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Rani Lakshmibai Death Anniversary: जानें वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के बारे में, जिसने अंग्रेजों के छुड़ा दिए थे छक्के
Rani Lakshmibai Death Anniversary: रानी लक्ष्मीबाई, जिन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे, ने आज ही के दिन वीरगति को प्राप्त हुई थीं।
Rani Lakshmibai Death Anniversary: भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बात हो तो रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) का जिक्र जरूर होता है। उन पर लिखी गई बहुचर्चित कविता (Rani Lakshmibai Ki Kavita) बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी, आज भी रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा का बखान करती है।
अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वालों में झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई का नाम काफी आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे। अंग्रेजों से लोहा लेते हुए आज ही के दिन साल 1858 में रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गई थीं।
रानी लक्ष्मीबाई का इतिहास (Rani Lakshmibai Ka Itihaas)
आज रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि के मौके पर हम आपको उनकी वीरगाथा (Rani Lakshmibai Ka Itihaas) के बारे में बताने जा रहे हैं-
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म (Rani Lakshmibai Birth) 19 नवंबर 1835 को काशी के भदैनी इलाके में एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे और उनकी माता का नाम भागीरथी भाई था। जब लक्ष्मीबाई काफी छोटी थीं, तभी उनकी मां का देहांत हो गया था।
माता-पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा था। प्यार से लोग उन्हें मनु (Rani Lakshmibai Childhood Name) कहकर पुकारा करते थे।
मनु को बचपन से ही शस्त्र और शास्त्रों से बेहद प्यार था और उन्होंने दोनों की शिक्षा हासिल की थी। इसी कारण प्यार से लोग उन्हें छबीली नाम से भी पुकारा करते थे।
15 साल की उम्र में उनकी शादी झांसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ हो गया और वे झांसी की रानी बन गईं। शादी के बाद उन्हें रानी लक्ष्मीबाई कहा जाने लगा।
1851 में पुत्र वियोग का सदमा सहने के बाद महाराजा गंगाधर राव बीमार रहने लगे। ऐसे में दो साल बाद 1853 में एक बालक को गोद लिया और इसका नाम दामोदर राव रखा।
21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया, जो रानी लक्ष्मीबाई के लिए एक गहरा सदमा था।
राजा की मौत के बाद अंग्रेजों ने अवसर देखकर झांसी पर हमला बोल दिया। लेकिन अंग्रेजों को रानी लक्ष्मीबाई की ताकत का एहसास नहीं था और रानी ने अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए साफ कर दिया कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।
अंग्रेजी और रानी लक्ष्मीबाई की सेना में जमकर मुकाबला हुआ हुआ, जिसमें कई अंग्रेज अफसर मारे गए और बचे हुए अंग्रेज सैनिकों के साथ कैप्टन स्कीन ने बागियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
17 जून को रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध शुरू हुआ। दत्तक पुत्र को पीठ पर बांध घोड़े की लगाम मुंह में दबाए रानी ने निडर होकर दुश्मनों का सामना किया।
अंग्रेजों से युद्ध करते हुए रानी सोनरेखा नाले की ओर बढ़ीं मगर उसी समय अंग्रेजी सैनिकों ने पीछे से महारानी लक्ष्मीबाई पर तलवार से हमला कर दिया जिससे उन्हें काफी चोटें आईं।
इस दौरान रानी का एक सैनिक उन्हें लेकर पास के एक सुरक्षित मंदिर में पहुंचा, जहां पुजारी से रानी ने कहा- मेरे बेटे दामोदर की रक्षा करना और अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए।
इतना कहते हुए 18 जून 1818 को महारानी लक्ष्मीबाई 23 वर्ष की अल्पायु में वीरगति को प्राप्त हो गईं।
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