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जीवन एक सितारा था, माना वह बहुत प्यारा था- हरिवंश राय बच्चन, एक नजर
छायावाद की अतिशय सुकुमारिता और माधुर्य से, उसकी अतीन्द्रिय और अतिवैयक्तिक सूक्ष्मता और उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकताकर जब उन्होंने सीधी-साधी, जीवंत भाषा और सर्वग्राह्य गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से अपनी बात कहना ये बच्चन जी के काव्य में है।
लखनऊ: हिन्दी साहित्य की वीणा, सीधे सरल शब्दों को कविता के पात्र में डालकर साहित्य रसिकों को काव्य रस चखाने वाले हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने मानव जीवन में प्रेम, सौंदर्य, दर्द, दुख, और मृत्यु को अपने मखमली शब्दों में पिरोकर जिस खूबसूरती से पेश किया है, उसकी कोई और मिसाल हिन्दी साहित्य में नहीं मिलती। वे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में शुमार हैं। छायावाद की अतिशय सुकुमारिता और माधुर्य से, उसकी अतीन्द्रिय और अतिवैयक्तिक सूक्ष्मता और उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकताकर जब उन्होंने सीधी-साधी, जीवंत भाषा और सर्वग्राह्य गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से अपनी बात कहना ये बच्चन जी के काव्य में है।
डॉ. बच्चन अपनी काव्य-यात्रा के आरम्भिक दौर में उमर ख़ैय्याम के जीवन-दर्शन से प्रभावित रहे। उनकी प्रसिद्ध कृति "मधुशाला" उमर ख़ैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित होकर ही लिखी। हालांकि डा. बच्चनजी की 1935 ई. में प्रकाशित "मधुशाला" ने लोकप्रियता के शिखप पर पहुंचा दिया था। "मधुशाला" के साथ ही उनका नाम एक गगनभेदी राकेट की तरह तेज़ी से उठकर साहित्य जगत पर छा गया। "मधुबाला", "मधुशाला" और "मधुकलश"; इन तीनों काव्यसंग्रहों के डा. बच्चन हिन्दी में "हालावाद" के प्रवर्तक बन गये। उमर ख़ैय्याम ने वर्तमान क्षण को जानने, मानने, अपनाने और भली प्रकार इस्तेमाल करने की सीख दी है, और बच्चन जी के "हालावाद" का जीवन-दर्शन भी यही है।
"जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?
परम निर्मल मन से "बच्चन" ने स्वीकार किया है कि
है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनिया
सच में व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज वर्ण़न दुर्लभ है। सामान्य बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रेय निश्चय ही सर्वाधिक "बच्चन" का ही है। इसके अतिरिक्त उनकी लोकप्रियता का एक कारण उनका काव्य पाठ भी रहा है। हिन्दी में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में "बच्चन" का असाधारण योगदान है।
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जीवन परिचय
हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के बाबूपट्टी गांव में हुआ था। और मृत्यु 18 जनवरी 2003 को हुआ था। श्रीवास्तव कायस्थ परिवार में जन्में हरिवंश राय को बचपन में बच्चन कहा जाता था जिसे उन्होंने आगे चलकर अपने नाम के साथ जोड़ लिया। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई उर्दू में की और फिर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। कई सालों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में प्राध्यापक रहे बच्चन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी के कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएचडी पूरी की थी।
वह आकाशवाणी से जुड़े रहे और एक हिंदी विशेषज्ञ के रूप में उन्होंने विदेश मंत्रालय के साथ भी काम किया। हरिवंश राय बच्चन ने हिंदी साहित्य में अद्वितीय योगदान दिया। 'मधुशाला' हरिवंश जी की उन रचनाओं में से है जिसने उनको साहित्य जगत में एक अलग पहचान दिलाई। 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'मधुकलश'- एक के बाद एक तीन संग्रह शीघ्र आए जिन्हें 'हालावाद' का प्रतिनिधिग्रंथ कहा जा सकता है।
हरिवंश राय बच्चन ने 4 आत्मकथा लिखीं थी. कहा जाता है कि उनके अलावा अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी और साहस के साथ किसी ने नहीं लिखा. उनकी पहली आत्मकथा थी- 'क्या भूलूँ , कया याद करूं'. कहने को तो ये एक आत्मकथा थी लेकिन इसमें उस समय के भारत में रहने वाले लोगों के बारे में बहुत कुछ है. उस समय लोगों के बीच में रिश्ते कैसे होते थे, ये सारी चीज़ें उनकी इस आत्मकक्षा में समझने को मिलती हैं.
बच्चन की दूसरी आत्मकथा 'नीड़ का निर्माण फिर', तीसरी आत्मकथा 'बसेरे से दूर' और चौथी 'दशद्वार से सोपान' है। उनकी कृति दो चट्टानें को 1968 में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बच्चन को भारत सरकार द्वारा 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
साथ ही उन्हें उनकी कृति "दो चट्टानें" को 1968 में हिन्दी कविता के लिए "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही वे "सोवियत लैंड नेह डिग्री पुरस्कार" तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के "कमल पुरस्कार" से भी सम्मानित हुए। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें "सरस्वती सम्मान" दिया।
बच्चन जी की कविताओं की कुछ पंक्तियां...
मिट्टी का तन मस्ती का मन...
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी
है पड़ा मुझे बनना प्याला
होना मदिरा का अभिमानी
संघर्ष यहां कितना किससे
यह तो सब खेल तमाशा है
वह देख, यवनिका गिरती है
समझा, कुछ अपनी नादानी !
छिपे जाएंगे हम दोनों ही
लेकर अपने अपने आशय
मिट्टी का तन, मस्ती का मन
क्षणभर, जीवन मेरा परिचय।
......
मृदु भावों के अंगूरों की
आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से
आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा,
फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत
करती मेरी मधुशाला
अपने युवाकाल में आदर्शों और स्वप्नों के भग्नावशेषों के बीच से गुजर रहे बच्चन जी ने पढ़ाई छोड़कर अपनी कलम से राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी भी की-
इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
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नीड़ का निर्माण फिर" से उन्होंने जीवन के इस नये मोड़ पर फिर आत्म-साक्षात्कार किया-
"जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?
परम निर्मल मन से "बच्चन" ने स्वीकार किया है कि
है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनिया
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूं इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलाने में भूला
इसी तरह महाप्राण निराला के देहांत के पश्चात उनके मृत शरीर को देखकर हरिवंशराय बच्चन की लिखी कविता "मरण काले" देखिए-
मरा
मैंने गरुड़ देखा,
गगन का अभिमान,
धराशायी,धूलि धूसर, म्लान!