×

नहीं था इस शायर के पास खुद का मकान, कलमों को ठीक कराने भेजते थे न्यूयॉर्क

इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।। रुमानियत, मोहब्बत, नर्म नाजुक शब्दों से सजे गीतों में मशहूर शायर कैफी आजमी की सौंधी महक खुद ब खुद आ जाती है। उनका असली नाम अख्तर हुसैन रिजवी था। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के छोटे से गांव

suman
Published on: 14 Jan 2020 10:06 AM IST
नहीं था इस शायर के पास खुद का मकान, कलमों को ठीक कराने भेजते थे न्यूयॉर्क
X

मुंबई: इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।। रुमानियत, मोहब्बत, नर्म नाजुक शब्दों से सजे गीतों में मशहूर शायर कैफी आजमी की सौंधी महक खुद ब खुद आ जाती है। उनका असली नाम अख्तर हुसैन रिजवी था। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के छोटे से गांव मिजवान में साल 1915 में उनका जन्म हुआ था। अपने दौर के मशहूर शायरों और गीतकारों में एक थे कैफ़ी आज़मी साहब। साल 1936 में साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित हुए और सदस्यता ग्रहण कर ली।

यह पढ़ें....कैफी को गूगल का सलाम, आज अपना ‘डूडल’ किया शायर के नाम

रहे साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित

जब साल 1943 में साम्यवादी दल ने मुंबई में ऑफिस खोला तो उन्हें जिम्मेदारी देकर वहां भेज दिया गया। यहां आकर कैफी ने उर्दू जर्नल मजदूर मोहल्ला का संपादन किया । अपने गांव मिजवान में कैफी ने स्कूल, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस और सड़क बनवाने में भी मदद की है। सादगीपूर्ण व्यक्तित्व वाले कैफी बेहद हंसमुख स्वभाव के थे। यूपी के सुल्तानपुर से फूलपुर सड़क को कैफी मार्ग बनाया गया है। मई 1947 में दो संवेदनशील व्यक्ति शौकत और कैफी ने शादी कर ली।

बुजदिल से मिला मौका

इसके बाद कैफी की भावुक, रोमांटिक और प्रभावी लेखनी को रास्ता मिल गया और वे गीतकार ही नहीं, बल्कि स्क्रिप्ट राइटर भी बन गए। शादी के बाद शौकत ने खेतवाड़ी में पति के साथ ऐसी जगह रहीं जहां टॉयलेट/बाथरूम कॉमन थे। वैसे शौकत एक अमीर घराने की लड़की थी, लेकिन शादी के बाद उन्होंने रिश्ते की गरिमा को बनाए रखा। शबाना आजमी और बाबा आजमी के जन्म के बाद में जुहू स्थित बंगले में वे आए। उन्हें फिल्मों में मौका बुजदिल (1951) से मिला।

यह पढ़ें....दीपिका को करारा झटका: कमाई पर पड़ेगा बुरा असर

शबाना आजमी की नजर से पिता की यादें

एक्ट्रेस शबाना आजमी ने अपने पिता जुड़ी यादों को साझा करते हुए लिखा है कि 'मकान' जैसी नज़्म लिखने वाले कैफ़ी साहब ज़िंदगी भर किराए के मकान में ही रहे, वह कभी अपने लिए एक घर नहीं खरीद सके। उनके बारे में बात करते हुए वे बताती हैं कि उन्हें कलम रखने का बहुत शौक था। अपने पेन को ठीक कराने के लिए विशेष रूप से न्यूयॉर्क के फाउंटेन पेन हॉस्पिटल भेजते थे और वह बड़े प्यार से अपने कलमों को रखते थे। बीच-बीच में उन्हें निकाल कर, पोंछ कर फिर रख देते। शबाना जहां भी जाती उनके लिए कलम जरूर लाती। हर बार उनको कलम ही चाहिए होता। कलमों के प्रति कमाल की दीवानगी थी उनमें।

अपने तरानों को यहां छोड़ कह दिया था अलविदा

साल 1973 में उन्हें ब्रेनहैमरेज से लड़ते हुए जीवन को एक नया दर्शन मिला, बस दूसरों के लिए जीना है जो कैफ़ी आज़मी जीवन भर अपने लिए एक घर नहीं बना सके उन्होंने कई घरों में रौशनी पहुंचाने का काम किया है।अपने गांव मिजवान में कैफी ने स्कूल, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस और सड़क बनवाने में मदद की। 10 मई 2002 को कैफी यह गुनगुनाते हुए इस दुनिया से चल दिए, 'ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं...'



suman

suman

Next Story