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Atul Subhash Suicide Case: सात जन्मों का बंधन, चुटकियों में खत्म

Atul Subhash Suicide Case Report: बात यहां सिर्फ एक अतुल की नहीं है। फैमिली कोर्ट से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक देश की हर अदालत में कितने ही अतुल सुभाष जैसों के केसों की फाइलें पड़ी हैं।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 17 Dec 2024 5:24 PM IST
Atul Subhash Suicide Case Analysis Report
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Atul Subhash Suicide Case Analysis Report

Atul Subhash Suicide Case Report: शादी सात जन्मों का बंधन है। एक पवित्र रिश्ता है। शादियां ईश्वर तय करते हैं। शादी जन्म जन्मांतर का अटूट संबंध है। यह सब तथा इससे मिलती जुलती कई और बातें हम सभी सुनते आए हैं। आज भी हम सब ये सुनते और कहते हैं। हमारे सनातन धर्म में विवाह को खासे ऊंचे पायदान पर रखा गया है। यही वजह है कि सनातन धर्म में विवाह की रस्मों का अलग ही विधि विधान है। यही वजह है कि विवाह तय करने से पूर्व परिवारों की पूरी जानकारी से लेकर जन्मकुंडली मिलान तक सभी कदम बड़ी शायस्तगी से पूरी किये जाते हैं। अधिकांश प्रेम विवाह तक में लगभग सभी रस्मों रिवाजों का पालन गंभीरता से किया जाता है।

इन सबका एक ही उद्देश्य होता है कि विवाहित युगल हमेशा एक सुखी और सफल जिंदगी व्यतीत करे, दो जिस्म एक जान बने रहें।

लेकिन विवाह जैसे पवित्र रिश्तों में बंगलुरू के युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष जैसों की दर्दनाक दास्तानें न सिर्फ दिल दहला देती हैं बल्कि विवाह की व्यवस्था पर ही ढेरों सवाल खड़े कर देती हैं।

एक काबिल युवा जो सुनहरे करियर की सीढ़ियों पर अच्छे मुकाम पर था, सब कुछ होने के बावजूद उसका विवाह असफल हो गया। अलगाव हो जाता तो ठीक रहता। लेकिन बीच में आ गई हमारी कानूनी व्यवस्था जो तलाक के लिए कई शर्तें बनाये हुए है। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें कानून, पुलिस, अदालत, वकील, पैसा, सब कुछ शामिल है। एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें स्त्री - पुरुष समानता एक लेवल के बाद समाप्त हो जाती है और पलड़ा स्त्री के पक्ष में भारी हो जाता है।

इसी व्यवस्था में तारीख दर तारीख, पैसों की बढ़ती डिमांड और मुकदमों के बढ़ते ढेर को अतुल सुभाष झेल नहीं पाया और जिंदगी से हार मान कर संसार को अलविदा कह दिया।


बात यहां सिर्फ एक अतुल की नहीं है। फैमिली कोर्ट से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक देश की हर अदालत में कितने ही अतुल सुभाष जैसों के केसों की फाइलें पड़ी हैं। देश के हर थाने में कितने ही विवाहितों के मामले दर्ज हैं। कोई गिनती नहीं है। तलाक के एक्सपर्ट वकीलों की भरमार है। भरपूर मुआवजा और मोटा गुजारा भत्ता दिलाने की विशेषज्ञता है।

हमने स्त्री सुरक्षा के नाम पर ढेरों कानून बना लिए हैं । लेकिन फिर भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हो सकी हैं। उल्टे हमने पुरुषों को भी असुरक्षित बना डाला है, जिसकी बानगी हमें कोई न कोई अतुल सुभाष दिखा देता है। हमने कानून बना दिये, आगे और भी बनेंगे। लेकिन क्या बात यहीं खत्म हो जाती है? क्या सामाजिक समीक्षा जरूरी नहीं? जरा देखें भी तो कि कानूनों का नतीजा क्या है? कानून तो हमारे जन प्रतिनिधि बनाते हैं। लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी सिर्फ वहीं खत्म हो जाती है? आगे कोर्ट जाने और जनता भुगते? कब तक चलेगा ऐसा?


हमें अपने धर्म, संस्कृति, रीति रिवाजों पर गर्व है। हम अपने को विश्व में अन्य सभी समुदायों-संप्रदायों से उन्नत मानते हैं। लेकिन फिर भी हमारी विवाह संस्था दरकती नजर आ रही है। कभी हमारे देश में अन्य देशों की अपेक्षा बहुत ही कम तलाक होते थे । लेकिन अब स्थितियां बहुत तेजी से बदली हैं और तलाक की दर पांच फीसदी तक पहुंच गई है। लेकिन दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू जैसे शहरी क्षेत्रों में तो ये 30 फीसदी तक बताया जाता है। और तो और, यह आंकड़ा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। अकेले दिल्ली एनसीआर में सिर्फ इसी सीज़न में कोई साढ़े सात लाख विवाह हुए हैं। हजारों करोड़ रुपये खर्च हो गए। इस आंकड़े को तलाक के आंकड़े के तराजू में तौलिए, सिर चकरा जाएगा।

बात सिर्फ तलाक तक सीमित नहीं, उससे भी आगे की है जिसमें गुजाराभत्ता, बच्चे से मिलने की शर्तें जैसी जिंदगी भर चलने वाली चीजें होती हैं। ये तो तलाक की बात है। लेकिन जो तलाक नहीं ले रहे क्या वो सैट जन्म का बंधन वाला जीवन जी रहे हैं? ये भी हमारी विवाह संस्था का एक स्याह पहलू है।

और इन सबका नतीजा क्या है?

जरा सोचिए, अतुल सुभाष की घटना से आतंकित हो कर अगर लाखों युवक विवाह करने से ही विमुख हो जाते हैं तो कोई हैरानी की बात नहीं। जिस सोशल ब्रैकेट में अतुल सुभाष था उस वर्ग के युवाओं में पहले से ही विवाह के प्रति उदासीनता और अरुचि का हाई लेवल मिलता है। इस घटना के बाद तो वह उदासीनता, वितृष्णा और आतंक में तब्दील हो गई है, ये तय है।

जरा अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ाइये, बड़ी डिग्रियां, बेहतरीन पैकेज, उत्तम खानदान वाले कितने ही युवा शादी ही नहीं करना चाह रहे। शादी की बेंचमार्क उम्र 35 के पार चली जा रही है। दुखद यह है कि इनमें ज्यादातर लड़के हैं। क्यों है ऐसा? इसका जवाब नदारद है। कहने को सिर्फ यह है कि आजकल के लड़के लड़कियां शादी नहीं करना चाहते।


विवाह अब सात जन्म तो दूर, सात साल की गारंटी ले कर नहीं आता। हमारी आधी आबादी जागरूक है, निडर है और बेफिक्र भी है।पश्चिमी सभ्यताओं की जिन असभ्यताओं की हम खिल्ली उड़ाते थे, जिन्हें हम कोसते थे, दुत्कारते थे, आज वही सब मानो हमसे बदला ले रही हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि जिस संस्था पर किसी भी सभ्यता, संस्कृति और भविष्य टिका होता है । उसकी हम फिक्र ही नहीं कर रहे। बीमारी का इलाज खोजना तो दूर, हम बीमारी को ही स्वीकार नहीं कर रहे। शतर्मुर्ग की तरह रेत में मुंह छुपाने से तूफान की असलियत खत्म नहीं हो जाती। हम उसी स्थिति में हैं।

हमें सोचना होगा कि जिस जन्म जन्मांतर वाली विवाह संस्था को हम चलाते आ रहे हैं उसके अंतर्निहित अवगुण क्या हैं। हमारी इस संस्था में संतान पैदा करना, वंश आगे बढ़ाना, परिवार की मर्यादा कायम रखना जैसे एलिमेंट्स तो हैं ।लेकिन प्रेम नदारद है। पल्लू से बंधना तो है । लेकिन पति पत्नी का हाथ पकड़ना गायब है। ये सब कोई आज से नहीं, हमेशा से है। विवाहितों के झगड़े, उम्र भर की शिकायतें, मन का दमन, रोना धोना, वित्तीय गुलामी, रिश्तों के झूठ - इन सबकी परत दर परत जमती गई है, जो आज एक विकृत सच्चाई के रूप में सामने है। दुर्भाग्य है कि इसे हमारा ही सिस्टम पोषित कर रहा है।

सच्चाई यह भी है कि हमें खुद नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं। किस तरह का समाज चाहते हैं।हम चाहते कुछ और हैं और बच्चों को सिखाते,उनके सामने आदर्श कुछ और ही पेश करते हैं। इन विरोधाभासों के बीच हम अपना क्या नुकसान कर रहे हैं और कर चुके हैं, हम खुद ही बेखबर हैं। ये बेखबरी हमारे अस्तित्व का ही संकट न बन जाये, इस बारे में हमें आपको, सबको सोचने समझने की जरूरत है। देर काफी हो चुकी है। जो बच सके उसे बचा लीजिए।

( लेखक पत्रकार हैं।)

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