 37 ,2010 में 27 श्रमिको की मौत हाथ से मैला ढोने के दौरान हुई।
हाथ से मैला ढोना बन्द करना क्यों जरूरी है ?
हमारे देश में सदियों पुरानी हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। स्वच्छ भारत अभियान के साथ भारत में शौचालयों के निर्माण में तीव्र गति से विकास हुआ, किंतु सेप्टिक टैंकों या सीवर की सफाई के लिये कोई कारगर तकनीक अभी तक विकसित नहीं की जा सकी है।मैला ढोने के विभिन्न रूपों को समाप्त करने की आवश्यकता को लेकर देश में एक व्यापक सहमति है किन्तु दुर्भाग्यवश अभी तक के सभी प्रयास, जिनमें दो राष्ट्रीय कानून तथा कई अदालत के निर्देश शामिल हैं, इस व्यापक स्वीकृत उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हुए हैं.इसके अलावा मैला ढोने और सीवर श्रमिकों के पुनर्वास और क्षतिपूर्ति के संबंध में भी बहुत गंभीर विफलताएं सामने आई हैं.
हाथ से मैला ढोना (मैनुअल स्केवेंजिंग) क्या है? (Manual Scavenging Kya Hai)
किसी व्यक्ति द्वारा शुष्क शौचालयों या सीवर से मानवीय अपशिष्ट (मल-मूत्र) को हाथ से साफ करने, सिर पर रखकर ले जाने, उसका निस्तारण करने या किसी भी प्रकार से शारीरिक सहायता से उसे संभालने को हाथ से मैला ढोना या मैनुअल स्केवेंजिंग कहते हैं। इस प्रक्रिया में अक्सर बाल्टी, झाड़ू और टोकरी जैसे सबसे बुनियादी उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इस कुप्रथा का संबंध भारत की जाति व्यवस्था से भी है जहाँ तथाकथित निचली जातियों द्वारा इस काम को करने की उम्मीद की जाती है।
पहला कानून कब लाया गया और बाद में हुए संशोधन
मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने का पहला कानून देश में 1993 में पारित हुआ था और फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून अधिनियमित हुआ. पहले कानून में केवल सूखे शौचालयों में काम करने को समाप्त किया गया जबकि दूसरे कानून में मैला ढोने की परिभाषा को बढ़ाया गया जिसमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया. इस नए कानून ने स्पष्ट तौर पर मैला ढोने वाले या इसके सम्पर्क में आने वाले श्रमिकों की संख्या को बढ़ाया है परन्तु नई परिभाषा के अनुसार ऐसे श्रमिकों की सही संख्या अभी ज्ञात नहीं है.
2013 अधिनियम के तहत हाथ से मैला ढोने वाले व्यक्तियों को प्रशिक्षण प्रदान करने, ऋण देने और आवास प्रदान करने की भी व्यवस्था की गई है।इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार 21 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में जिला निगरानी समिति, 21 राज्यों में राज्य निगरानी समिति और 8 राज्यों में राज्य सफाई कर्मचारी आयोग का निर्माण किया गया है।
इसके अलावा 1980 -81 में केंद्र द्वारा कुछ योजनायें लायी गयी जिनका उद्देश्य ड्राई टॉयलेट्स को पिट टॉयलेट में बदलने का रहा। 1989 को अनुसूचित जाति जनजाति विकास और वित्तीय कॉर्पोरेशन द्वारा ऐसे श्रमिको को वित्तीय सहायता देने का लक्ष्य रखा गया।1989 में दलित लोगों की सुरक्षा के लिए एक्ट लाया गया। 1993 की रिपोर्ट को आगे बढ़ते हुए 2004 में संशोधन किया। पहली रिपोर्ट 2000 में पेश हुई।इसके बाद सीधे 2013 में इसके लिए सख्त कदम उठाए।
1956 से लेकर 2009 तक अनेक कमीशन रिपोर्ट आयी, सभी मे मैन्युअल एस्क्वेनजिंग का विरोध मिला। 2007 में तय किया गया कि श्रमिको को कोई अन्य रोजगार इसकी जगह दिया जायेगा पर वह भी 2009 तक भी पूरा नही हो सका।
उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा श्रमिक
योजना आयोग द्वारा 1989 में स्थापित टास्क फोर्स की उप-समिति के अनुसार देश में 72.05 लाख सूखे शौचालय थे. हर छह सूखे शौचालयों पर एक श्रमिक को अगर हम मानें तो 1989 में देश में दस लाख से अधिक ऐसे श्रमिक थे. सफाई कर्मचारी आंदोलन के वर्तमान अनुमान के अनुसार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और देश के कुछ अन्य राज्यों में अभी भी 1.6 लाख ऐसे श्रमिक मौजूद हैं.राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग द्वारा वर्ष 2018 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार, हाथ से मैला ढोने में लगे कुल 53,598 व्यक्तियों में से 29,923 अकेले उत्तर प्रदेश के थे।
35,397 मामलों में एकमुश्त नकद सहायता का वितरण किया गया था जिनमें से 19,385 व्यक्ति केवल उत्तर प्रदेश से थे। 1,007 और 7,383 मैला ढोने वाले व्यक्तियों को क्रमशः सब्सिडी पूंजी और कौशल विकास प्रशिक्षण प्रदान किया गया था।
गुजरात राज्य में दर्ज 162 मैला ढोने वालों की मौतों में से 48 में भुगतान करना या भुगतान की पुष्टि करना बाकी था और 31 मामलों में मुआवज़ा पाने वाले कानूनी उत्तराधिकारी का पता नहीं लगाया जा सका।
कानून होने के बाद भी इसी साल के सर्वे में 66692 की संख्या में ऐसे श्रमिक पाए गए जो हाथ से मैला ढोने का काम करते है। जिसमें से सबसे ज्यादा 37379 श्रमिक सिर्फ उत्तरप्रदेश से थे।इसके बाद महाराष्ट्र, फिर उत्तराखंड और फिर असम में श्रमिक पाए गये। मार्च के महीने में बैंगलोर में कांट्रेक्टर्स और अधिकारियों को इस नियम के उल्लंघन करने पर फाइन करने का निर्देश दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी
फिर 27 मार्च 2014 को इस मुद्दे पर का एक महत्त्वपूर्ण निर्णय आया, जिसमें सीवर श्रमिकों के मुद्दे को भी शामिल किया गया क्योंकि उन्हें भी बहुत मुश्किल परिस्थितियों में बिना किसी सुरक्षात्मक आवरण के सीवर लाइनों की सफाई करते हुए मानव मल को को साफ करना पड़ता है.
माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार ऐसे प्रत्येक श्रमिक के परिवार को 10 लाख रुपये का मुआवजा मिलना चाहिए. लेकिन अभी तक तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों में केवल 80 ऐसे श्रमिकों के परिवारों को ही मुआवजा प्राप्त हुआ है. अगर हम इस वर्ष की बात करें तो मार्च से मई 15 के समयकाल में ही ऐसी लगभग 40 मृत्यु देश के अलग-अलग भागों से रिपोर्ट हो चुकी हैं.माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार ऐसे प्रत्येक श्रमिक के परिवार को 10 लाख रुपये का मुआवजा मिलना चाहिए. लेकिन अभी तक तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों में केवल 80 ऐसे श्रमिकों के परिवारों को ही मुआवजा प्राप्त हुआ है. अगर हम इस वर्ष की बात करें तो मार्च से मई 15 के समयकाल में ही ऐसी लगभग 40 मृत्यु देश के अलग-अलग भागों से रिपोर्ट हो चुकी हैं।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग प्रमुख अरुण मिश्रा की सिफारिशें
मानवाधिकार आयोग के प्रमुख जनवरी 2021 को ऑनलाइन अधिकारियों के साथ बैठक ली।उन्होंने मैला ढोने की प्रथा को जारी रखने पर गंभीर चिंता व्यक्त की और कहा कि इसके उन्मूलन के लिए कानून और दिशानिर्देश मौजूद हैं। इसके बावजूद इसका जारी रहना न केवल हमारे संविधान के मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अधिकारों का भी उल्लंघन है।मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए वैज्ञानिक और नवीन तकनीक अपनाएं।
मैनुअल स्केवेंजिंग के दौरान दुर्घटनाओं को रोकने हेतु संभावित समाधान
- सीवर प्रणाली या सेप्टिक टैंकों की सफाई हेतु नई और स्थानिक तकनीकी के विकास पर जोर दिया जाना चाहिये ताकि मानवीय संलग्नता को इस क्षेत्र से कम किया जा सके।
- जैव तकनीकी के विकास के साथ कुछ ऐसे पौधे या बैक्टीरिया का विकास किया जाना चाहिये जो सीवर प्रणाली या सेप्टिक टैंकों के अपशिष्ट का निपटान उचित ढंग से कर सकें और यह पर्यावरण के अनूकूल हो।
- स्वच्छ भारत अभियान में परंपरागत शौचालयों के स्थान पर जैव शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये जिससे सेप्टिक टैंकों के अपशिष्ट के निस्तारण में पुनः मानवीय सहयोग की आवश्यकता न पड़े।
- तकनीकी विकास की सहायता से रोबोटिक्स के ज़रिये सीवेज कर्मियों का प्रतिस्थापन किया जाना चाहिये तथा उन्हें बेरोज़गारी से बचाने हेतु इस नई तकनीक के उपयोग में उन्हें दक्ष बनाया जाना चाहिये।
केरल में इस दिशा में सराहनीय प्रयास शुरू किया गया है, जहां केरल जल प्राधिकरण तथा स्टार्टअप कंपनी जेनरोबोटिक्स द्वारा विकसित रोबोट का हाल में प्रायोगिक तौर पर इस्तेमाल किया गया जो सीवर की सफाई में इंसानों की जगह इस्तेमाल किया जाएगा।
जल बोर्ड एवं विद्युत बोर्ड के समान सीवेज प्रबंधन हेतु एक अलग नियामक संस्था यथा- सीवेज बोर्ड आदि का गठन किया जाना चाहिये ताकि सीवर प्रणाली का विकास और उसका रख-रखाव अलग-अलग संस्थाओं द्वारा किया जा सके।
पुनर्वास को बढ़ावा-मैला ढोने के कार्य से जुड़े श्रमिकों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना के पहले के वर्षों में 100 करोड़ रुपए के आसपास आवंटित किया गया था. जबकि 2014-15 और 2015-16 में इस योजना पर कोई भी व्यय नहीं हुआ था.
2016-17 के बजट में केवल 10 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था, लेकिन वर्ष के संशोधित अनुमानों में इसमें भी कटौती कर इसे 1 करोड़ रुपए पर ले आए थे. इस वर्ष के बजट अनुमान में केवल 5 करोड़ रुपए की राशि प्रदान की गई है।यह चौंकाने वाला है क्योंकि इस उपेक्षित क्षेत्र में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.वित्त मंत्री के ऐलान के मुताबिक स्वच्छ भारत मिशन अभियान में अगले पांच सालों के लिए औसतन 28,335 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, जो पिछले साल (2020-21) के बजट आवंटन (12,300 करोड़ रुपये) से दो गुना से भी ज्यादा है. पर अगर खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हुए मारे गए अब तक के सीवर श्रमिकों के ज्ञात मामलों को मुआवजा देने की ही हम बात करें तो इसके लिए तत्काल 120 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी.
इस कुप्रथा से गयी कई जाने
- 2020 तक कुल 62904 लोगों की पहचान हो चुकी जो ये काम करते हैं और इसमें सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश है।
- 28 मई को ग्रेटर नोएडा में सीवर टैंक में मैला साफ करने के दौरान एक 21 साल के मजदूर की मौत हो गयी उसे बिना सुरक्षा उपकरणों के टैंक में भेज दिया था।
- 26 मार्च 2021 को दो मजदूरों की सीवर टैंक साफ करते वक्त मौत हो गयी. ये घटना दिल्ली के गाज़ीपुर की है जहां एक बैक्वट हॉल में बने सीवर की सफाई मशीन की बजाय मजदूरों से करायी और इस दौरान उनकी मौत हो गयी।
- अगस्त 2019 गाजियाबाद के पास सीवर टैंक में 5 मजदूरों की मौत हो गयी।
- इसी साल मार्च में वाराणसी में भी दो मजदूरों की मौत सीवर टैंक में मैला साफ करने के दौरान हो गयी।
- सितंबर 2018 में दिल्ली के मोतीनगर में सीवर टैंक की सफाई करने में 4 मजदूरों की मौत हो गई. अखबार के पिछले 5 सालों में 340 लोगों की इस काम के दौरान जान चली गयी।
कितने ही कानून बने ,सुधार हुए ,पर मैला ढोने के काम को आज भी समाज मे अनुसूचित जाति ,जनजाति ,दलितों का ही काम कहा जाता है।जिसके कारण आज भी इस वर्ग के लोग अपने आप को अलग थलग मानते हैं ।और इन्हें सम्मान नही दिया जाता है।ये लोग चाहकर भी अलग किसी क्षेत्र में काम नही कर पाते क्यों कि समाज इन लोगो को अलग जगह स्वीकार नही करता और उन्हें थक हार कर दुबारा इसी काम में आना पड़ता है।कानूनों के बेहतर क्रियान्वयन, बेहतर योजना निर्माण तथा तकनीकी सहयोग के माध्यम से इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। जिससे निपटने के लिये शिक्षा और जागरूकता का प्रसार व्यापक ढंग से करना होगा। इसके अतिरिक्त इस समस्या के समाधान हेतु सरकार के साथ-साथ जनता को भी प्रत्यक्ष भागीदारी निभाते हुए सम्मिलित प्रयास करना होगा।