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हिन्दी दिवस पर विशेष : आखिर हिन्दी को कब मिलेगा सम्मान

tiwarishalini
Published on: 14 Sept 2017 7:07 AM
हिन्दी दिवस पर विशेष  : आखिर हिन्दी को कब मिलेगा सम्मान
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-सुरेन्द्र अग्निहोत्री

लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी का उर्वरा प्रदेश जहाँ खड़ी बोली ने अपना आधार पाया। लेकिन आज अपने ही आंगन में हिन्दी की जो दुर्दशा हुई उसके कारण डबडबाई आंखे लिये हिंदी रो भी नही पा रही और न ही मुस्करा पा रही है। हिन्दी को एक आधार देने में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दुस्तानी एकेडमी, नागरी प्रचारणींय सभा, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, भाषा संस्थान तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा की जो हालत आज है उसके पीछे सरकार की उदासीनता और बेरूखी साफ झलकती है।

रागदरबारी के लेखक श्रीलाल शुक्ल ने अपने एक व्यंग्य निबंध में लिखा था ‘‘उत्तर प्रदेश में सारे संस्थानों से अच्छा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान है’’ जब-जब इसका नाम कान में पड़ा है इसकी प्रस्सती में अपनी अल्पविषया मति के बावजूद एक महाकाव्य लिखने की इच्छा हुई है, महाकाव्य इसलिऐ कि हिन्दी संस्थान खुद एक महाकाव्य है। हिन्दी संस्थान के आकार लेने के पूर्व सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने हिन्दी के विकास के लिये अनेक महत्वपूर्ण गं्रथों भाषाई सवेक्षणों के साथ-साथ त्रिपथगा नामक पत्रिका का प्रकाशन किया उसके टक्कर की एक भी पत्रिका प्रदेश का कोई संस्थान आज तक नही निकाल सका। लेकिन सवाल एक बार फिर जवाब के लिये हिन्दी दिवस की बेला पर वहीं ज्यों का त्यो खड़ा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्षो के बाद भी हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान का दर्जा क्यों नहीं हासिल हो पाया, जो उसे अब तक मिल जाना चाहिए था।

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हिन्दी के रास्ते में बड़ी मुश्किल अंग्रेजी का बड़ता प्रभाव साबित हो रहा है। सरकारी और कानूनी कामकाज की भाषा अंग्रेजी बनी रहने के कारण हिन्दी में समझता दंम और सुन्दरता के बावजूद भी अपना अधिकार नही हासिल हो रहा है जबकि वर्ष 1991 की जनगणना चीख-चीख कर कह रही है कि देश में 33.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते है। आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व भारतेन्दु हरिश्चन्द ने अपने उद्वगार कुछ इस तरह व्यक्त किये थे-

निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा-शान के, मिटत न हिय को सुल।।

अंग्रेजी पढि़ के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

पें निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत ही नकी हीन।।

निज भाषा उन्ति बिना, कबहूं न है हे सोय।

लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय।

इस भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।

बते बनत है सबन सौ, मिटत मूढ़ता सोय।।

और एक अति लाभ यह, या मैं प्रगट लखात।

बिज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तहि सुनि पावें लाभ सब, बात सुनै जो कोय।

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नहीं होया।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहि सों उत्पात।

विविध देश मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।

सब मिल तासों छाडि़ के, दूजे और उपाय।

उन्नति भाषा की करहु, अहो भगतन आय।।

हिन्दी भले ही अपने ही घर में बेगानी नजर आये लेकिन तथ्य बताते है कि भारत के बाहर 165 विश्वविद्यालयों में हिन्दी के अध्ययन और अध्यापन की व्यवस्था है। आधुनिक अद्यौगिक विकास के प्रमुख केन्द्र के रूप में उभर रहे भारत में अद्यौगिक उत्पादन का वर्चश्व कायम करने के लिये दुनिया भर के बड़े-बड़े उत्पाद निर्माता अपनी बात हिन्दी में कहने के लिये विवश हुये है। मध्य प्रदेश में अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय तकनीकी शिक्षा हिन्दी में शुरू कराने के लिए तकनीकी विषय कीअध्ययन और अध्यापन की सामग्री का अनुवाद की देश की सबसे बडी परियोजना को पूर्ण करने कि दिशा में सार्थक कार्य कर रहा है।

दुनिया भर में इंटरनेट का उपयोग करने वाले दस करोड़ लोगों में 40 फीसदी हिन्दी भाषी है। छायावादी काव्य धारा की शीर्ष स्तम्भ महादेवी वर्मा के शब्दांे में आज राष्ट्रभाषा की स्थिति के संबंध में विवाद नही है, पर उसे प्रतिष्ठित करने के साधनों को लेकर ऐसी विवादेषणा जागी है कि साध्य ही दूर से दूर तक होता जा रहा है। विवाद जब तर्क की सीधी रेखा पर चलता है, तब लक्ष्य निकट आ जाता है। पर जब उसके मूल में आंशका, अविश्वास और अनिच्छा रहती है, तब कहीं न पहुंचना ही उसके लक्ष्य बन जाता है। जहां तक हिंदी का प्रश्न है, वह अनेक प्रादेशिक भाषाओं को सहोदरा और एक विस्तृत विविधता भरे प्रदेश में अनेक देशज बोलियों के साथ पलकर बड़ी हुई है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मगही, बुंदेली, बघेलखंडी आदि उसकी धूल में खेलने वाली चिर सहचारियां है।

इनके साथ कछार और खेतों, मचान और झोपडि़यों, निर्जन और जनपदों में घूम-घूमकर उसने उजले आंसू और रंगीन हंसी का संबल पाया है। हिंदी के प्रादेशिक और भारतीय रूप से भी चर्चा के विषय बन रहे है। यह प्रश्न बहुत कुछ ऐसा है, जैसे एक हृदय के साथ दो शरीरों की परिकल्पना। हिंदी की विशेषता उसकी मुक्ति में रही है, इसका प्रमाण उसके शब्दकोष में मिल सकेगा। उसने देशज बोलियों तथा देशी-विदेशी भाषाओं से शब्द संग्रह करने मंे न कभी संकीर्णता दिखाई और न उन्हें अपना बनाने में सुविधा का अनुभव किया। परंतु विकसित, परिमार्जित और साहित्यवती भाषा का कोई सर्वमान्य रूप या मानदंड न हो, ऐसा संभव नही होता ।

आज हिंदी में साहित्य सृजन करने वालांे में कोई बिहार का मगही भाषी है, कोई मथुरा का ब्रज भाषी। परंतु बंुदेलखंडी बोलने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण, वैसवाड़ी बोलने वाले कविवर निराला और कुमाऊंनी बोलने वाले श्री सुमित्रानंदन जी क्या समान रूप से हिंदी के वरद पुत्र नही कहे जाते। यदि हिंदी को बिहार हिंदी अवधी हिंदी, बंुदेली हिंदी नही बनाया जा सकता है तो उसका कारण हिंदी का वह सोशिष्ट रूप और मूलगत गठन है, जिसके बिना कोई भाषा महत्व नही पाती। ‘‘शिक्षा का माध्यम तुरन्त बदल दिया जाना चाहिए और किसी भी कीमत पर उनको प्रान्तीय भाषाओं को उनका उचित स्थान मिलना चाहिए। यदि उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ काल के लिए अव्यवस्था भी हो जाये तो हो जाय मैं प्रतिदिन की जाने वाली इस वेहताशा फिजूल खर्ची और बरवादी से उसे पसन्द करूंगा उक्त कथन है हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का वे राष्ट्रभाषा के लिए फिजूल खर्ची को भी स्वीकार करते थे क्योंकि जब तक राष्ट्रभाषा अपनी मातृभाषा न हो जब मातृभूमि और स्वदेश से प्रेम की कल्पना ही कठिन है।

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संविधान द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान किया जा चुका है। क्या वास्तव में हिन्दी राष्ट्रभाषा बन पाई है? देश की कुल जनसंख्या में सर्वाधिक प्रयोग होने वाली हिन्दी को वह गौरव कब मिलेगा? आज भी हम अच्छे ज्ञान के लिए अंग्रेजी का सहारा क्यांेलेते है? यह प्रश्न 1875 के अप्रैल अंक ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में भारतेंदु द्वारा एवं विधिपत्रिका ‘नीतिप्रकाश ’ के प्रकाशन के पूर्व छापा गया विज्ञापन ‘हिन्दी में बहुत से अखबार है पर हमारे हिन्दुस्तानी लोगों को उनसे कानूनी खबर कुछ नही मिलती है और न हिंदी मंे से स्पष्ट होता है जो हालत आज से 137 वर्ष पूर्व थी वह आज है।

सिर्फ हिन्दी दिवस मनाने से क्या होता है? जब तक राष्ट्रभाषा हिन्दी को व्यावहारिक रूप से अपनाया नही जायेगा तब तक हमारा जनतंत्र मजबूत नही हो सकता। जब हमारा देश अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ था तब 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने वी.वी.सी. के द्वारा सारे संसार को यह सन्देश दिया था ‘‘गांधी अंग्रेजी नही जानता लेकिन आज गांधी के नाम का चोला धारण करने वाले लोग सिर्फ अपनी संकुचित मानसिकता के कारण अंग्रेजी के प्रभाव को खत्म करने की जगह बड़ा रहे है दोष अंग्रेजी का नही है बल्कि सत्ता की कोठरीयांे में अतिक्रमण करने वाले लोग जिनके हाथ में र्दुभाग्य से नीति-निर्धारण का दायित्व है वे नही चाहते उनके हाथ से सत्ता की डोर न खिसक कर उन हाथों में पहुंच जाये जो सच्चे भारतीय है। अंग्रेजी के प्रचार प्रसार के पक्षधर कहते है कि अंग्रेजी के द्वारा भारत में एकता की जा सकती है उनका उक्त कथन उस (अंग्रेजी) दास-भाव के ग्रस्त अंग्रेजी की श्रेष्ठता और समृद्धि से आतंकित अभिजात श्रेणी के बौद्धिक वर्ग की सतही एकता है जो चिरकाल तक पराधीन रहने के कारण परीधीनता को ही अपनी स्वतन्त्रता मान लेता है।

हमारे देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत अंग्रेजीदा 92 प्रतिशत गेर अंग्रेजी बोलने वालों पर अपना हुकुम चला कर हिन्दी की चेरी अंग्रेजी केा राष्ट्रभाषा रूप में अपनाने को विवश किये और हम, हमारे शासक मूक दर्शक बनकर देशवासीयों को स्वभाषा की जगह विदेशी भाषा का भक्त पुररोधा बनने दे रहे है। आश्चर्य की बात है कि हमारे संविधान मंे हिन्दी को राष्ट्रभाषा दर्ज तो प्रदान कर दिया गया लेकिन सिर्फ हिन्दी दिवस मनाकर अपनी इतिश्री मानना है।

इन्दौर (म.प्र.) में आयोजित अंग्रेजी हटाओं सम्मेलन में पूर्व राष्ट्रपति स्व0 ज्ञानी जैल सिंह द्वारा व्यक्त यह कथन अंग्रेजी ने राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा बना दिया सिर्फ शब्द उच्चारण भेद को ही इंगित नही करता बल्कि हमारे नैतिक पतन को भी इंगित करता है। कितने शर्म की बात है हमारे मार्गदर्शक भगवान राम और भगवान कृष्ण को अंग्रेजी ने कितना उपभ्रंश रूप में प्रस्तुत किया जबकि हम स्वर उच्चारण को ही ईश्वर आराधना एवं मंत्र विज्ञान में महत्वपूर्ण मानते है। यदि समय राहते राष्ट्रभाषा के विकास के लिए कारगर कदम नही उठाया गया तो आने वाला कल हममें कभी माफ नही करेगा। मनोविज्ञान-वेत्ता कहते है कि जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा से प्रेंम नही कर सकता वह अपनी मातृभूमि से प्रेम नही कर सकता।

हम यदि इतनी गहराई से विवेचन न भी करें तो यह तो स्वष्ट है अंग्रेजी अनेकता में एकता के सिद्धान्त को मूर्तरूप देने में सफल नही हो सकती बल्कि एकता के लिए हममें समस्त भारतीय भाषाओं के साथ चलना होगा जो हमारी संस्कृति में पली-पुसी है और वर्तमान में रची-बसी है केरल का नम्बूदिरीपाद ब्राहा्रण यदि बद्रीनाथ मन्दिर मंे पुरोहित बनता है तो क्या अंग्रेजी के कारण? कहा केरल कहा बद्रीनाथ? यदि दक्षिण के रामानुजाचार्य का शिष्यत्व उत्तर भारत के कबीर, तुलसी जैसे सन्त स्वीकार करते है तो क्या अंग्रेजी के कारण? आश्चर्य की बात है कि शैवमत के सिद्धान्त प्रतिपादक प्रमाणिक ग्रन्थ तमिल में मिलते है या काश्मीरी में मिलते है, क्या काश्मीरी और तमिल मंे निकटता अंग्रेजी के कारण निष्पन्न हुई थी?

सच्चाई तो यह है कि आज जितना धन,श्रम और समय अंग्रेजी सीखने मंे लगता है उतने ही धन,श्रम और समय के उपयोग से समस्त भारतीय भाषा सीख सीते है क्योंकि भारतीय भाषाओं के विकास का श्रोत्र एक ही है संस्कृति। अतः अंग्रेजी की अपेक्षा अन्य भारतीय भाषायें सरल और सुगम है। अंग्रेजो के आगमन के पूर्व के इतिहास पर दृष्टि डाली जाये तो ज्ञात होता है फारसी की कुछ जड़े भारत में थी जो हिन्दी के साथ मिलकर उर्दू के रूप में विकसित हुई किन्तु अंग्रेजी की तो सारी जड़े सात समुन्दर पार से भारत में कुष्ठ रोग के रूप मंे फैली और हमें इस भाषा ने विकास के नाम पर सिवाय दास भाव के अलावा क्या दिया?

अंग्रेजी के द्वारा भारत की जिस एकता की बात की जाती है वह इसी वर्ग की दास-भाव से ग्रस्त अंग्रेजी की श्रेष्ठता और समृद्धि से आतंकित अभिजात श्रेणी के वैद्धिक वर्ग की सत ही एकता है चिरकाल तक पराधीन रहने वाली सभी जातियों में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है, परन्तु यह चिरस्थाई नही होती है।

-ःगांधी और विनोबा के विचारः-

हमारे राष्ट्रपिता अभिजात वर्ग की चालों से भारतीय जनमानस को सचेत करना चाहते थे उनका दृढ़ विश्वास था भारत को एक सूत्र में पिरोने के लिए आवश्यक है राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा साथ ही साथ प्रादेशिक भाषाओं को भी शिक्षा का माध्यम बनाने के प्रबल पक्षधर थे आपका विचार था सत्ता (सुराज) को जन-जन तक पहुचान के लिए मजदूर से उसी की भाषा में बात करती होगी इसलिए महात्मा गांधी ने कहा था- ‘‘शिक्षा का माध्यम तुरन्त बदल दिया जाना चाहिए और किसी भी कीमत पर उनको प्रान्तीय भाषाओं को उनका उचित स्थान मिलना ही चाहिए। यदि उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ काल के लिए अव्यवस्था भी हो जाये तो हो जाय मैं प्रतिदिन की जाने वाली इस बेहतसा फिजूल खर्ची और बरवादी से उसे पसन्द करूंगा।’’ जिस गांधी ने 15 अगस्त 1947 को वी.वी.सी. को दिये अपने साक्षात्कार मंे सारे संसार को यह संदेश दिया था ‘गांधी अंग्रेजी नही जानता’ उन्ही के दिखायें मार्ग पर चलने वाले यदि अंग्रेजी की वकालत करे तो हमारे लिए यह राष्ट्रीय शर्म की बात है क्या हम भारतीयों में अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के प्रति कोई दायित्व नहीं?

भारतरत्न आचार्य विनोबा राष्ट्रभाषा के पक्के हिमायती थे उनका यह विश्लेषण विचारनीय है-

‘‘जिस प्रकार मनुष्य को देखने के लिये दो आंखों की आवश्यकता होती है उसी तरह राष्ट्र के लिए दो भाषा में प्रान्तीय भाषा और राष्ट्रीय भाषा की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी भाषा चश्मे के रूप में काम आयेगी। चश्मे की जरूरत सबको नही पड़ती। कभी-कभी कुछ लोगों को उसकी जरूरत पड़ सकती है। बस इतना ही अंग्रेजी का स्थान है इससे अधिक नही है।

उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा जिस दृढ़ता के साथ प्रदेश सरकार की प्रतियोगी परीक्षाओं एवं न्यायालय में कामकाज राष्ट्रभाषा मंे करने का आदेश देकर जो सार्थक प्रयास किया वह हिन्दी के विकास में मील का पत्थर बना है। आज समय रहते हिन्दी प्रदेशों के मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार पर दबाओं डाले कि केन्द्र सरकार के द्वारा दोनों सदनों में तथा विभिन्न मत्रालयों में राष्ट्रभाषा का प्रयोग सुनिश्चित करे तथा राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करे साथ ही साथ देशवासियों को भी हिन्दी के साथ प्रादेशिक भाषाओं के प्रति उचित सम्मान प्रदान करे। आज हमे हिन्दी दिवस के अवसर पर शपथ लेना होगा हम अंग्रेजी रूपी चेरी को राष्ट्रभाषा सिंहासन से उतार कर हिन्दी कोे उसकी जगह प्रतिष्ठित करके गांधी और विनोबा के स्वप्न को साकार करने में अपनी-अपनी सार्थक भूमिका अदा करनी होगी।

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