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प्रधानमंत्री मोदी ने चलाया एक अभेद तीर, निशाने कई
योगेश मिश्र
‘मोदी ने कालेधन के खिलाफ ऐतिहासिक कार्रवाई में एक साथ कई निशानों पर गहरी चोट की है। इन निशानों में काले धन पर फल फूल रही राजनीतिक-चुनावी व्यवस्था भी है।’
आमतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक तीर से कई निशाने साधते हैं। घरेलू मोर्चे पर कालेधन के खिलाफ उनके अभियान में भी ऐसा ही है। इस अभियान का एक निशाना राजनीतिक दल भी हैं। लंबे समय से चुनाव में कालेधन को रोकने की निर्वाचन आयोग और स्वयंसेवी संगठनों की कोशिश को नरेंद्र मोदी ने अपने इस फैसले के मार्फत अमली जामा भी पहना दिया है। शायद यही वजह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती को नरेंद्र मोदी के इस फैसले पर आनन फानन में एक प्रेस कंाफ्रेंस बुलानी पड़ी। उसमें उन्होंने जो कुछ कहा उसमें भले ही वह मोदी को घेर रही थीं, गरीबों का पक्ष रख रही थीं पर पर उनकी आवाज में न दम था न तर्क। वहीं सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने पत्रकारों से बातचीत में मोदी की आलोचना की और कहा कि समाजवादी काले धन के खिलाफ लड़ाई लंबे समय से लड़ते आ रहे हैं पर इस फैसले से महिलाओं का भविष्य अंधकारमय हो गया है, किसान-व्यापारी परेशान हो रहे हैं और अर्थव्यवस्था ठप हो गयी है। आमतौर पर धुर विरोधी मुलायम और मायावती ने सुर में सुर मिलाया। कहा, आपातकाल सरीखी स्थिति है।
बीते मंगलवार की रात आए फैसले के बाद बसपा में काफी सक्रियता देखी गयी। उत्तर प्रदेश ही नहीं बिहार, बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, पंजाब, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना जैसे तमाम क्षेत्रीय दलों के कार्यालयों और हाईकमान के घरों पर भी लोगों की आवाजाही तेज हो गयी।
चुनाव मैदान में सिर्फ 16 फीसदी खांटी राजनीतिक लोग
यह एक दिलचस्प आंकड़ा है कि उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में सिर्फ 16 फीसदी खांटी राजनीतिक लोग चुनाव मैदान में उतरेंगे। सभी राजनीतिक दलों ने 21 फीसदी ठेकेदार, 18 फीसदी बिल्डर, 17 फीसदी स्कूल कारोबारियों, 13 फीसदी खनन व्यवसाइयों और 15 फीसदी चिट फंड कंपनी संचालकों को माननीय बनने का मौका देने का फैसला किया है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) के यह आंकड़े सिर्फ 60 विधानसभाओं के सर्वे पर आधारित हैं। अगर पूरे सूबे में इसकी पड़ताल करें तो नतीजे और भी डरावने होंगे।
2014 के लोकसभा चुनाव में एक आंकड़े के मुताबिक 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। लोकसभा सीट के आधार पर यह आंकड़ा प्रति सीट औसतन 55 करोड़ रुपये बैठता है। हालांकि चुनाव आयोग को मिले दस्तावेज में यह धनराशि 7-8 हजार करोड़ रुपये बैठती है। आयोग का यह आंकड़ा इस लिए भी सच से कोसों दूर कहा जाएगा क्योंकि हाल में सम्पन्न हुए तमिलनाडु चुनाव में तकरीबन 5,000 करोड़ रुपये स्वाहा हुए। 235 सीटों वाले इस विधानसभा चुनाव के दौरान 200 करोड़ रुपये तो आयोग ने कैश जब्त किए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचन आयोग ने 330 करोड़ रुपये जब्त किए थे।
500 करोड़ से अधिक काला धन का इस्तेमाल हुआ
चुनाव में धन के महत्व का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव से 9 महीने पहले तक अकेले उत्तर प्रदेश के बैंकों से औसतन 32 अरब रुपये रोजाना निकाले गये और 23 अरब रुपये जमा किए गये। जबकि आमतौर पर यह आंकड़ा निकालने का 20 अरब रुपये और जमा करने का 18 अरब रुपये होता है। कालेधन की रोकथाम के लिए गठित फाइनेंशियल इंटेलीजेंस यूनिट (एफआईयू) ने बीते लोकसभा चुनाव के समय यह खुलासा किया था कि टिकट लेने देने, शक्ति प्रदर्शन करने और नेताओं - कार्यकर्ताओं और जनता को खुश करने के मद में 500 करोड़ से अधिक का काला धन इस्तेमाल हुआ। उत्तर प्रदेश के छोटे-बड़े 29 दलों के 2200 नेताओं के खातों से किए गए लेनदेन ने इस खुफिया एजेंसी के होश फाख्ता कर दिए। कहा तो यह भी जाता है कि देश का सियासी चुनाव बिना कालेधन के संपन्न ही नहीं हो सकता। कालाधन राजनीतिक दलों का मेरुदंड हो गया है।
क्षेत्रीय क्षत्रपों के विकास में कालेधन की भूमिका मतदाताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है। पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनावों में टिकट बेचने का सिलसिला ‘नोट के बदले वोट’ तक पहुंच गया है। सांसदों के बिकने की कहानी से भी संसद शर्मसार हो चुकी है। वर्ष 2004 से 2013 तक के 9 वर्षों में राजनैतिक दलों को अज्ञात स्रोतों से 4368 करोड़ रुपये मिले हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय दलों को तकरीबन 381 करोड़ रुपये दान से मिले जिसका स्रोत नहीं बताया गया। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतक दलों की कुल आय का तकरीबन 73 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से है। 2004, 2009, 2014 के चुनाव में राजनीतिक दलों के चेक के जरिए तरीबन 1300 करोड़ रुपये चंदा मिला जबकि 1039 करोड़ रुपये उन्हें नकद रूप में हासिल हुए।
अर्थतंत्र पर सीधी चोट
मोदी को कालेधन के इस राजनीतिक अर्थतंत्र का भान है। उन्हें यह भी पता है कि क्षेत्रीय दलों के लोकतांत्रिक मजबूती का आधार का हिस्सा भी यह धनराशि है। उन्हें कोई भी राष्ट्रीय पार्टी चुनौती देते नजर नहीं आ रही है। कांग्रेस के खिलाफ मोदी निरंतर जीत हासिल कर रहे हैं। उन्हें जहां-जहां पराजय हासिल हुई है वहां वह क्षेत्रीय दलों से सीधी लड़ाई में फंस गये थे। कम्युनिस्ट अपना अस्तित्व खो चुके हैं। ऐसे में अगर मोदी ने ऐसे दलों आधार बनी इस ‘काली’ राशि पर हमला किया तो स्वाभाविक है कि अर्थ से चल रही राजनीति में उन्हें अपने बढ़ते वजूद का एहसास होना स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश में वह सपा और बसपा के खिलाफ लड़ेंगे। पंजाब में कांग्रेस और ‘आप’ के खिलाफ उनकी लड़ाई है। मणिपुर में उन्हें कांग्रेस के अलावा तृणमूल कांग्रेस से भी मुकाबिल होना है। गोवा में आम आदमी पार्टी, महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी, गोवा विकास पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी दो-दो हाथ करना है। उत्तराखंड में कांग्रेस के अलावा उक्रांद से भी लडऩा होगा। इस लड़ाई में अब नया हथियार मैदान में आ गया है।