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प्रो-एक्टिव मोड में बिहार, जहां मिलेगा भाव, वहां से खेलेंगे दांव
अभी उथलपुथल नहीं कहेंगे। फिलहाल गुत्थमगुत्थी चल रही है बिहार की राजनीति में। कोई पाला नहीं बदल रहा। कभी अपने दल तो कभी सामने वाले के साथ गुत्थमगुत्थी हो रही है। हां, उथलपुथल की तैयारी जरूर है। और, इस उथलपुथल के लिए सभी को इंतजार है अपने सही भाव का। सही भाव या यूं कहें मनमाफिक भाव का।
शिशिर कुमार सिन्हा
पटना। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कैबिनेट ने बिहार सरकार को आउसोर्सिंग के जरिए मानव संसाधन मुहैया कराने वाली कंपनियों को भी आरक्षण लागू करने का फरमान सुनाया है। एक तरफ हाईकोर्ट में नियोजित शिक्षकों को समान काम के लिए समान वेतन के मुद्दे पर राज्य सरकार की हार और दूसरी तरफ अचानक यह फैसला! वजह? सरकार इसे वक्त की जरूरत बता रही है। तर्क यह कि ज्यादातर सेवाओं में आउटसोर्सिंग से काम कराया जा रहा है, इसलिए यह फैसला लिया गया। लेकिन, राजनीतिक मायने अलग निकाले जा रहे हैं इस फैसले के।
नीतीश को ठीक से समझने वाले मानते हैं कि विपक्षी दलों के दलित-दांव को एक झटके में पलटने के लिए कैबिनेट ने यह फैसला दिया है। जनता दल (यू) के दो मजबूत नेताओं के दलित संबंधित बयान ने राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष को ऑक्सीजन दिया और वह सरकार का दम फुलाने में जुट गए। जदयू के यह दो नेता भी अचानक इस मोड में क्यों आए, इसके पीछे भी भाव की खोज ही कारण है।
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कभी भी दिख सकता है बदला समीकरण
बिहार में फिलहाल चल रही गुत्थमगुत्थी को देखकर लालू पुत्र और पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने बिहार सरकार को खतरे में बता दिया तो लालू प्रसाद ने गुजरात चुनाव के बहाने दो कदम आगे बढक़र नीतीश सरकार के ज्यादा नहीं टिकने का बयान दे दिया। लेकिन, ‘अपना भारत’ की राजनीतिक पड़ताल यह साफ-साफ देख रही है कि राजनीतिक गुत्थमगुत्थी भले उठापटक में बदल जाए, लेकिन फिलहाल बिहार की नीतीश सरकार पर दूर-दूर तक खतरा नहीं है। उलटा, जदयू के मजबूत होने के आसार हैं।
एक मजबूत दल में टूट की पटकथा कई महीनों से रची जा रही है। वह पर्दा इस महीने गिरा तो जदयू मजबूत ही होगा। यह नई स्थिति कभी भी सामने आ सकती है। यानी, नवंबर निर्णायक महीना हो सकता है बिहार की राजनीति में उलटपुलट के लिहाज से। और अगर ऐसा हुआ तो इस बात से इनकार करना संभव नहीं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में फेरबदल हो या वह इसका विस्तार करें।
गुत्थमगुत्थी के पीछे पद की लालसा
लोकसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं। विधानसभा चुनाव तो उसके भी बाद है। दोनों को साथ कराया गया, तब भी करीब दो साल की दूरी तो है ही। लेकिन, इस बीच बिहार की राजनीति में लगातार कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है कि मानो चुनाव बस आने वाला है। वजह है राजनीतिक महात्वाकांक्षा और मौकापरस्ती। सीधे शब्दों में इसे पद की लालसा कहना भी गलत नहीं होगा।
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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब महागठबंधन तोड़ भाजपा का हाथ थामा, तभी से कांग्रेस में उथलपुथल है। ‘अपना भारत’ इसे लगातार सामने ला रहा है। इस उथलपुथल में जबकि कांग्रेस के अंदर पूर्व अध्यक्ष और पूर्व महागठबंधन सरकार के शिक्षा मंत्री डॉ. अशोक चौधरी के लिए कोई जगह नहीं बची है तो वह कभी भी अपनी पार्टी पर ही तीर चलाने की स्थिति में खड़े हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो लालटेन (राजद का चुनाव चिह्न) की रोशनी पर असर स्वाभाविक है। ऐसे में लालटेन तीर की ताकत कम करने के लिए एक तरफ जदयू के बागी शरद यादव को मानसिक ताकत दे रही है तो दूसरी ओर दो दलित नेताओं - उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक - की बातों को भी तूल दे रही है।
उदय नारायण चौधरी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कारण लंबे समय तक बिहार विधानसभा अध्यक्ष रहे थे तो श्याम रजक पहले लालू प्रसाद की सरकार और फिर भाजपा-जदयू की सरकार में भी मंत्री रहे थे। लालू-नीतीश साथ हुए तो श्याम रजक को विधायक और मंत्री के वर्षों पुराने अनुभव के बावजूद मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया। इन दोनों नेताओं ने जदयू में रहते हुए ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ‘दलित विरोधी’ कहकर बगावती बोल बोले हैं।
उदय नारायण चौधरी की बोली के पीछे राजनीतिक प्रेक्षक पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. अशोक चौधरी की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नजदीकियां देख रहे हैं। उदय नारायण चौधरी विधानसभा चुनाव हार चुके हैं, इसलिए उन्हें यहां पद की संभावना फिलहाल नहीं दिख रही है। जबकि लंबे अनुभव और सीटिंग एमएमए के बावजूद पद नहीं मिलने पर श्याम रजक से इस तरह के बयान की ‘आशंका’ जदयू में पहले से थी।
जदयू ने इन दोनों नेताओं को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोलने के कारण ‘काली सूची’ में डाल दिया है। इन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए या नहीं, लेकिन इनकी बोली के कारण कुछ नेताओं को जदयू में आने का रास्ता दिखने लगा है। आउटसोर्सिंग की नौकरियों में आरक्षण का फैसला लेने के बाद अब जदयू अब कुछ दलित चेहरे को भी पार्टी में आउटसोर्स करने की प्रक्रिया में आ गया है।
राजग के टूट-फूट फैक्टर पर भी नजर
गुत्थमगुत्थी तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दलों में भी है। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ और लंबे समय से मुख्यमंत्री के रूप में खुद को प्रोजेक्ट कराने के लिए प्रयास कर रहे उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ‘रालोसपा’ को लेकर राजग के अंदर फिलहाल विश्वास का भाव नहीं बन रहा है। मांझी के बयान से उनकी नाव डगमगाती दिखने लगती है। बयानों के कारण कभी वह राजद की नाव के मांझी दिखते हैं तो कभी राजग की पतवार थामने की लाचारी दिखा जाते हैं।
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अपनी पार्टी के इकलौते विधायक मांझी का बयान हर समय बदलता रहता है। उनके बयानों ने राजग के दलित चेहरे लोक जनशक्ति पार्टी को नीतीश कुमार से सटने का मौका ही दिया, जिसके कारण लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस सभी को दरकिनार करते हुए बिहार में मंत्री बना दिए गए। इधर उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री रहते हुए भी बिहार में जमीन तलाशने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। वैसे भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से उनका अलगाव सर्वविदित है।
जैसे ही नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ भाजपा का दामन थामा, राजग में परेशान होने वाला पहला नाम उपेंद्र कुशवाहा का ही था। केंद्र में मंत्रीपद और बिहार विधानसभा में कमजोर प्रतिनिधित्व के कारण कुशवाहा थिंकिंग मोड में रहते हैं, एक्टिव नहीं हो पाते। पिछले महीने शिक्षा के नाम पर आयोजित सम्मलेन में भी वह नीतीश सरकार पर हमलावर नहीं हो सके, जबकि घोषणा के समय ही इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य स्पष्ट था। नीतीश मंत्रिमंडल में रालोसपा गई नहीं या बुलावा ही नहीं मिला, यह सवाल आज भी कायम है।
बताया जाता है कि रालोसपा अपने दोनों विधायकों को मंत्री बनाना चाहती थी, जबकि नीतीश दो में से एक को ही पद देने के लिए तैयार थे। वास्तविकता क्या थी, इसपर कभी सही बात किसी ने खुलकर नहीं की। खाली हाथ मांझी और केंद्र में राज्यमंत्री के पद से संतोष कर बैठे उपेंद्र कुशवाहा को राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद बार-बार ऑफर दे रहे हैं। राजग भी यह समझ रहा है।
पिछले दिनों कुशवाहा-लालू की मुलाकात की बातें भी सामने आई थीं। इसके बावजूद राजग परेशान नहीं दिख रहा। भाजपा यह मानकर चल रही है कि कुशवाहा या मांझी विकल्पहीनता की स्थिति में हैं और इनके लिए नीतीश कुमार के सामने किसी तरह की पैरवी का कोई अर्थ नहीं है। ऐसे में राजग के टूट-फूट फैक्टर पर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की नजर भले है, लेकिन भाजपा या जदयू में इसपर कहीं से भी बेचैनी नहीं दिख रही है।
नवंबर से कहीं उम्मीद, कहीं आशंका
जितनी गुत्थमगुत्थी होनी थी, लगभग हो चुकी है। अब उलटपलट की तैयारी है। दुर्गा पूजा से छठ तक त्योहारों का मौसम खत्म हो गया है और अब नवंबर में कुछ राजनीतिक परदे उठने की उम्मीद है। इससे कहीं खुशी, कहीं गम की स्थिति हो सकती है। इस परदे का रिमोट एक तरह से नीतीश कुमार के हाथों में है। अगर वह उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक को सबक सिखाना चाहेंगे तो डॉ. अशोक चौधरी को भाव देंगे।
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अशोक चौधरी जितने विधायक साथ लाएंगे, उसी हिसाब से उनका भाव रहेगा। राजद और जदयू भी एक-दूसरे के विधायक के संपर्क में रहने का दावा कर रहे हैं, लेकिन इसका फलाफल दूर-दूर तक नहीं दिख रहा। भाजपा के अप्रभावित रहने की उम्मीद है तो जदयू की ताकत में इजाफा नीतीश कुमार के हाथों में है।
राजद के अप्रभावित रहने की संभावना है तो कांग्रेस को जोर का झटका लगने की आशंका है। जैसे-जैसे बयानबाजी तेज हो रही है, सभी की नजरें मुख्यमंत्री के मूड पर टिकती जा रही है।
‘जदयू के कई विधायक राजद के संपर्क में हैं। जदयू में भारी असंतोष है। एक तरफ शरद यादव भाजपा के साथ को लेकर मोर्चा खोले हुए हैं तो दूसरी तरफ उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक जैसे नेता जदयू के अंदर दलित-विरोधी माहौल पर अपनी राय सार्वजनिक कर चुके हैं। इससे ज्यादा क्या कहें। नीतीश सरकार कुछ दिनों की मेहमान है।
’मनोज झा, राजद प्रवक्ता
‘जदयू के कुछ नेताओं ने निजी राय जाहिर की है। प्रदेश अध्यक्ष पहले ही कह चुके हैं कि पद की लालसा नहीं पूरी होने के कारण यह बड़बोलापन दिखाया जा रहा है। इन बातों का कोई अर्थ नहीं है। फिलहाल राजद के कई विधायक जदयू में आने को बेताब हैं। राजद विधायकों को लग रहा है कि पता नहीं कब लालू-तेजस्वी जेल चले जाएं। भविष्य को लेकर सब डरे हैं।
’संजय सिंह, जदयू प्रवक्ता