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बैंक सखी ने तो बदल ही दी पिछड़े राजगढ़ की तस्वीर, ये है सफलता की कहानी
भोपाल: देश के पिछड़े जिलों में शुमार मध्यप्रदेश का राजगढ़ जिला बुनियादी विकास की ओर बढ़ चला है। यह सब कुछ कर दिखाया है गांव-गांव में फैली बैंक सखियों ने। ये बैंक सखियां महिलाओं को बचत के लिए प्रेरित करती हैं। इससे गांव- गांव के घर-घर में बैंक खाता खुलने लगा तो ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक समझ के साथ साथ भी आर्थिक भागीदारी भी बढ़ी है। इस मुहिम से जहां लोगों की बचत हुई तो वहीं विकास भी हुआ। यहां महिलाओं द्वारा संचालित स्वयं सहायता समूहों का मासिक कारोबार बेहतरीन स्थिति में संचालित हो रहा है।
स्वयं सहायता समूह में महिलाओं की भागीदारी से गांव के पिछड़े परिवारों के बच्चे स्कूलों का रुख करने लगे हैं। गांवों में सेवा केंद्रों पर तमाम जरूरी सुविधाएं अब हासिल हैं। बता दें कि चार माह पहले देश के 101 पिछड़े जिलों में शामिल करने वाला नीति आयोग अब राजगढ़ जिले की सराहना कर रहा है।
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बैंक सखी में रोजाना होता है करीब 10 लाख रुपये का जमा-भुगतान
दरअसल जिले की तस्वीर में महज 120 दिनों में हुए बदलाव के पीछे बड़ा योगदान बैंक सखियों का रहा है। वैसे तो राजगढ़ में बैंक सखी मॉडल की शुरुआत 2015 में हुई थी, लेकिन उसका असल क्रियान्वयन पिछले चार महीनों में देखने को मिला, जब बैंक सखियों की संख्या 12 से बढ़कर 300 हो गई। जिनमें सौ सखियां 500 गांवों में बैंक प्रतिनिधि के रूप में रोजाना करीब 10 लाख रुपये का जमा-भुगतान कर रही हैं और 200 सखियों को बैंकिंग कारोबार का प्रशिक्षण दिया जा रहा।
राजगढ़ का बैंक सखी मॉडल प्रदेश ही नहीं पूरे देश में अपनी तरह का अनूठा और बेहद कारगर है। इसकी खासियत यह है कि बैंक सखी गांव की ही एक महिला होती है, जिससे अविश्वास का भाव पैदा नहीं होता। जिले को विकास की दिशा में आगे ले जाने के लिए सरकार की ग्रामीण अंत्योदय योजना और बैंक सखियों को आपस में जोड़कर एक नई शुरुआत की गई है।
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कैसे तैयार हुआ बैंक सखी
सबसे पहले 50 पंचायतों की पढ़ी लिखी महिलाओं को नर्मदा ग्रामीण झाबुआ और पीएनबी बैंक की मदद से बैंकिंग करोबार का प्रशिक्षण दिलाया गया। उनके माध्यम से गांव के लोगों को घर बैठे छात्रवृति, मनरेगा की राशि, पेंशन आदि की राशि का भुगतान होने लगा। बैंक में भी भीड़ कम हुई। फिर इन्हीं बैंक सखियों के माध्यम से गांवों में महिलाओं के स्वसहायता समूह और कियोस्क सेंटरों की शुरुआत करवाई गई। इससे एक तरह की चेन तैयार हो गई। विभिन्न गांवों में स्वसहायता समूह सेनेटरी पेड से लेकर अचार, पापड़, अगरबत्ती, चटाई, दुग्ध उत्पाद और गोमूत्र जैसे उत्पाद तैयार करने लगे। कियोस्क सेंटर से इन्हीं उन्पादों की बिक्री शुरू हो गई और बैंक सखी ने जमा व भुगतान का जिम्मा संभाल लिया।
पहले एक माह में जब जिले की 25 पंचायतों में यह कड़ी पूरी तरह काम करने लगी तो फिर इसका विस्तार किया गया। चार माह में सौ सखियां पांच सौ गांवों में काम संभाल रही हैं। जिन्हें हर लेनदेन पर बैंक से कमीशन प्राप्त होता है। हाल ही में बैंक सखियों के इस काम को नीति आयोग ने न सिर्फ सराहा, बल्कि इसे अन्य जिलों में महिला सशक्तीकरण की दिशा में बेहद कारगर भी बताया। अगले छह माह में बैंक सखियों का पांच सौ पंचायतों में नेटवर्क तैयार करने का लक्ष्य है।
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किसने शुरू की ये मुहिम
जिले में तीन साल से लगभग निष्क्रिय बैंक सखी मॉडल को ऊर्जा देने का काम जिला कलेक्टर कर्मवीर शर्मा की पत्नी और डेंटिस्ट डॉक्टर अपूर्वा शर्मा ने किया। जिन्होंने इसकी शुरुआत जिले के कालीपीठ और मान्यापुरा गांव से की। इन गांवों की महिलाओं ने अपने बच्चों को कुपोषण से मुक्त कराने के लिए किचन गार्डन तैयार किया। डॉक्टर शर्मा का मानना था कि जब गांव की महिलाएं खुद कुपोषण के खिलाफ जंग लड़ सकती हैं, तो जिले पर लगा पिछड़ेपन का दाग भी मिटा सकती हैं। उन्होंने इन्ही दो गांवों से बैंक सखियों की नए सिरे शुरुआत की और फिर धीरे-धीरे कारवां बढ़ता गया। अपूर्वा ने यह योगदान अपने बूते और बिना सरकारी तंत्र की मदद लिए दिया।