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World Mental Health Day Special: मेंटल हेल्थ हो रही चौपट, किसी महामारी से कम नहीं

World Mental Health Day: लोग जब हेल्थ की बात करते हैं तो माना जाता है कि शारीरिक हेल्थ की ही बात की जा रही है। आम बातचीत में मेंटल हेल्थ का कोई स्थान है ही नहीं। वजह यह है कि मेंटल हेल्थ को लेकर हमारे बीच बहुत गलत धारणाएं हैं। सच्चाई में मेंटल हेल्थ को भारत में बहुत गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है।

Neel Mani Lal
Report Neel Mani LalPublished By Deepak Kumar
Published on: 10 Oct 2021 7:58 AM GMT (Updated on: 10 Oct 2021 8:25 AM GMT)
World Mental Health Day.
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विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस। 

World Mental Health Day Special: लोग जब हेल्थ की बात करते हैं तो माना जाता है कि शारीरिक हेल्थ की ही बात की जा रही है। आम बातचीत में मेंटल हेल्थ का कोई स्थान है ही नहीं। वजह यह है कि मेंटल हेल्थ को लेकर हमारे बीच बहुत गलत धारणाएं हैं। सच्चाई में मेंटल हेल्थ को भारत में बहुत गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है । क्योंकि डब्लूएचओ ने एक रिपोर्ट में कहा था कि 2020 के अंत तक देश में बीस फीसदी लोग किसी न किसी मानसिक बीमारी या परेशानी से पीड़ित हो चुके हैं। कोरोना महामारी अपने साथ मानसिक बीमारियाँ भी लाई है और मेंटल हेल्थ की व्यापकता और भी बढ़ चुकी है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि भारत में मानसिक रोग के डाक्टरों, काउंसलरों और अन्य पेशेवरों की बहुत भारी कमी है।

कुछ आंकड़ों पर नजर डालिए

- वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के अनुसार प्रति एक लाख की आबादी पर कम से कम 3 मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक होने चाहिए जबकि भारत में प्रति एक लाख की आबादी पर मात्र 0.3 मनोचिकित्सक, 0.12 नर्सें, 0.07 मनोवौज्ञानिक और 0.07 सोशल वर्कर हैं। कॉमनवेल्थ के नियम और दिशानिर्देश कहते हैं कि एक लाख की आबादी पर कम से कम 6 मनोचिकित्सक होने चाहिए। मौजूदा संख्या जरूरत के लिहाज से 18 गुना कम है।

- डब्लूएचओ ने पिछले साल विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर कहा था कि भारत में 7.5 फीसदी लोग किसी न किसी मानसिक विकार से पीड़ित हैं और 2020 के अंत ये संख्या बीस फीसदी हो जायेगी।

- डब्लूएचओ के अनुसार भारत में 5 करोड़ 60 लाख लोग डिप्रेशन और 3 करोड़ 80 लाख लोग एंग्जायटी डिसऑर्डर से पीड़ित हैं।

- दुनिया में जितने सुसाइड होते हैं उनमें से 36.6 फीसदी हिस्सा भारत का है। महिलाओं और 15 से 19 वर्ष की किशोरियों में मौत का सबसे बड़ा कारण सुसाइड बन चुका है। लांसेट पत्रिका की एक स्टडी के अनुसार दुनिया में 1990 में महिलाओं के कुल सुसाइड में भारत की हिस्सेदारी 25.3 फीसदी थी जो 2016 में 36.6 हो गयी। पुरुषों में यह संख्या 18.7 फीसदी से बढ़ कर 24.3 फीसदी हो चुकी है।

- 2015 – 16 में हुए नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे के अनुसार 13 से 17 साल के 98 लाख किशोरों में डिप्रेशन या कोई अन्य मानसिक विकार पाया गया था।

- डब्लूएचओ के अनुसार 2012 से 2030 के बीच सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण भारत को 1.03 ट्रिलियन डालर का आर्थिक नुकसान होगा।

- इन सबके बावजूद भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर किये जाने वाला व्यय कुल सरकारी स्वास्थ्य व्यय का मात्र 1.3 प्रतिशत है।

हेल्थ बजट (Bharat Ka Health Budget)

भारत के स्वास्थ्य बजट का महज 0.06 प्रतिशत हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च होता है। अन्य देशों के मुकाबले यह अनुपात काफी कम है। यहां तक कि बांग्लादेश भी हमसे ज्यादा 0.44 प्रतिशत राशि का इस्तेमाल मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पर करता है। वहीं, ज्यादातर विकसित देश कम से कम 4 प्रतिशत राशि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े शोध, फ्रेमवर्क, इंफ्रास्ट्रक्चर और टैलेंट पूल पर खर्च करते हैं।

पूरे देश में मात्र 3800 मनोचिकित्सक

एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में 3,800 मानसिक रोग चिकित्सक, 850 साइकाइट्रिक सोशल वर्कर, 898 क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट और 1,500 साइकाइट्रिक नर्स हैं। इसका मतलब यह है कि हर दस लाख लोगों पर सिर्फ तीन साइकाइट्रिस्ट्स हैं।

इन अनुमानों के मुताबिक, भारत को 66,200 साइकाइट्रिस्ट्स की जरूरत है। साइकाइट्रिक नर्स का वैश्विक औसत एक लाख की आबादी पर 21.7 है। इस अनुपात के मुताबिक, भारत को 2,69,750 नर्स की जरूरत है।

बदलनी होगी मानसिकता

भारत में मानसिक विकारों के प्रति नजरिये में बदलाव जरूर आया है । लेकिन अब भी समाज में मानसिक रोग एक कलंक समझा जाता है। मानसिक विकारों के संबंध में जागरूकता की कमी भी भारत के समक्ष मौजूद एक बड़ी चुनौती है। देश में जागरूकता की कमी और अज्ञानता के कारण लोगों द्वारा किसी भी प्रकार के मानसिक स्वास्थ्य विकार से पीड़ित व्यक्ति को पागल ही माना जाता है। इसका मतलब यह है कि जब भी कोई मानसिक विकार से पीड़ित होता है, हम उसे कमजोरी मान लेते हैं। खुद-ब-खुद उससे उबरने का सोचते हैं, वह भी बिना पेशेवर मदद के। उस स्थिति से बाहर निकलने के लिए पेशेवर की सलाह नहीं लेते।

हमारे परिवार और समुदाय इस परिस्थिति को और मुश्किल बना देते हैं। वह हमें इसके बारे में बात तक नहीं करने देते। सरकारें और डॉक्टर जरूरतमंदों की मदद कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि लोग भी मदद लेने जाएं। यदि वे मदद लेंगे ही नहीं तो उपलब्ध संसाधनों का उनके लिए कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यदि हम चाहते हैं कि सरकार, डॉक्टर या कोई और अपना काम ठीक से करें तो उसके लिए हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा।

भारत में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों से जुड़ी सामाजिक भ्रांतियाँ भी एक बड़ी चुनौती है। उदाहरण के लिये भारत में वर्ष 2017 तक आत्महत्या को एक अपराध माना जाता था। आईपीसी के तहत इसके लिये अधिकतम एक वर्ष के कारावास का प्रावधान किया गया था। जबकि कई मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि अवसाद, तनाव और चिंता आत्महत्या के पीछे कुछ प्रमुख कारण हो सकते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 (Mental Healthcare Act, 2017)

वर्ष 2017 में लागू किये गए इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य मानसिक रोगों से ग्रसित लोगों को मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा और सेवाएँ प्रदान करना है। साथ ही यह अधिनियम मानसिक रोगियों के गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार को भी सुनिश्चित करता है। इस अधिनियम के अनुसार, 'मानसिक रोग' से अभिप्राय विचार, मनोदशा, अनुभूति और याददाश्त आदि से संबंधित विकारों से होता है, जो हमारे जीवन के सामान्य कार्यों जैसे- निर्णय लेने और यथार्थ की पहचान करने आदि में कठिनाई उत्पन्न करते हैं।

अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच का अधिकार होगा। अधिनियम के अनुसार, मानसिक रूप से बीमार प्रत्येक व्यक्ति को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार होगा और किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को अपने मानसिक स्वास्थ्य, उपचार और शारीरिक स्वास्थ्य सेवा के संबंध में गोपनीयता बनाए रखने का अधिकार होगा। मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति की सहमति के बिना उससे संबंधित तस्वीर या कोई अन्य जानकारी सार्वजानिक नहीं की जा सकती है।

आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को मानसिक बीमारी से पीड़ित माना जाएगा एवं उसे भारतीय दंड संहिता के तहत दंडित नहीं किया जाएगा। इस अधिनियम ने भारतीय दंड संहिता की धारा 309 में संशोधन किया, जो पहले आत्महत्या को अपराध मानती थी।

Deepak Kumar

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