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शिक्षा प्रणाली में बदलाव की आहट के बीच आलोचनात्मक स्वर
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कुछ दिनों पहले सभी राज्यों और केंद्र शासित राज्यों को सर्कुलर जारी कर कहा है कि पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों को स्कूल से होमवर्क नहीं दिया जाएगा। पहली से लेकर 10वी क्लास तक के बच्चों के बस्ते का बोझ भी सीमित कर दिया गया है। इसके अलावा किताबें लाने के लिए भी बच्चों को बाध्य नहीं किया जाएगा। मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित राज्यों को सर्कुलर जारी करते हुए आदेशों को पालन करने के निर्देश भी दिए हैं।
लखनऊ: शिक्षा प्रणाली में बदलाव को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय नित नए ऐलान कर रहा है। इसका दावा है कि देश की शिक्षा पा्रणाली पर इसका व्यापक असर खिाई देगा। वहीं शिक्षा विदों का मानना है कि जल्दबाजी में लिए गए फैसले सही नहीं होते हैं। इसके लिए शिक्षाविदों की भी राय लेना जरूरी है। जो कि अभी तक नहीं हुआ है। जिसके बाद अब आलोचना के स्वर मुखर हो गए हैं। आइए अब जानते हैं शिक्षा प्रणाली में बदलाव के आहट के बीच कुछ आलोचनात्मक तथ्यों के बारे में..
समय-समय पर शिक्षाविदों द्वारा राष्ट्र की मुख्य धुरी शिक्षा और शिक्षकों को लेकर जो सुझाव या अनुशंसाएं दी जाती रही हैं। उनका हाल क्या होता है इसका अंदाजा केवल इसी एक उदाहरण से लगाया जा सकता है जब पिछले साल अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त एक जाने-माने शिक्षाविद का दर्द सामने आया। उनकी वर्षों पूर्व की गई अनुशंसाओं को कोई तवज्जो नहीं दी गई। मामला फिर चाहे बच्चों पर बस्तों के बढ़ते बोझ का हो या संपूर्ण राष्ट्र में एक जैसी शिक्षक भर्ती का या फिर अखिल भारतीय शिक्षा सेवा के गठन का, शिक्षाविदों की सलाह और अनुशंसाएं क्या अपने अंजाम तक पहुंच पाती हैं? यह एक कठिन सवाल है।
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हालांकि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कुछ दिनों पहले सभी राज्यों और केंद्र शासित राज्यों को सर्कुलर जारी कर कहा है कि पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों को स्कूल से होमवर्क नहीं दिया जाएगा। पहली से लेकर 10वी क्लास तक के बच्चों के बस्ते का बोझ भी सीमित कर दिया गया है। इसके अलावा किताबें लाने के लिए भी बच्चों को बाध्य नहीं किया जाएगा। मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित राज्यों को सर्कुलर जारी करते हुए आदेशों को पालन करने के निर्देश भी दिए हैं।
आदेश में क्या हैं निर्देश
सर्कुलर के अनुसार, पहली और दूसरी क्लास के छात्रों को अब होम वर्क नहीं दिया जाएगा। इसके अलावा उनके स्कूली बस्ते का बोझ अधिकतम डेढ़ किलो होगा इस तरह उनके बस्ते को बोझ भी कम के दिया गया है। तीसरी से पांचवीं तक के कक्षाओं के छात्रों के लिए दो से तीन किलो, छठी से सातवीं तक के लिए चार किलो आठवीं से नवीं तक के किए साधे चार किलो और दसवीं क्लास के छात्रों के लिए पांच किलोग्राम वजन तक स्कूली बस्ते लाने की अनुमति दी गई है।
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इसके साथ ही स्कूल उन्हें अतिरिक्त बुक्स और अन्य सामग्री लाने का निर्देश भी नहीं दी सकते हैं। मंत्रालय ने पहली और दूसरी क्लास के छात्रों को केवल गणित और भाषा पढ़ाने की अनुमति दी है, जबकि तीसरी से पांचवीं कक्षा के छात्रों को गणित भाषा और सामान्य विज्ञान को ही पढ़ाने का निर्देश दिया है। जो राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) द्वारा मान्यता दी गई है। मंत्रालय ने राज्यों से कहा है कि वह इस दिशा में गाइडलाइन तैयार करें और इसे तत्काल प्रभाव से लागू करें।
केवल एनसीईआरटी पाठयक्रम की पुस्तकें अनिवार्य
कक्षा पहली व दूसरी के बच्चे को कोई भी होमवर्क नहीं दिया जाएगा। इसके साथ-साथ कक्षा पहली से दूसरी तक भाषा, गणित विषय से संबंधित केवल दो ही किताबें अनिवार्य हैं, जबकि कक्षा तीसरी से पांचवीं तक भाषा, ईवीएस, गणित विषय की केवल एनसीईआरटी पाठयक्रम की पुस्तकें अनिवार्य की गई हैं। गौरतलब है कि पिछले कई सालों से स्कूली बस्ते का वजन कम करने की मांग की जा रही थी क्योंकि स्कूल निजी प्रकाशकों की पुस्तकें चलाने के लिए स्कूली बस्ते को भारी कर रहे थे और होमवर्क से छोटे बच्चे और उनके अभिभावक भी परेशान थे।
सरकारी स्कूलों के निजीकरण की सुगबुगाहट क्यों?
आज यह जानना बहुत जरूरी हो गया है कि पूरे देश में सरकारी स्कूलों के निजीकरण की सुगबुगाहट क्यों बनी हुई है? और इसकी सारी जिम्मेदारी सरकारी स्कूल के शिक्षकों के सिर ही क्यों थोपा जा रहा है? प्रद्युम्न जैसे मामले को लेकर तो अब निजी स्कूल और भी कठघरे में आ गए हैं। ऐसी स्थिति में इस तरह का कदम किस ओर ले जाएगा? हर प्रदेश में शिक्षकों की नियुक्ति, सेवा शर्तों, नियमितीकरण, स्थायीकरण और वेतन-भत्तों को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। शैक्षिक गुणवत्ता और नवाचार एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। शिक्षक, शैक्षिक गुणवत्ता की मुख्य धुरी हैं और वह तभी तक शिक्षक है जब तक वह एक शिक्षार्थी है।
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विद्यालयों में जिस प्रकार से विद्यार्थियों की उपस्थिति गिर रही है और शिक्षा की गुणवत्ता खत्म हो रही है उससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षणेतर कार्यों से शिक्षक इतना अधिक दबाव महसूस कर रहा है कि उसके लिए नवाचार का मानस बनाना लगभग असंभव होता जा रहा है। फेल हो जाने का भय पूर्णत: समाप्त होने से विद्यार्थियों में जो उच्छृंखलता बढ़ी वह अपूर्व है।
शिक्षक को नवीन पद्धतियों को अपने अध्यापन का हिस्सा बनाना पड़ेगा
शिक्षक को अपने कर्तव्य और विद्यालयी गतिविधियों को रोचक बनाने के लिए और अपने विद्यार्थियों के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए नित नवीन पद्धतियों को अपने अध्यापन का हिस्सा बनाना पड़ेगा। इसके लिए उसे स्थानीय जरूरतों के साथ आधुनिक समय में हो रहे बदलावों पर भी अपना ध्यान केंद्रित करना होगा ताकि शिक्षार्थी नवाचार में रुचि ले सके और शैक्षिक गुणवत्ता हासिल की जा सके| शिक्षकों में शासन के बढ़ते अविश्वास, विभिन्न वर्गों के शिक्षकों के बीच वर्ग-भेद और वेतन विसंगतियों तथा शिक्षक को शिक्षणेतर कामों में झोंक देने से उनकी क्षमताओं पर बेहद विपरीत प्रभाव पड़ा है। आज शिक्षक अपने मूल काम से दूर होता जा रहा है। उसका पठन-पाठन छूटता जा रहा है।
सरकारी स्कूलों में शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में ही लगे रहेंगे तो वह पढ़ाएंगे कब?
सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है ! मध्यान्ह भोजन , फंडामेंटल राईट ऑफ़ एजुकेशन , फ्री एजुकेशन , छात्रवृत्ति जैसी सुविधाएँ यहाँ बस मजाक बनकर रह गयी है| सरकारी स्कूलों में अध्यापक को सरकार हमेशा गैर शैक्षणिक कार्यों में ही लगे रहेंगे तो वह पढ़ाएंगे कब? यह भी एक बड़ा सवाल है। महिला अध्यापिका की कमी के कारण ही 11 वर्ष से 17 वर्ष की अधिकांश लड़कियां घर पर रोक ली जाती है ! इस तरह सेकेंडरी/हायर एजुकेशन में बहुत कम लड़कियां ही पहुच पाती है , खासकर , गाँव की बच्चियों की शिक्षा तो रुक ही जाती है| हालांकि अब इसमें धीरे धीरे बदलाव देखने को मिल रहा है। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आ रही है।
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एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में लगभग 16000 अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान है जिनकी स्थिति दयनीय है! सरकारी विद्यालयों में 25% से भी अधिक अध्यापक प्रतिदिन अनुपस्थित रहते है! यह भी ख़राब शिक्षा का एक प्रमुख कारण है! शिक्षक को भी अपना मूल्यांकन करने की जरुरत है!