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इस गायिका को करना पड़ा जातिय बाधाओं का सामना, संगीत में नाम कमा दिया जवाब
गंगूबाई हंगल ने कभी हार मानना सीखा ही नहीं। संगीत के पथ पर अटल रहकर उन्होंने उन सभी लोगों के मुंह बंद कर दिए, जो उन्हें कभी गानेवाली कह कर ताने मारा करते थे।
लखनऊ: 5 मार्च 1913 को कर्नाटक के धारवाड़ शहर में एक देवदासी परिवार में एक बेटी ने जन्म लिया, जिसने भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई ऊँचाईयों तक पहुंचाने का काम किया। जी हां, हम बात कर रहे हैं देश की प्रसिद्ध गायिका गंगूबाई हंगल की। भले ही वो आज इस दुनिया में न रही हों, लेकिन गंगूबाई अपने खास अंदाज और प्रस्तुति के लिए जानी जाती रहेंगी।
गंगूबाई हंगल की यात्रा आसान नहीं
भारतीय शास्त्रीय संगीत में गंगूबाई हंगल ने बहुत नाम कमाया। लेकिन उनके लिए ये यात्रा इतनी भी आसान नहीं रही। इस ऊंचाई तक आने के लिए गंगूबाई ने जातीय बाधाओं को पार किया, जो काफी मुश्किल रहा। अपनी आत्म कथा में उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे लोग उन्हें गानेवाली कह कर ताने मारा करते थे। उन्होंने कैसे ने जातीय और लिंग बाधाओं को पार किया और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के किराना घराने का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगूबाई हंगल के पिता चिक्कुराव नादिगर एक कृषक थे और मां अम्बाबाई कर्नाटक शैली की शास्त्रीय गायिका थीं। बचपन में वे धारवाड़ शहर के शुक्रवरपीट में रहते थे, जो कि मूलत: एक ब्राह्मण प्रधान क्षेत्र था। उन दिनों जातिवाद बहुत प्रबल हुआ करता था। उनका ब्राह्मणों के घर प्रवेश निषेध था।
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जब आम तोड़ने पर लोगों ने धिक्कारा
अपनी जीवनी में गंगूबाई ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि मुझे याद है कि बचपन में मुझे किस तरह धिक्कारा गया था, जब मैं एक ब्राह्मण पड़ोसी के बागीचे से आम तोड़ती हुई पकड़ी गई थी। उन्हें आपत्ति इस बात से नहीं थी कि मैंने उनके बाग से आम तोड़े, बल्कि उन्हें इस बात से आपत्ति थी कि क्षुद्र जाति की एक लड़की ने उनके बागीचे में घुसने का दुस्साहस कैसे किया? आश्चर्य की बात यह है कि अब वही लोग मुझे अपने घर दावत पर बुलाते हैं।
(फोटो- सोशल मीडिया)
बता दें कि उनकी माँ अंबाबाई और दादी कमलाबाई दोनों उच्च कोटि के ब्राह्मणों की पत्नियां थीं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें नीच कोटि का शुद्र माना जाता था। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी पिछली सभी पीढियां और खुद गंगूबाई देवदासी परंपरा की शिकार थीं। उनका जन्म केवट जाती में हुआ था, जहां स्त्रियां गाने और बजाने में निपुण हुआ करती थी, लेकिन उन्हें ‘अंगवस्त्र’ कहा जाता था।
अंगवस्त्र यानी उच्च जाती के पुरुषों द्वारा लिया हुआ एक अतिरिक्त कपड़ा। उच्च जाती के पुरुष इन महिलाओं को अपना लेते और महिलाएं उनकी पत्नियों की भांति रहती, उनकी संतान को भी जन्म देती, लेकिन उन्हें पत्नी होने का दर्जा नहीं दिया जाता था। लेकिन गंगूबाई ने इन जातियों बाधाओं को पार करते हुए हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों में अपनी एक अलग पहचान बनाई।
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गंगूबाई ने नहीं मानी हार
गंगूबाई हंगल ने कभी हार मानना सीखा ही नहीं। संगीत के पथ पर अटल रहकर उन्होंने उन सभी लोगों के मुंह बंद कर दिए, जो उन्हें कभी गानेवाली कह कर ताने मारा करते थे। साल 1945 तक उन्होंने ख्याल, भजन और ठुमरियों पर आधारित देश भर के अलग-अलग शहरों में कई सार्वजनिक प्रस्तुतियां दीं। वो ऑल इंडिया रेडियो में भी एक नियमित आवाज थीं। इसके अतिरिक्त गंगूबाई भारत के कई उत्सवों-महोत्सवों में गायन के लिये बुलाई जातीं थीं।
(फोटो- सोशल मीडिया)
मुंबई शहर के गणेश उत्सव में उन्हें विशेष रूचि थी। 1945 के बाद गंगूबाई ने उप-शास्त्रीय शैली को छोड़ केवल शुद्ध शास्त्रीय शैली में रागों को ही गाना जारी रखा। शास्त्रीय संगीत में अहम योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण, तानसेन पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
पद्म भूषण मिलने पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दी थी बधाई
पद्म भूषण मिलने के बाद उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और बाबू जगजीवन राम ने बधाई दी। इस घटना का जिक्र करते हुए वो बताती हैं कि मुझे कब किसीने बधाई का टेलीग्राम भेजा था? मैं उठी और जाकर अपने मामा, रमन्ना को जगाया। वे मेरे पास आकर बैठ गए। और हम दोनों ने क्या किया? सुबह होने तक बैठकर रोते रहे।
यह सब संगीत की वजह से था। हम जिस दर्द से गुज़र कर यहाँ तक पहुंचे थे। खुशी का ठिकाना नहीं था पर हम अपने बीते हुए कल के बारे में सोचते रहे। उन्होंने बताया कि इस पुरस्कार के बाद उन्हें कई लोग अपने घर पर आमंत्रित करने लगे। इनमें से कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने आम चुराने पर उस पेड़ को ही अपवित्र मान लिया था।
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