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खतरनाक संकेत है असम में बंगालियों की हत्या

raghvendra
Published on: 10 Nov 2018 7:01 AM GMT
खतरनाक संकेत है असम में बंगालियों की हत्या
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गुवाहाटी: असम के तिनसुकिया जिले में उल्फा के संदिग्ध उग्रवादियों द्वारा बांग्ला मूल के कम से कम पांच लोगों की हत्या से राज्य में उग्रवाद फिर पनपने के संकेत हैं। समझा जाता है कि इस हत्या में उल्फा के परेश बरूआ की अगुवाई वाले बातचीत विरोधी स्वाधीन गुट का हाथ है।

नब्बे के दशक में उग्रवाद के शीर्ष पर रहे असम में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा उग्रवादियों द्वारा बंगाली मूल के लोगों की हत्या एक खतरनाक संकेत है। इससे राज्य में जातीय संघर्ष और पलायन एक बार फिर तेज होने का खतरा भी बढ़ गया है। नब्बे के दशक में भी उल्फा ने हिंदी भाषियों पर काफी हमले किए थे और तब राज्य के हजारों लोगों ने भाग कर पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती शहर सिलीगुड़ी में शरण ली थी। वैसे भी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) और नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 के मुद्दे पर असमिया व बंगाली तबके के लोगों में हाल के महीनों में खाई लगातार बढ़ी है। ताजा घटना को इसी की कड़ी माना जा रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी यही सवाल उठाया है। उल्फा ने हालांकि इन हत्याओं में अपना हाथ होने से इंकार कर दिया है, लेकिन उसका दावा है कि यह घटना नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिए एनआरसी को पटरी से उतारने के बीजेपी सरकार के प्रयासों के खिलाफ पनपते असंतोष का नतीजा हो सकती है।

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असम में एनआरसी के अंतिम मसौदे से लगभग 40 लाख नाम बाहर होने के बाद से ही इस मुद्दे पर विवाद चल रहा है। इनमें लाखों बंगालियों के नाम भी शामिल हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शुरू से ही आरोप लगाती रही हैं कि एनआरसी का मकसद असम में दशकों से रहने वाले बंगालियों और बिहारियों को खदेडऩा है। ममता ने इस हमले की कड़ी निंदा करते हुए सवाल किया है कि कहीं यह एनआरसी को लेकर उपजे ताजा विवाद का नतीजा तो नहीं है।

केंद्र की ओर से प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 के मुद्दे पर राज्य में विभिन्न संगठनों की नाराजगी लगातार बढ़ रही है। 45 संगठनों ने इस मुद्दे पर अक्तूबर के आखिरी सप्ताह में 12 घंटे असम बंद रखा था। कांग्रेस और ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे राजनीतिक दलों ने भी उस बंद का समर्थन किया था। इस विधेयक में अफगानिस्तान, पाकिस्तान व बांग्लादेश से आने वाले ईसाई, बौद्ध और हिंदू लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. लेकिन राज्य के ताकतवर छात्र संगठन आसू समेत कई अन्य संगठनों की दलील है कि एनआरसी की कवायद को पटरी से उतारने के लिए ही भाजपा इस विधेयक को पारित करने पर जोर दे रही है। इससे एनआरसी की पूरी कवायद ही बेमतलब हो जाएगी। लेकिन बीजेपी नेताओं की दलील है कि हिंदू अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना ही इसका एकमात्र मकसद है और एनआरसी से इसका कोई लेना-देना नहीं है।

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अब संसद के शीतकालीन अधिवेशन के दौरान इस विधेयक को पारित करने की सरकार की कोशिशों के खिलाफ राज्य में तमाम संगठन लामबंद हो रहे हैं। इस मुद्दे पर स्थानीय बनाम बाहरी लोगों का मुद्दा भी तूल पकड़ रहा है। उल्फा ने भी अपने बयान में इसी बात का संकेत किया है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर एनआरसी और नागरिकता विधेयक ही इन हत्याओं की वजह है तो यह एक खतरनाक संकेत है। इस हत्याकांड से बंगाली समुदाय के लोगों में पलायन बढऩे का अंदेशा है। अगर सरकार ने हालात पर काबू पाने का प्रयास नहीं किया तो असम एक बार फिर जातीय हिंसा की आंच में झुलस सकता है।

1979 में पैदा हुआ था उल्फा

वर्ष 1979 में असम में ‘बाहरी’ लोगों को खदेडऩे के लिए एक आंदोलन चरम पर था। इस आंदोलन के पीछे ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन नाम का संगठन था। उसी समय परेश बरुआ ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर 7 अप्रैल, 1979 को ‘उल्फा’ (युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम) की शिवसागर में स्थापना की। परेश बरुआ के अन्य साथी राजीव राज कंवर उर्फ अरबिंद राजखोवा, गोलाप बरुआ उर्फ अनुप चेतिया, समीरन गोगोई उर्फ प्रदीप गोगोई और भद्रेश्वर गोहैन थे। उल्फा की स्थापना का मकसद सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से असम को एक स्वायत्त और संप्रभु राज्य बनाना था। 1986 तक गुपचुप तरीके से उल्फा काम करता रहा। इस बीच इसने काडरों की भर्ती जारी रखी। फिर इसने प्रशिक्षण और हथियार खरीदने के मकसद से म्यांमार काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (केआईए) और नैशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) से संपर्क स्थापित किया। इन दोनों संगठनों के संपर्क में आने के बाद उल्फा का खूनी खेल शुरू हो गया। काडर की ट्रेनिंग और हथियार खरीदने के लिए अपहरण और वसूली का धंधा शुरू किया गया। यहां तक कि गैर असमी रेलकर्मियों तक से वेतन का एक हिस्सा उल्फा को देने का फरमान जारी किया गया। गैर असमिया लोगों से बेतहाशा वसूली की जानी लगी।

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चाय बागानों से भी वसूली करना शुरू कर दिया और उल्फा की मांग न मानने की स्थिति में लोगों की हत्या कर दी जाती। उल्फा ने बड़ी संख्या में असम के बाहर से आए लोगों की हत्या की ताकि लोग भयभीत होकर राज्य छोडक़र चले जाएं। इसने असम के तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ जिलों में उल्फा ने अपने शिविर स्थापित किए। जब उल्फा की हिंसक गतिविधि काफी बढ़ गईं तो 1990 में केंद्र सरकार ने उल्फा पर प्रतिबंध लगा दिया और इसके खिलाफ सैन्य अभियान शुरू किए। 1998 के बाद से बड़ी संख्या में उल्फा के सदस्यों ने आत्मसमर्पण कर दिया और संगठन के सक्रिय आतंकी भूटान, बर्मा और बांग्लादेश के शिविरों में रह गए।

भारतीय सेना के सूत्रों के मुताबिक, साल 2005 तक उल्फा के पास 3,000 आतंकियों का गिरोह था। वैसे अन्य स्रोतों के मुताबिक, उल्फा के आतंकियों की संख्या 4,000 से 6,000 थी। 16 मार्च, 1996 को उल्फा के सैन्य अंग संजुक्त मुक्ति फौज (एसएमएफ) का गठन किया। इसने कई बटालियन बना रखी थी और हर बटालियन के जिम्मे असम के अलग-अलग जिले थे।

अरविंद राजखोवा उल्फा का कमांडर इन चीफ, परेश बरूआ चेयरमैन जबकि प्रदीप गोगोई उपाध्यक्ष था। प्रदीप गोगोई को 8 अप्रैल, 1998 को गिरफ्तार किया गया और तब से अब तक गुवाहाटी में न्यायिक हिरासत में है। उल्फा का महसाचिव अनुप चेतिया को 7 दिसंबर, 1997 को ढाका (बांग्लादेश) में गिरफ्तार किया गया था। तब से वह ढाका की उच्च सुरक्षा वाली सेंट्रल जेल में बंद है। 4 दिसबर, 2009 को राजखोवा और उसके ‘डिप्टी कमांडर इन चीफ’ राजू बरूआ को सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने गिरफ्तार किया। अब वह असम पुलिस की हिरासत में है। चितरंजन बरुआ के जिम्मे वित्तीय मामले, शशाधर चौधरी के पास विदेशी मामले और मतिंगा के पास प्रचार सचिवालय था।

देश के अंदर कई आतंकी संगठनों से उल्फा के संपर्क थे। असम के अन्य आतंकी संगठन नैशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट बोडोलैंड (एनडीएफबी) से इसके करीबी संपर्क थे। दोनों संगठन ने भूटान में अपने शिविर स्थापित किए थे। इसका संबंध मुस्लिम यूनाइटेड लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ असम (मुल्टा) से भी है। इसके संपर्क विदेशी आतंकी संगठनों से भी रहे हैं। म्यांमार के काचिन इंडिपेंडेस आर्मी के बारे में रिपोर्ट है कि उसने उल्फा के सदस्यों को प्रशिक्षण दिया। रिपोर्ट्स के मुताबिक, उल्फा ने ‘मुस्लिम यूनाइटेड टाइगर्स ऑफ असम’ और ‘मुस्लिम यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असम’ की मदद से भारत में हथियारों की तस्करी की। हथियार बांग्लादेश के रास्ते उल्फा के पास आते थे। उसके पाकिस्तान की आईएसआई और अफगान मुजाहिदीन से भी संपर्क की बातें सामने आई। रिपोर्ट के मुताबिक, उसने अपने 200 सदस्यों को खुफिया प्रतिरोध और अत्याधुनिक हथियार तथा विस्फोटक चलाने का प्रशिक्षण दिलाया।

उल्फा के सरेंडर करने वाले काडरों को सुल्फा के नाम से जाना गया। ये काडर उल्फा से लड़ाई में देश के लिए काफी उपयोगी साबित हुए। असम के पूर्व मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने उल्फा में दरार डालने में अहम भूमिका निभाई थी।

21 लोग कर चुके हैं सुसाइड

असम में हिंसा फिर सिर उठा रही है, लेकिन दूसरे स्वरूप में। आपस में ही मारकाट मची हुई है। एक अनुमान के अनुसार एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स से संबंधित आत्महत्याएं हो रही हैं। २०१५ से अब तक अब तक २१ लोग सुसाइड कर चुके हैं। रजिस्टर में जिनके नाम नहीं हैं या जो लोग ‘डी वोटर’ या संदिग्ध वोटर हैं तलवार उन्हीं पर लटकी हुई है। लोगों में विदेशी करार दिए जाने और बंदी कैम्प में भेजे जाने की जबर्दस्त दहशत है। इस साल सितम्बर में पश्चिम असम के बक्सा जिले के एक गांव में ३२ वर्षीय बिनय चंद ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। उसकी ७२ वर्षीय मां ‘डी वोटर’ करार दी गई थी। उदालगुड़ी में ४९ वर्षीय दीपक देबनाथ ने आत्महत्या कर ली थी। बताया जाता है कि विदेशी न्यायाधिकरण ने दीपक से अपनी नागरिकता साबित करने को कहा था जिसके बाद से वह डिप्रेशन में चला गया था। मंगलदोई जिले के ७४ वर्षीय वकील निरोद बरन दास ने फांसी लगा ली। अपना नाम एनआरसी से नदारद होने पर वह परेशान था।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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