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'दिनकर' जी की 110वीं जयंती पर विशेष: अपने समय का सूर्य हूँ मैं...

Shivakant Shukla
Published on: 23 Sep 2018 9:22 AM GMT
दिनकर जी की 110वीं जयंती पर विशेष: अपने समय का सूर्य हूँ मैं...
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संजय तिवारी

रामधारी सिंह 'दिनकर' (23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974)

उन्हें राम लिखूं। राम को भीतर धारण किये निरंतर आसुरी वृत्तियों से युद्धरत रामधारी लिखूं। गर्जना और हुंकार वाला सिंह लिखूं। या दिवस के मध्याह्न का सूर्य लिखूँ। मेरी कलम उनको लिखने के लिए बहुत सक्त है, निर्बल है। रामधारी सिंह दिनकर भारतीय रचनाकुल के वह पूर्वज हैं जो निरंतर वर्त्तमान दिखते हैं, अपनी पूरी चेतना और ऊर्जा के साथ। आज उनकी 110 वी जयंती है। इस अवसर पर दिनकर जी को उनकी समग्रता में ही याद करने का मन हो रहा है।

यहाँ खास तौर पर आज यह भी याद करने का मन हो रहा है कि जिस दौर को उन्होंने देखा और उसमे लिखा वह कैसा था। 1947 में देश स्वाधीन हुआ और दिनकर जी बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए।

दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए।

रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया। ऐसे परिवेश और भुकभोगी रचनाकार को समझने के लिए इतनी बातो को जान लेना जरुरी है। अब बात करते हैं उनके साहित्य की।

दिनकर जी पर कुछ भी लिखने से पहले बहुत सतर्क होना पड़ता है। क्योकि उनको काव्य अथवा गद्य की किसी प्रचलित विधा की दीवार से वह बहुत आगे निकले होते हैं। उर्वशी के कामाध्यात्म से लेकर कुरुक्षेत्र और सामधेनी की ओजस्वी हुंकार तक वे काव्य को जनोन्मुखी बनाने में सर्वदा सहायक रहे हैं। मनुष्य के पुरुषार्थ का स्थान उसमें सबसे ऊपर है। पुरुरवा के प्रति उर्वशी की आसक्ति का एक बड़ा कारण देवताओं में भी है और यह कि देवताओं में कोई परिवर्तन नहीं होता, उनमें एकरसता है, इससे ऊब पैदा होती है। स्वर्ग और देवों से ऊबी हुई उर्वशी धरती के मनुष्य पुरुरवा की ओर आकृष्ट होती है। इसी पृष्ठभूमि में पुरुरवा कह सकता है -

मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,

उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं.

अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,

बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ

पर, न जानें, बात क्या है !

इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,

सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,

फूल के आगे वही असहाय हो जाता ,

शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता.

विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से

जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से.

(उर्वशी)

साहित्यकार डॉ. पुनीत बिसारिया ने लिखा है कि हिन्दी साहित्य के समालोचकों ने दिनकर जी को 'युग चारण" कहकर वीर रस की सीमा में बाँध दिया जबकि तथ्य यह है कि उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति " उर्वशी" है, जो वीर रस प्रधान नहीं है। दूसरा अन्याय उनके साथ यह किया गया कि उन्हें फुटकर खाते में डाल दिया गया जबकि वे छायावाद के परवर्ती युग के सर्वश्रेष्ठ कवि-लेखक थे, जिन्होंने प्रबंध काव्य के साथ साथ लम्बी कविताएँ, निबंध, समालोचना आदि भी रचे। संस्कृति के चार अध्याय लिखकर उन्होंने भारतीय संस्कृति की गौरव गाथा को जनसाधारण के समक्ष रखा। दुर्भाग्यवश उनका सही मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। ऐसे महान कवि की जयंती पर उन्हें कृतज्ञतापूर्ण नमन के साथ प्रस्तुत है उनकी कविता 'हमारे कृषक', जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है,जितनी तब थी--

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है

छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है

वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं

बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं

पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना

चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना

विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती

अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है

दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है

दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है

दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे

दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे

दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से

दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से

हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं

दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।

दिनकर की शक्ति और विशिष्टता यह है कि आधुनिक कविता में किसी एक प्रवृति और धारा के साथ न होकर भी वे आधुनिक कविता के विकास में अपनी सार्थकता और महता सिद्ध करते हैं। उत्तेजना और संवेदना का सामंजस्य अपनी रचनात्मक भाषा में करने का विलक्षण प्रयोग उन्होंने किया है। उनकी इस रचनात्मक सामर्थ्य को व्यापक स्वीकृति प्राप्त है। दिनकर किसी काव्य प्रवृत्ति के प्रवर्तक नहीं हैं, वे इतिहास चेतना के साथ मजबूती से चलते रहे हैं।

ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर - मंडल का,

मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का।

रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,

किरणों में उज्ज्वल गीत गुथे हैं मेरे,

किरणों के मुख में विभा बोलती मेरी,

लोहिनी कल्पना उषा खोलती मेरी।

मैं विभा - पुत्र, जागरण गान है मेरा,

जग को अक्षय आलोक दान है मेरा।

दादा खगेन्द्र ठाकुर ने दिनकर जी पर बहुत लिखा है। वह उनको उग्र राष्ट्रवाद के कवी भी कहते हैं। वह उनको कई बार अत्यंत उग्रा ,उत्तेजित ,विद्रोही रूप में हैं। उग्र राष्ट्रवाद में एक प्रकार की अराजकता होती है, जो किसी प्रकार के विधान को मान कर नहीं चलती। दिनकर एक कविता में कहते हैं -

पूछेगा बूढ़ा विधाता तो मैं कहूँगा

हाँ तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया।

खगेन्द्र ठाकुर लिखते हैं - सृष्टि को मिटाने की बात तो है, लेकिन उसका कोई विकल्प रचने की बात दिनकर की कविताओं में नहीं मिलती। वे मनुष्य के शोषण उत्पीड़न से दुखी हैं, इस अन्याय के खिलाफ जोर से बोलते हैं, लेकिन अन्याय का दृश्य चित्रण यानी संदर्भ नहीं के बराबर मिलता है, और अन्याय के खिलाफ संघर्ष में जनता की भूमिका तो इनकी कविताओं में कहीं नहीं है। उग्र राष्ट्रीय भावों को व्यक्त करने वाली प्रसिद्ध कविता है 'हिमालय' जिसकी ये पंक्तियाँ अत्यंत प्रसिद्ध हैं -

रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहाँ

जाने दे उनको स्वर्ग धीर

पर फिरा हमें गांडीव गदा

लौटा दे अर्जुन भीम वीर।

वैसे दिनकर जी को क्रमवार पढ़ने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी रचनायात्रा देश में उस समय चल रही स्वाधीनता संघर्ष की यात्रा के समानान्तर ही चलती है। स्वाधीनता आंदोलन के हर पड़ाव पर दिनकर जी अपनी रचनाशक्ति के साथ खड़े हैं। इसे एक उदहारण में समझ सकते हैं। गांधी जी नमक सत्याग्रह छेड़ कर भी गोलमेज सम्मेलन में चले गए, और इधर क्रांतिकारियों ने अपने तरीके से ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की शहादत देश भर में गूँज रही थी। यह समझने में दिक्कत नहीं है कि दिनकर की उपरोक्त पंक्तियों में युधिष्ठिर गांधी का प्रतिनिधित्व कर रहे है और अर्जुन भीम जैसे वीर भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद का। क्रांतिकारी चेतना को देश की गुलामी अखरती है, यह बात अत्यंत दर्दनाक और अपमानजनक है। 'हिमालय' में ही कवि कहता है -

अरे मौन तपस्या लीन यती।

पल भर को तो कर दृगुन्मेष।

रे ज्वालाओं से दग्ध विकल

है तड़प पूछ पद पर स्वदेश।

यह मार्मिक साथ ही उत्तेजक प्रश्न है कि यहाँ तुम्हारे पैरों पर गुलामी की आग में झुलसा विकल प्यारा स्वदेश पड़ा हुआ है और तुम मौन तपस्या में लीन हो!

ध्यान देने की बात है कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में समाजवाद का उद्घोष कर रहे थे, लेकिन दिनकर शोषण के खिलाफ गरज कर भी समाजवाद का जिक्र नहीं करते। विकल्प के अभाव में ही यह राष्ट्रीयता अराजकता का रूप ले लेती है। उग्र राष्ट्रवाद दिनकर की कविताओं में सामधेनी की कविताओं तक चलता है। 'प्यारा स्वदेश' गुलाम तो है, साथ में उसका भयानक शोषण भी होता है। नीचे की पंक्तियों को देखें -

कितनी मणियाँ लुट गईं! मिटा

कितना मेरा वैभव अशेष

तू ध्यानमग्न ही रहा, इधर

वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

'वीरान हुआ प्यारा स्वदेश' जैसी पंक्ति देश की दुर्दशा को इस तरह व्यक्त करती है कि जैसे यह दुर्दशा मनुष्य को असह्य बना दे। स्वदेश को मुक्त करने के लिए युवा पीढ़ी कुछ भी कर सकती है। करने को तत्पर है -

नए सुरों में थिंजिनी बजा रही जवानियाँ।

लहू में तैर तैर के नहा रही जवानियाँ।

जवानी यानी युवा पीढ़ी लहू में तैर तैर के नहा रही है। यह अपार कुर्बानी का प्रमाण है, लहू में तैरना कोई मामूली बात नहीं है। रामधारी सिंह दिनकर को इसीलिए अनवरत युद्धरत राम से जोड़ना उचित लगता है। सड़क से संसद तक सत्ता से जनता तक उन्हें जब जिसे ललकारना है ,खुल कर ललकार देते हैं। यह बहुत साहस का काम है और आज तो इसका उदाहरण मिलना भी बहुत कठिन है। आलोचकों और समीक्षकों की नजर में दिनकर स्वच्छंदतावाद के कवि कहे जाते हैं। बंधनों को, रूढ़ियों को तोड़ना कवि की मुख्य विशेषता मानी जाती है।

इसके पीछे व्यक्ति स्वातंत्रय की भावना काम करती रहती है। व्यक्ति स्वातंत्रय का ही एक रूप यह है कि कवि या मनुष्य, मात्र अपनी अथवा अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को जरूरी समझता है चूँकि भारत गुलाम था, इसलिए स्वतंत्रता प्राथमिक शर्त थी। रूढ़ियों को तोड़े बिना व्यक्ति स्वातंत्रय की स्थिति संभव नहीं है। इस दृष्टि से देखे तो व्यक्ति स्वातंत्रय उनकी चिंता का विषय नहीं है। उनकी वास्तविक चिंता का केंद्र राष्टीय परिस्थियों में निहित है।

उस समय की परिस्थितियों पर ध्यान देने की। देखिये तो यूरोप में स्वच्छंदतावाद के उद्भव और विकास की जो स्थितियाँ और परिस्थितियाँ थीं, वे भारत में या हिंदी क्षेत्र में नहीं थीं। स्वच्छंतावाद की प्रवृत्ति हिंदी में भी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से जुड़ी हुई है। इस प्रवृत्ति की एक विशेषता यह है कि सामाजिक विषमता के प्रति उसमें आक्रोश है, उसका खात्मा करने की भावना उसमें व्यक्त होती है, लेकिन विषमता के बुनियादी कारणों की खोज नहीं की जाती है। समाज में उथल पुथल तो कवि चाहता है, लेकिन बुनियादी और क्रांतिकारी परिवर्तन से उसे डर भी लगता रहता है। ऐसे कवि में स्वच्छंदता की भावना और चेतना अद्भुत कल्पना प्रवण, अव्यावहारिक और मिथकीय बिंबों, प्रतीकों, ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के माध्यम से व्यक्त होती है।

इसी अर्थ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था "दिनकरजी अहिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।" हरिवंश राय बच्चन ने कहा था "दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।" रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा था "दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।" नामवर सिंह ने कहा है "दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।" प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा था कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया। काशीनाथ सिंह के अनुसार 'दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।'

दिनकर जी का रचना संसार

कवितायें

1. बारदोली-विजय संदेश (1928)

2. प्रणभंग (1929)

3. रेणुका (1935)

4. हुंकार (1938)

5. रसवन्ती (1939)

6.द्वंद्वगीत (1940)

7. कुरूक्षेत्र (1946)

8. धूप-छाँह (1947)

9. सामधेनी (1947)

10. बापू (1947)

11. इतिहास के आँसू (1951)

12. धूप और धुआँ (1951)

13. मिर्च का मजा (1951)

14. रश्मिरथी (1952)

15. दिल्ली (1954)

16. नीम के पत्ते (1954)

17. नील कुसुम (1955)

18. सूरज का ब्याह (1955)

19. चक्रवाल (1956)

20. कवि-श्री (1957)

21. सीपी और शंख (1957)

22. नये सुभाषित (1957)

23. लोकप्रिय कवि दिनकर (1960)

24. उर्वशी (1961)

25. परशुराम की प्रतीक्षा (1963)

26. आत्मा की आँखें (1964)

27. कोयला और कवित्व (1964)

28. मृत्ति-तिलक (1964)

29. दिनकर की सूक्तियाँ (1964)

30. हारे को हरिनाम (1970)

31. संचियता (1973)

32. दिनकर के गीत (1973)

33. रश्मिलोक (1974)

34. उर्वशी तथा अन्य शृंगारिक कविताएँ (1974)

गद्य

35. मिट्टी की ओर 1946

36. चित्तौड़ का साका 1948

37. अर्धनारीश्वर 1952

38. रेती के फूल 1954

39. हमारी सांस्कृतिक एकता 1955

40. भारत की सांस्कृतिक कहानी 1955

41. संस्कृति के चार अध्याय 1956

42. उजली आग 1956

43. देश-विदेश 1957

44. राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रीय एकता 1955

45. काव्य की भूमिका 1958

46. पन्त-प्रसाद और मैथिलीशरण 1958

47. वेणुवन 1958

48. धर्म, नैतिकता और विज्ञान 1969

49. वट-पीपल 1961

50. लोकदेव नेहरू 1965

51. शुद्ध कविता की खोज 1966

52. साहित्य-मुखी 1968

53. राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी 1968

54. हे राम! 1968

55. संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ 1970

56. भारतीय एकता 1971

57. मेरी यात्राएँ 1971

58. दिनकर की डायरी 1973

59. चेतना की शिला 1973

60. विवाह की मुसीबतें 1973

61. आधुनिक बोध 1973

Shivakant Shukla

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