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Rath Yatra 2021: क्यों निकाली जाती है रथ यात्रा, भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन कौन हैं, नगर दर्शन में रुक्मिणी क्यों नहीं होती साथ

Rath Yatra 2021 : सभी को मालूम है कि सुभद्रा कृष्ण और बलराम की बहन थीं। लेकिन एक सवाल उठता है कि जगन्नाथ जी की रथयात्रा में राधा या रुक्मिणी क्यों नहीं साथ होतीं। इस संबंध में एक कथा है।

Ramkrishna Vajpei
Written By Ramkrishna VajpeiPublished By Shivani
Published on: 7 July 2021 10:05 AM GMT (Updated on: 12 July 2021 4:04 AM GMT)
जगन्नाथ रथ यात्रा कब होगी?
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सांकेतिक तस्वीर ( सौ. से सोशल मीडिया)

Rath Yatra Kyun Nikali Jati Hai : हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा (Jagannath Puri Rath Yatra 2021) निकाली जाती है। लेकिन एक सवाल सबके मन में उठता है कि आखिर क्यों निकाली जात है रथयात्रा। बलराम, सुभद्रा (Balram- Subhadra) के साथ भगवान क्यों निकलते हैं नगर दर्शन के लिए। इसके पीछे दुखद और सुखद दोनों कथानक प्रचलित हैं। और लोग अपने हिसाब से इसका अर्थ निकालकर इस पर्व को मनाते हैं। पहले रथ यात्रा का उत्तर भारत में प्रचलन नहीं था लेकिन हाल के वर्षों में उत्तर भारत में भी इसका चलन हो गया है।

रथ यात्रा क्यों निकाली जाती है (Rath Yatra Kyun Nikali Jati Hai)

भारत कोश में दी गई परिभाषा के मुताबिक उत्कल एक बहुविकल्पी शब्द है। उत्कल उत्तरी ओडिशा का प्राचीन नाम जिसे उत् (उत्तर) कलिंग का संक्षिप्त रूप माना जाता है। कुछ विद्वानों के मत में द्रविड़ भाषाओं में 'ओक्कल' किसान का पर्याय है और उत्कल इसी का रूपांतर है। उत्कल का प्रथम उल्लेख सम्भवत: सूत्रकाल में मिलता है। कालिदास ने रघुवंश में उत्कल निवासियों का उल्लेख रघु की दिग्विजय के प्रसंग में कलिंग विजय के पूर्व किया है।
धार्मिक मान्यता की बात करें तो उड़ीसा या उत्कल राज्य का पुरी क्षेत्र शंख क्षेत्र या श्री क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। इसे पुरुषोत्तम पुरी भी कहते हैं। पुरी भगवान श्रीजगन्नाथ की मुख्य लीला भूमि मानी जाती है। मान्यता यह भी है कि राधा और श्री कृष्ण की युगल मूर्ति का प्रतीक जगन्नाथ हैं। या फिर यह कहा जाए कि जगन्नाथ पूर्ण भगवान हैं और कृष्ण उनकी कला का एक रूप।

भगवान जगन्नाथ बहन सुभद्रा और बलराम के साथ निकले हैं रथ यात्रा पर

अब आते हैं मूल कथानक पर यह तो सभी को मालूम है कि सुभद्रा कृष्ण और बलराम की बहन थीं। लेकिन एक सवाल उठता है कि जगन्नाथ जी की रथयात्रा में राधा या रुक्मिणी क्यों नहीं साथ होतीं। इस संबंध में एक कथा है।
कथा कुछ इस प्रकार है कि द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है।

राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
एक बात और सुभद्रा ने एक बार अपने भाइयों के साथ नगर घूमने का हठ किया था जिस पर श्रीकृष्ण ने कहा था कि समय आने पर तुम्हारी यह इच्छा अवश्य पूरी होगी।
उधर माता रोहिणी ने रानियों को कथा शुरू सुनानी शुरू ही की थी कि श्री कृष्ण और बलराम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही उन्हें रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।
तभी अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद ने ही भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया। इसके बाद उसी रूप में श्रीकृष्ण बलराम अपनी बहन के साथ नगर भ्रमण को निकल गए। ताकि माता रोहिणी की बात गलत न हो।

समय के साथ श्रीकृष्ण के इस लोक को छोड़ने का वक्त आया। बहेलिये के विषबुझे तीर से उनके निधन के बाद उनका पार्थिव शरीर द्वारिका लाया जाता है, तो भाई की मृत्यु से दुखी होकर बलराम कृष्ण के शरीर को लेकर समुद्र में कूद जाते हैं, उनके पीछे-पीछे सुभद्रा भी कूद जाती हैं।
कहते हैं इसी दौरान भारत के पूर्व स्थित पुरी के राजा इंद्रद्विमुना को सपना आता है कि श्रीकृष्ण का शरीर समुद्र में तैर रहा है, उसे यहां कृष्ण की विशाल प्रतिमा बनवानी चाहिए और मंदिर बनवाना चाहिए। स्वप्न में देवदूत बताते हैं कि कृष्ण के साथ, बलराम, सुभद्रा की लकड़ी की प्रतिमा बनाएं और श्रीकृष्ण की अस्थियों को प्रतिमा के पीछे छेद कर रखा जाए। राजा का सपना सच होता है उसे समुद्र से विशालकाय काष्ठ मिलता है। वह सोच रहा था कि यह क्या है। और क्या किया जाए। तभी वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं आते हैं और मूर्ति बनाने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया।

श्रीजगन्नाथ का मन्दिर की कहानी

आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला, लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्रीजगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिलीं।

महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, 'व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।' आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है। इस वर्ष यह 12 जुलाई को है।
Shivani

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