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Assamese Literature: असमिया साहित्य की विभूति इंदिरा गोस्वामी, साहित्य को दर्प होना चाहिए

Assamese Literature: श्रेष्ठ असमिया साहित्यकार मामोनी अर्थात इंदिरा गोस्वामी को बाइदेउ (बड़ी दीदी) भी कहा जाता है। उनका जन्म 14 नवम्बर, 1942 को एक पारम्परिक वैष्णव परिवार में हुआ, जो दक्षिण कामरूप के अमरंगा में एक सत्र का स्वामी था।

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Newstrack Network
Published on: 7 Dec 2023 8:00 AM IST (Updated on: 7 Dec 2023 8:01 AM IST)
Assamese literature legend Ms. Indira Goswami ji, literature should be a Darp
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असमिया साहित्य की विभूति सुश्री इंदिरा गोस्वामी जी: Photo- Social Media

Assamese Literature: श्रेष्ठ असमिया साहित्यकार मामोनी अर्थात इंदिरा गोस्वामी को बाइदेउ (बड़ी दीदी) भी कहा जाता है। उनका जन्म 14 नवम्बर, 1942 को एक पारम्परिक वैष्णव परिवार में हुआ, जो दक्षिण कामरूप के अमरंगा में एक सत्र का स्वामी था। उनके उच्च शिक्षाधिकारी पिता उमाकांत गोस्वामी शिलांग में कार्यरत थे।

अतः प्राथमिक शिक्षा वहीं पाकर उन्होंने गुवाहाटी से असमिया में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। उनकी जन्मकुंडली देखकर ज्योतिषी ने उसे ब्रह्मपुत्र में बहा देने को कहा था; पर उनकी माँ इसके लिए तैयार नहीं हुई। मामोनी का बचपन वैष्णव सत्र में बीता था। उन्होंने वहाँ धार्मिक वातावरण के बीच फैली अव्यवस्था को देखा था।

अतः उनका मन इनके प्रति विद्रोही हो गया। इसका प्रभाव उनके लेखन पर सर्वत्र दिखाई देता है। कक्षा आठ में लिखी गयी उनकी पहली लघुकथा का शीर्षक भी ‘संघर्ष-संघर्ष-संघर्ष’ ही था। श्रीमती इंदिरा गोस्वामी जीवन को अपने हिसाब से जीना चाहती थीं; पर घर का वातावरण इसकी अनुमति नहीं देता था। इससे उनके मन का विद्रोह बढ़ता चला गया।

विवाह के डेढ़ साल बाद ही पति की दुर्घटना में मृत्यु

1965 में इन्होंने कश्मीर में कार्यरत अभियन्ता माधवन रायसम आयंगार से प्रेम विवाह किया। इस अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह का परिवार और समाज ने बहुत विरोध किया। दुर्भाग्यवश विवाह के डेढ़ साल बाद ही उनके पति की एक जीप दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। इससे ये विक्षिप्त सी हो गयीं; पर फिर इन्होंने स्वयं को शोधकार्य तथा रचनात्मक लेखन में डुबा दिया।

पति के निधन के बाद वे वापस असम आकर गोलपाड़ा के सैनिक स्कूल में पढ़ाने लगीं। शोधकार्य के लिए जब वे वृन्दावन आयीं, तो वहाँ रह रही विधवाओं के जीवन के कटु यथार्थ से उनका परिचय हुआ। इसकी पृष्ठभूमि पर उन्होंने बहुचर्चित उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ लिखा। उनके पहले उपन्यास ‘चिनावर स्रोत’ में कश्मीर में कार्यरत मजदूरों की व्यथा-कथा दर्शायी गयी है।

‘अहिरन’ तथा ‘जंग लगी तलवार’ भी मजदूरों के शोषण पर आधारित उपन्यास हैं। उनके सभी पात्र तथा घटनाएँ कहीं न कहीं सत्य को स्पर्श करते हैं। 'छिन्नमस्ता’ में कामाख्या मंदिर में होने वाली पशुबलि का विरोध करने पर उन्हें हत्या की धमकी दी गयी; पर वे अपने विचारों से पीछे नहीं हटीं।

वे कहती थीं कि जैसे दर्पण चेहरे की सुंदरता और असुंदरता दोनों दिखाता है, ऐसे ही साहित्य भी समाज के दोनों पक्ष प्रस्तुत करता है। इसका स्वागत होना चाहिए, विरोध नहीं। असम के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया। असम में लम्बे समय तक हिंसा का वातावरण रहा है। वहाँ की मूल निवासी होने के कारण इंदिरा गोस्वामी का मन इससे बहुत दु:खता था।

उग्रवादियों की बात को ठीक से समझने के लिए वे उनके गुप्त केन्द्रों पर गयीं। आँखों पर पट्टी बाँध कर उन्हें वहाँ ले जाया जाता था। उन्होंने दोनों पक्षों को वार्ता की मेज पर बैठाया। उनका स्पष्ट मत था कि हिंसा किसी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। इस विषय पर भी उन्होंने ‘यात्रा’ नामक उपन्यास लिखा।

आत्मकथा

श्रीमती इंदिरा गोस्वामी जी को देश और विदेश में अपने लेखन व सामाजिक काम के लिए पदम्श्री तथा ज्ञानपीठ सहित सैकड़ों पुरस्कार मिले। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बनीं। ‘आधा लिखा दस्तावेज’ उनकी आत्मकथा है। 29 नवम्बर, 2011 को गुवाहाटी में असम साहित्य की इस सजग, संवेदनशील और सामाजिक रूप से सक्रिय विभूति का देहावसान हुआ।

(संदर्भ :- समकालीन पत्र-पत्रिकाएँ व अंतरजाल सेवा आदि से उद्धृत)



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Shashi kant gautam

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