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टीचर्स डे पर विशेष : शिक्षक की गोद में खेलते हैं निर्माण और विनाश

भारत भूमि में ज्ञान का दीपक जलाने वाली अनेक विभूतियों में जन्म लिया; हमारे राष्ट्र के शिक्षा केंद्र सदियों से विश्व में सद्ज्ञान का आलोक बिखेरते रहे हैं।

tiwarishalini
Published on: 4 Sep 2017 8:30 PM GMT
टीचर्स डे पर विशेष : शिक्षक की गोद में खेलते हैं निर्माण और विनाश
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टीचर्स डे पर विशेष : शिक्षक की गोद में खेलते हैं निर्माण और विनाश

पूनम नेगी

भारत भूमि में ज्ञान का दीपक जलाने वाली अनेक विभूतियों में जन्म लिया; हमारे राष्ट्र के शिक्षा केंद्र सदियों से विश्व में सद्ज्ञान का आलोक बिखेरते रहे हैं। हमारे महान आचार्यों, गुरुओं व शिक्षकों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमारा मार्गदर्शन किया है। विश्व में एकमात्र भारत ही ऐसा देश है जिसने "बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय" कहकर गुरु को भगवान से भी ऊंचा दर्जा दिया है।

इतिहास साक्षी है कि हमारी धरती ने जब भी ज्ञान, विज्ञान, उन्नति व समृद्धि के महानतम शिखरों को छुआ तो उसके पीछे किसी ना किसी सद्गुरु की शिक्षा व मार्गदर्शन ही था। फिर चाहे वो पौराणिक काल के श्रीराम व कृष्ण हों; अखंड भारत के चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य हो या छत्रपति शिवाजी।

गुरु-शिष्य की अहमियत को उजागर करने वाला एक रोचक प्रसंग विश्व विजेता सिकंदर और उसके गुरु अरस्तु के जीवन का है। एक बार एक उफनायी तूफानी नदी पार करने सिकंदर और अरस्तु साथ खड़े थे। अरस्तु ने कहा पहले मैं नदी पार कर दूसरे किनारे पहुंच जाऊं तब तुम पार करना क्योंकि यदि कोई खतरा होगा कम से कम देश का सम्राट तो बच जाएगा। इस पर सिकंदर उत्तर दिया। नहीं! नदी पहले मैं ही पार करूंगा गुरुदेव क्योंकि मैं जानता हूं कि यदि मुझे कुछ भी हो जाएगा तो महान अरस्तु में मुझसे ज्यादा बेहतर सिकंदर बनाने की क्षमता विद्यमान है किन्तु गुरु की अनुपस्थिति में राष्ट्र बिखर जाएगा उसकी आत्मा चली जाएगी।

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कहा जाता है कि सिकंदर जब विश्वविजय के लिए निकला तो उसके गुरु अरस्तु ने कहा था, "भारत में अनेक शिक्षक हैं; उनमे एक महान शिक्षक है विष्णुगुप्त यानी चाणक्य। वह काला ब्राह्मण प्रकाश पुंज बन कर भारत की धरा को आलोकित कर रहे हैं। विनाश और निर्माण उसकी गोद में खेला करते है, तुम्हें उससे बचना होगा! "शिक्षक की महत्ता से जुड़ा ऐसा ही एक शिक्षाप्रद वाकया मुगल काल का भी है।

कहा जाता है कि क्रूर मुगल बादशाह ने जब अपने पिता शाहजहाँ को बंदी बनाकर कैदखाने डाला तो उसने अपने पिता से कहा कि कोई तीन चीजें जिनसे तुम्हारी जरूरत पूरी होती हो, मांग लो। तब शाहजहाँ ने कहा- मुझे खाने के लिए चने, पीने के लिए पानी और काम करने के लिए शिक्षण कार्य दे दो। इस मांग पर औरंगजेब कुटिलता से मुस्कुराया और कहा पहली दो चीजें मैं तुम्हें देता हूँ लेकिन शिक्षा देने का कार्य यदि मैंने तुम्हें दिया तो आने वाले दिनों में औरंगजेब कैद में होगा और शाहजहाँ अपने सिंहासन पर।

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन कहते हैं, "शिक्षक मनुष्य जीवन में अनेक संभावनाओं के द्वार खोलता है। शिक्षक तब गौरवशाली होता है जब उसके ज्ञान के आलोक में राष्ट्र का गौरव बढ़ता है और राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों, राष्ट्र की संस्कृति व उत्कृष्ट परम्पराओं को नवजीवन देता है। कोई भी राष्ट्र तब सफल होता हैं जब उसका शिक्षक अपने उत्तरदायित्वों का; अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन करता है। वही शिक्षक सफल माना जाता है जब वह अपने विद्यार्थियों में चरित्र निर्माण, राष्ट्रीयता, करुणा, संवेदनशीलता व सहभागिता का निर्माण करने में सफल होता है।

एक बार डॉ. राधाकृष्णन विदेश में दर्शनशास्त्र पर भाषण देने गये हुए थे। भोज के समय एक अँग्रेज ने भारतीयों पर व्यंग्य करते हुए डॉ. राधाकृष्णन से कहा - हिन्दू संस्कृति कोई संस्कृति है? कोई गोरा है, कोई काला, कोई बौना है, कोई टोपी पहनता है तो कोई पायजामा। हमें देखिए हम सभी गोरे-गोरे, लाल-लाल। इस पर डॉ. राधाकृष्णन तपाक से बोले- ठीक कहते हैं आप। घोड़े सभी अलग-अलग रंगों के होते हैं जबकि गधे सारे एक ही रंग। अलग-अलग रंग एवं पहनावा तो विकास की निशानी है। ऐसा था उनका राष्ट्रप्रेम और हाजिरजवाबी।

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शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन योगदान निश्चय ही अविस्मरणीय है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी हमारे पूर्व राष्ट्रपति एक जाने-माने विद्वान, प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक, सफल राजनयिक होने के साथ एक बेहद लोकप्रिय शिक्षक भी थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में आजीवन सतत योगदान करते रहे। उनका कहना था कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व होता है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी होना काफी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में संतुलित बौद्धिक विकास और लोकतांत्रिक भावना बहुत जरूरी है। यही गुण व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का मूल लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य है।

वे कहते थे कि शिक्षक जब तक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षों तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान,सहृदय व धैर्यवान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।

सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है। शिक्षक का काम है ज्ञान को एकत्र करना या प्राप्त करना और फिर उसे बांटना। उसे ज्ञान का दीपक बनकर चारों तरफ अपना प्रकाश विकीर्ण करना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हंसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।

साल 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनका जन्मदिन मनाने की इच्छा जाहिर की। डा. राधाकृष्णन ने कहा कि यदि आप मेरे जन्मदिन को "शिक्षक दिवस" के रूप में मनाएंगे तो मैं खुद को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा.राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, व संस्कृतिक मूल्यों को विकसित करने की टकसाल के रूप में गढ़ना चाहते थे। यह डा. राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे। हालांकि आजादी के बाद बीते कुछ वर्षों में शिक्षा के व्यावसायीकरण के बाद से शिक्षक-शिष्य की पुरातन समृद्ध परम्परा में तमाम बदलाव आ चुके हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो शिक्षक-शिष्य की परंपरा कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। तमाम जागरूकता के बाद भी जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। नैतिक मर्यादायें तोड़कर शिक्षकों के अश्लील कार्यों में लिप्त होने घटनाएं भी आम हैं। घोर व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है।

संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। शिक्षण संस्थाएं केवल डिग्रीधारक पैदा करने की मशीन हो गयी हैं। आज नौकरी पाने की शैक्षणिक योग्यता तय कर दी गई है कि यदि आप ग्रेजुएट हैं तभी यह फॉर्म भर सकते हैं और पोस्ट ग्रेजुएट हैं तभी इस पद के योग्य हैं। इस बात की कोई गारंटी है कि आपके पास यह डिग्री है तो आप इस पद के लिए योग्य हों ही? इन डिग्रीधारियों की शैक्षिक गुणवत्ता भी सबके समाने उजागर है।

ऐसे में जरूरत है कि शिक्षक और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके। 21वीं सदी के डेढ दशक बाद आज हमारा समाज जिस उत्तर आधुनिकता के दरवाजे पर खड़ा है, उसमें यह बात यह शिद्दत से महसूस की जा रही है कि मानसिक जड़ता को मिटाने के लिए एक नयी बौद्धिक व्यवस्था की जरूरत है। पिछले एक दशक से यह आवाज जोर पकड़ने लगी है कि वास्तविक रूप में समाज के सभी अंगों में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एक नयी शिक्षा क्रांति की जरूरत है।

शिक्षा के संदर्भ में भवानी प्रसाद मिश्र की यह पंक्तिया वाकई प्रेरक हैं, "कुछ लिखकर सो कुछ पढ़कर सो, जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से बढ़कर सो।" आधुनिक प्रगतिवादी मान्यताओं में उस जगह से बढ़कर सो-के विचार यानी कर्म प्रधानता को भारतीय शिक्षा के बुनियादी विचार से पूरी तरह अलग कर दिया गया। प्राचीन भारत में शिक्षा के चार स्तर थे-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्राचीन भारत की शिक्षा मोक्ष का मार्ग थी, लेकिन आज की शिक्षा भोग का मार्ग है। भोग का मार्ग बनने में कोई बुराई नहीं है मगर भोग का मार्ग किस तरह बनाया जा रहा है और किन शर्तों पर, यह सवाल जरूर विचारणीय है।

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