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आवाज के जादूगर मो. रफी: दुकान पर सुनाते थे गाने, ऐसे बने संगीत के कोहीनूर

मोहम्मद रफी इनके के बड़े भाई की नाई की दुकान थी। वह यहीं पर बैठकर ग्राहकों को गाने सुनाया करते थे। एक बार जब वह अपने बड़े भाई की दुकान पर बैठे थें तभी वहां से गुजर रहे एक फकीर के गीत को सुनने हुए वह उसके पीछे चल दिए और फिर वह उस फकीर की नकल करने लगे।

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Published on: 24 Dec 2020 9:41 AM IST
आवाज के जादूगर मो. रफी: दुकान पर सुनाते थे गाने, ऐसे बने संगीत के कोहीनूर
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''तुम मुझे यूं भुला न पाओगे'', गायक मो. रफी के जन्म दिन पर विशेष

मुंबई: हिन्दी साहित्य में जो योगदान सूर कबीर और तुलसी का है, वही योगदान फिल्मी गीतों में रफी, किशोर और मुकेश का है। इनमें से मोहम्मद रफी एक ऐसे गायक थे, जिन्होंने रोमाटिंक गीतों के साथ ही अपनी गंभीर गायन शैली से एक अलग मुकाम बनाया। यही नहीं, एक पिता के तौर पर उनके गाए गीत ‘‘बाबुल की दुआएं लेती जा’’ तथा ‘‘चलो रे डोली उठाओ कहार’’ आज भी लोगों के मन में अपना विशिष्ट स्थान रखे हुए हैं।

दुकान पर बैठकर ग्राहकों को गाने सुनाया करते थे

मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय होने के बाद उन्हे संगीत का शौक लग गया। वह जब करीब सात साल के थे तभी उनका परिवार लाहौर आ गया। इनके परिवार का संगीत से कोई खास सरोकार नहीं था। मोहम्मद रफी इनके के बड़े भाई की नाई की दुकान थी। वह यहीं पर बैठकर ग्राहकों को गाने सुनाया करते थे। एक बार जब वह अपने बड़े भाई की दुकान पर बैठे थें तभी वहां से गुजर रहे एक फकीर के गीत को सुनने हुए वह उसके पीछे चल दिए और फिर वह उस फकीर की नकल करने लगे।

पहली बार उन्होंने अपना गीत तब गाया जब प्रख्यात गायक केएल सहगल आल इंडिया रेडियो के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में गीत गाने के लिए आए थें पर अचानक बिजली जाने के बाद सहगल वहां से चले गए तो फिर आयोजकों से रफी के भाई ने आग्रह किया कि एक मौका उनके भाई को दिया जाए। इतनी छोटी सी उम्र में मो रफी का यह पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था।

(File Photo)

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पंजाबी फिल्म गुल बलोच के लिए गाया पहला गाना

मो रफी ने अपना पहला गाना पंजाबी फिल्म गुल बलोच के लिए गाया। बंबई में उन्होंने हिन्दी में शुरुआती गीत गाँव की गोरी (1945), समाज को बदल डालो (1947) और जुगनू (1947) जैसी फिल्मों के लिए गाए। संगीतकार नौशाद ने होनहार गायक की क्षमता को पहचाना और फिल्म अनमोल घड़ी (1946) में रफी से पहली बार एकल गाना तेरा खिलौना टूटा बालक और फिर फिल्म दिल्लगी (1949) में इस दुनिया में आए दिलवालों गाना गवाया, जो बहुत सफल हुआ।

कई दशकों तक संगीत की दुनिया के बादशाह रहे नौशाद ने ही उन्हे मौका दिया। इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी में भी रफी ने गाने गाए जो बहुत प्रसिद्ध हुए। 1951 में जब नौशाद फिल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने अपने पसंदीदा गायक तलत महमूद से गवाने की सोची थी। बैजू बावरा के गानों ने रफी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित किया। इसके बाद नौशाद ने रफी को अपने निर्देशन में कई गीत गाने को दिए। लगभग इसी समय संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन को उनकी आवाज पसंद आयी और उन्होंने भी रफी से गाने गवाना आरंभ किया। शंकर जयकिशन उस समय राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ मुकेश की आवाज पसन्द करते थे। कई बार राज कपूर के लिए रफी साहब ने गाया।

इन गानों से रफी को मिली ख्याति

जल्द ही संगीतकार सचिन देव बर्मन तथा उल्लेखनीय रूप से ओ पी नैय्यर को रफी की आवाज बहुत रास आयी और उन्होने रफी से गवाना आरंभ किया। ओपी नैय्यर का नाम इसमें स्मरणीय रहेगा क्योंकि उन्होने अपने निराले अंदाज में रफी-आशा की जोड़ी का काफी प्रयोग किया और उनकी खनकती धुनें आज भी उस जमाने के अन्य संगीतकारों से अलग प्रतीत होती हैं। उनके निर्देशन में गाए गानो से रफी को बहुत ख्याति मिली और फिर रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी इत्यादि संगीतकारों की पहली पसंद रफी साहब बन गए।

लगभग सभी गायकों और गायिकाओं के साथ गाए गाने

मो रफी ने लगभग सभी गायकों और गायिकाओं के साथ गाने गाए। चाहे वह लता आशा, उषा,शारदा और शमशाद बेगम हो अथवा पुरूष में किशोर कुमार मुकेश महेन्द्र कपूर आदि सभी के नाम षामिल हैं। इसके अलावा परदे पर उन्होंने धर्मेन्द्र, जितेन्द्र, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, अमिताभ बच्चन,राजेश खन्ना आदि के लिए गीत गाए। फिल्म हम दोनों (1961) का गीत ‘अभी न जाओ छोड़ के‘ सुनकर लगता है कि खुद देवानंद इसे गा रहे हों. वहीं 1962 में आई फिल्म आन में घोड़े की टाप पर रचा गया गीत ‘दिल में छुपाकर प्यार‘ में लगता है कि दिलीप कुमार खुद गा रहे हैं। प्यासा (1957) फिल्म के गीतों में लगता है कि गुरूदत्त खुद गा रहे हैं।

इसी तरह शम्मी कपूर के लिए उन्होंने अकेले अकेले कहां जा रहे हो, दीवाने का नाम तो पूछो, रात के हम सफर, इशारों इशारों में, ये चांद सा रोशन चेहरा, दीवाना हुआ बादल उन गीतों में शामिल है।

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उनके गीतों के बक्से में फिल्म ‘कोहिनूर’ (1907) का ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ और ‘बैजू बावरा’ (1952) का ‘ओ दुनिया के रखवाले’ जैसे शास्त्रीय गीत फिल्म ‘दुलारी’ (1949) की ‘सुहानी रात ढल चुकी’ तथा ‘चौदहवी का चाँद’ (1960) जैसी गजलेंय 1965 की फिल्म ‘सिकंदर-ए-आजम’ से ‘जहाँ डाल-डाल पर’, ‘हकीकत’ (1964) से ‘कर चले हम फिदा’ तथा ‘लीडर’ (1964) से ‘अपनी आजादी को हम जैसे आत्मा को झकझोरने वाले’ देशभक्ति गीता और ‘तीसरी मंजिल’ (1964) का ‘रॉक ऐंड रोल’ से प्रभावित ‘आजा-आजा मैं हूँ प्यार तेरा’ जैसे हल्के-फुल्के गाने शामिल हैं। उन्होंने अंतिम गाना 1980 की फिल्म ‘आसपास’ के लिए ‘तू कहीं आसपास है ऐ दोस्त’ गाया था।

श्रीधर अग्निहोत्री



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