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Minority Status For Hindus: अल्पसंख्यक कौन? केंद्र तीन महीने में राज्यों से सलाह मशविरा करे-सुप्रीम कोर्ट

Hindu Minorities: सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यकों की पहचान के मुद्दे पर केंद्र द्वारा अलग-अलग रुख अपनाने पर नाराजगी व्यक्त की है।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Shreya
Published on: 10 May 2022 4:40 PM IST
Supreme Court में मौजूद बैंक में लगी आग, मौके पर मची अफरा तफरी
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सुप्रीम कोर्ट (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Minority Status For Hindus: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने राज्य स्तर पर हिंदुओं सहित अल्पसंख्यकों (Minorities) की पहचान के मुद्दे पर केंद्र द्वारा अलग-अलग रुख अपनाने पर नाराजगी व्यक्त की है और तीन महीने के भीतर इस मुद्दे पर राज्यों के साथ परामर्श करने का निर्देश दिया है।

केंद्र ने अपने पहले के रुख को बदलते हुए कल शीर्ष अदालत से कहा था कि अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है और इस संबंध में कोई भी फैसला राज्यों और अन्य हितधारकों के साथ चर्चा के बाद ही लिया जाएगा। इसके पहले केंद्र ने मार्च में कहा था कि यह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए है कि वे हिंदुओं और अन्य समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा दें या नहीं, जहां उनकी संख्या कम है।

कोर्ट ने की यह टिप्पणी

न्यायमूर्ति एस के कौल और न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश की पीठ ने कहा कि इस तरह के मामले में पहले एक हलफनामा दायर किया जाता है कि केंद्र और राज्य दोनों के पास शक्तियां हैं। बाद में आप कहते हैं कि केंद्र के पास शक्तियां हैं। हमारे जैसे देश में, जिसमें इतना विविधीकरण है, हम समझते हैं लेकिन किसी को अधिक सावधान रहना चाहिए था। इन हलफनामों को दायर करने से पहले सब कुछ सार्वजनिक डोमेन में होता है जिसके अपने नतीजे होते हैं। इसलिए, आप जो कहते हैं उसमें आपको अधिक सावधान रहना होगा।

अपने आदेश में पीठ ने कहा- अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय द्वारा एक नया हलफनामा दायर किया गया है, जो पहले के हलफनामे में कही गई बातों का समर्थन करता है। ये ऐसी बातें हैं जिसकी हम सराहना नहीं करते हैं। अब यह कहने की मांग की गई है कि न्याय निर्णय के लिए मांगे गए प्रश्न का पूरे देश में दूरगामी प्रभाव पड़ा है। पहले हलफनामे में पहले ही स्टैंड लिया जा चुका है। लेकिन ताजा हलफनामे के अनुसार, अल्पसंख्यकों की पहचान करने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है।

पीठ ने सुनवाई से तीन दिन पहले स्थिति रिपोर्ट की मांग करते हुए कहा - 30 अगस्त को सूची दे दी जाए। शीर्ष अदालत ने मेघालय स्थित एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन द्वारा मामले में हस्तक्षेप की मांग करने वाली याचिका पर विचार करने से भी इनकार कर दिया और इसे एक प्रतिनिधित्व के साथ संबंधित अधिकारियों से संपर्क करने के लिए कहा।

केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राज्यों के साथ परामर्श करने के लिए तीन महीने का समय मांगा और कहा कि कुछ जनहित याचिकाएं दायर की जाती हैं और साथ ही वे सार्वजनिक डोमेन में जाती हैं। मेहता ने कहा - हम दूसरे पक्ष को दिए बिना हलफनामा दायर नहीं कर सकते हैं और जिस क्षण हम इसे पेश करते हैं, वह सार्वजनिक डोमेन में चला जाता है। उन्होंने पीठ को सूचित किया कि एक बैठक हुई थी जिसमें संबंधित विभागों के तीन मंत्री सचिवों के साथ मौजूद थे। इस बैतःक में सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा की गई थी।

क्या है याचिका?

2020 में भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि 2011 की जनगणना के मुताबिक लक्ष्यद्वीप, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदू अल्पसंख्यक हैं सो उनको अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए।

बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक का लाभ

याचिकाकर्ता उपाध्याय कहते हैं कि 2002 में टीएमए पई केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जाए न कि राष्ट्रीय स्तर पर लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आज तक लागू नहीं किया गया। यही वजह है कि कई राज्यों में जो बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। इसी तरह सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने कहा कि धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की अवधारणा देश की एकता-अखंडता के लिए बहुत खतरनाक है इसलिए जितना जल्दी हो सके अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का विभाजन बंद होना चाहिए।

उनकी याचिका की मूल मांग ये है कि 1992 का राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम और 2004 का अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अधिनियम समाप्त किया जाए। अगर ये नहीं हो सकता तो जिन राज्यों में हिन्दू आबादी अल्पसंख्यक है, वहां उन्हें भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। याचिका अल्पसंख्यकों को परिभाषित करने के लिए गाइडलाइन बनाने की भी मांग करती है। उपाध्याय कहते हैं कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक की व्याख्या संविधान में कहीं नहीं की गई है।

- राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (सी) के तहत, केंद्र ने 1993 में पांच समुदायों - मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई - को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया था। केंद्र सरकार द्वारा ये नोटिफिकेशन 1993 में जारी किया गया था। 2014 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया गया।

- २०१३ में केंद्र सरकार ने कहा था कि संविधान में 'अल्पसंख्यक' शब्द की व्याख्या नहीं की गयी है बल्कि कुछ अनुच्छेदों में इसका जिक्र भर आया है। केंद्र का कहना है कि अनुच्छेद २९ में एक जगह 'अल्पसंख्यक' का जिक्र इस तरह किया गया है कि नागरिकों का कोई ऐसा पृथक वर्ग जिसकी अलग भाषा, लिपि और संस्कृति है। यानी एक बहुसंख्य समुदाय के भीतर एक पूरे के पूरे समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में देखा जा सकता है। अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यकों के हितों को सुरक्षित रखने की बात कही गई है। इसमें नागरिकों को किसी विशेष भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है। हालांकि, सुपीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इसमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों शामिल हैं।

- संविधान के अनुच्छेद 30 (1) में अल्पसंख्यकों द्वारा अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित और संचालित करने के अधिकार का जिक्र है। इसमें लिखा है कि – धार्मिक अथवा भाषाई आधार वाले सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद का शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और संचालित करने का अधिकार होगा। लेकिन केंद्र ने ये भी जोर दे कर कहा है कि ऐसे लाभों में नौकरी और एडमिशन का कोटा शामिल नहीं है। लेकिन ऐसे समुदायों के शैक्षणिक स्तर को ऊपर उठाने उनके स्किल डेवलपमेंट आदि के लिए कार्य किये जायेंगे। खास कर उन वर्गों की महिलाओं और बच्चों तथा आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिये काम किया जाएगा।

- संविधान का अनुच्छेद 30 (2) कहता है कि केंद्र और राज्य सरकार शिक्षण संस्थानों को मदद देते समय भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा बनाए गए शिक्षण संस्थान के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगी। हालांकि, सरकार का कहना है कि नौकरी और प्रवेश में अल्पसंख्यकों को किसी तरह का लाभ नहीं मिलेगा।

इन राज्यों में हिन्दू नहीं हैं बहुसंख्यक

जम्मू-कश्मीर - 28 फीसदी

लक्षद्वीप - 3 फीसदी

मिजोरम - 3 फीसदी

मेघालय - 12 फीसदी

अरुणांचल - 29 फीसदी

मणिपुर - 41 फीसदी

नागालैंड - 9 फीसदी

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