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Ahilyabai Holkar: सादगी और वीरता का उदाहरण अहिल्याबाई, जानें इनके बारे में
Ahilyabai Holkar: अहिल्याबाई सादगी और वीरता की एक साक्षात उदाहरण थीं। जो अपनी जनता की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती थीं।
Rani Ahilyabai Holkar Birth Anniversary: इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने जिंदगी के हर मोर्चे पर खुद को साबित किया है। युद्धभूमि में भी महिलाओं ने अपने साहस और पराक्रम का परचम बखूबी लहराया है। भारत में ऐसी कई वीरांगनाओं ने जन्म लिया, जिसने अपने शौर्य और साहस से अच्छे अच्छों के छक्के छुड़ा दिए। ऐसी ही एक वीरांगना थीं, महारानी अहिल्याबाई होल्कर (Ahilyabai Holkar)। जिनकी समाज में एक बहादुर, आत्मनिष्ठ, निडर महिला की छवि आज भी बरकरार है।
आज महारानी अहिल्याबाई होल्कर की जयंती (Rani Ahilyabai Holkar Birth Anniversary) है। उनका जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी गांव में हुआ था, जिसे वर्तमान में अहमदनगर के नाम से जाना जाता है। आज उनकी 295 वीं जयंती मनाई जा रही है। रानी अहिल्याबाई अपने समय की सर्वश्रेष्ठ योद्धा रानियों में से एक थीं। जो अपनी प्रजा की रक्षा और मदद के लिए हमेशा तैयार रहती थीं।
लोग रानी अहिल्याबाई होल्कर को राजमाता अहिल्याबाई होल्कर (Rajmata Ahilyadevi Holkar) के नाम से जानते हैं। अहिल्या बाई (Ahilyabai Holkar) का जीवन क्रांतियों और बदलाव की दास्तान है। रानी के शासनकाल में मराठा मालवा साम्राज्य (Malwa Kingdom) ने खूब नाम कमाया था। रानी ने कई हिंदू मंदिर का भी निर्माण करावाया था।
बचपन से ही करने पड़े कई संघर्ष
रानी अहिल्याबाई का संघर्ष भार जीवन तो मानो बचपन से ही शुरू हो गया था। जब गांव में कोई भी महिला शिक्षा पाने का ख्याल भी मन में नहीं लाया करती थीं, तब अहिल्याबाई ने पढ़ने की ठानी। हालांकि पढ़ाई के लिए उन्हें अपने ही परिवार में लड़ना पड़ा। लेकिन परिवार को इनके दृढ़ निश्चय के आगे झुकना ही पड़ा। अहिल्याबाई के पिता मनकोजी उन्हें घर पर ही पढ़ाया करते थे।
जब रानी आठ साल की हुई तो उनका रिश्ता उस वक्त मालवा प्रदेश के राजा (पेशवा) मल्हार राव होलकर के बेटे खांडेराव होलकर से हो गया। दरअसल, पुणे जाते वक्त राजा चोंडी गांव में ही आराम के लिए ठहरे थे। इस दौरान उनकी नजर भूखों और निर्धनों को खाना खिलातीं अहिल्याबाई पर पड़ी। ये बात उन्हें काफी आश्चर्यजनक लगी कि इतनी छोटी बच्ची इतनी दयावान कैसे हो सकती है।
शादी के कुछ सालों बाद ही पति की मौत
अहिल्याबाई की इन्हीं खूबियों ने मल्हार राव होलकर का दिल जीत लिया और उन्होंने अहिल्या का रिश्ता अपने बेटे खांडेराव होलकर के लिए मांग लिया। इस तरह आठ साल की छोटी सी उम्र में वो होल्कर राजघराने की बहू बन गईं। हालांकि किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उनके पति खांडेराव 1754 में कुंभेर के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए। उस वक्त रानी केवल 21 साल की थीं।
1767 में संभाला पदभार
पति की मौत के बाद अहिल्याबाई ने सती होने का फैसला कर लिया, लेकिन पिता के समान उनके ससुर मल्हार राव होलकर ने उन्हें रोक दिया। वो हर कदम पर अपनी बहू के लिए खड़े रहे। उसके बाद उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब उनके ससुर की मौत हो गई। इसके बाद उनके बेटे की भी मौत हो गई। हालांकि इन तमाम दुखों के बीच भी रानी ने अपना साहस बरकरार रखा और फिर 1767 में पदभार संभालने का निर्णय किया।
बिना लड़े जीत लिया राघोबा से युद्ध
हालांकि मालवा साम्राज्य के एक औरत द्वारा संभाले जाने की बात कुछ राजाओं को रास नहीं आई। इन्हीं में से एक था राघोबा पेशवा (Raghoba Peshwa)। अहिल्याबाई के राजगद्दी पर बैठने के बाद राघोबा ने राज्य हड़पने के उद्देश्य से अपनी सेना इंदौर के आगे लगा दीं। इस आक्रमण से घबराने के बजाय रानी ने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए अपने सेनापति तुकोजी राव (Tukoji Rao) से पेशवा के लिए मैदान में एक पत्र भेजा। इस पत्र के जरिए रानी ने बिना युद्ध लड़े ही लड़ाई को जीत लिया।
रानी ने पत्र में लिखा था कि मेरे पूर्वजों द्वारा बनाए और संरक्षित किए राज्य को हड़पने का सपना राघोबा आप मत देखिए। अगर आप आक्रमण के लिए आमादा हैं तो आइए मैं द्वार खोलती हूं। मेरी स्त्रियों की सेना वीरता से आपका सामना करने के लिए तैयार खड़ी हैं। लेकिन अब आप सोचिए। अगर आपको हार मिली तो संसार क्या कहेगा कि राघोबा औरतों के हाथों हार गया। वहीं अगर आपको जीत मिल भी जाती है तो आपके चारण और भाट आपकी प्रशस्ति में क्या गाएंगे? राघोबा सेना लेकर आया, एक विधवा और पुत्र शोक में आकुल एक महिला को हराने ताकि अपना लालच पूरा कर सके। पेशवाई किसे मुंह दिखाएगी?
रानी का यह पत्र किसी तीखे तीर से कम नहीं था। राघोबा ने इसके बाद तुकोजी के हाथों जवाब भेजा कि रानी आप गलत समझ रही हैं। मैं बस यहां पर शोक-संवेदना जताने आया हूं। तब रानी ने उन्हें सेना के बिना आने के लिए कहा। यहां रानी ने अपने बिना किसी आक्रमण के ही राघोबा को धूल चटाने का काम किया।
'द फिलॉसोफर क्वीन' की उपाधि
जाहिर है कि अहिल्याबाई एक दार्शनिक और कुशल रानीतिज्ञ थीं। इसी वजह से उनकी नजरों से राजनीति से जुड़ी कोई भी बात छुपी नहीं रह सकती थी। रानी की इन्हीं खूबियों के चलते ब्रिटिश इतिहासकार जॉन कीस ने उन्हें 'द फिलॉसोफर क्वीन' की उपाधि दी थी।
बता दें कि अहिल्याबाई होल्कर ने कई सालों तक इंदौर शहर पर राज किया और एक सफल प्रशासक के रूप में जानी गईं। वो हमेशा अपनी आवाम की मदद और सुविधा के लिए आगे रहती थीं। इसके अलावा कई हिंदू मंदिरों का निर्माण भी रानी ने करवाया। 1767 में पदभार संभालने के बाद उन्होंने निस्वार्थ अपनी प्रजा की सेवा की और 13 अगस्त 1795 को महारानी की मौत हो गई थी।
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