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बंगाल लोकसभा चुनाव में जीत के लिए भाजपा का मिशन 22

raghvendra
Published on: 22 Jun 2018 7:27 AM GMT
बंगाल लोकसभा चुनाव में जीत के लिए भाजपा का मिशन 22
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कोलकाता: भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपने लिए लोकसभा चुनाव में जीत के लिए 22 सीटों से ज्यादा का लक्ष्य तय किया है। राज्य की कुल 42 लोकसभा सीटों में से फिलहाल भाजपा के पास महज दो सीटें हैं। आसनसोल से केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रीयो जबकि दार्जिलिंग से केंद्रीय मंत्री एस.एस अहलुवालिया भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते हैं। राज्य की सत्ताधारी टीएमसी के खाते में 34 जबकि सीपीएम और कांग्रेस के खाते में दो-दो सीटें हैं। अब भाजपा इस आंकड़े को बढ़ाना चाहती है। पार्टी को भरोसा है कि आने वाले दिनों में अब पश्चिम बंगाल के भीतर उसकी बढ़ती ताकत का असर होगा और वो राज्य में ममता बनर्जी को मात देने में सफल होगी।

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और बंगाल के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय का दावा है यह लक्ष्य आसानी से हासिल किया जा सकेगा। उन्होंने बताया कि इस वक्त बंगाल में जो हालात हैं उससे राज्य सरकार के खिलाफ माहौल है और अराजकता की स्थिति के कारण लोग टीएमसी से नाखुश हैं, लिहाजा आने वाले दिनों में बीजेपी की ताकत में जबरदस्त इजाफा हो रहा है और पार्टी लोकसभा चुनाव में 22 से भी ज्यादा सीटें जीत सकती है।

पंचायत चुनाव में मिली सफलता के बाद भाजपा की उम्मीदें बढ़ गई हैं। पंचायत चुनाव में पार्टी को सात हजार के लगभग सीटों पर जीत मिली थी। पार्टी नेताओं का मानना है कि अगर चुनाव निष्पक्ष हुआ होता तो उनकी सीटों की संख्या बीस हजार को भी पार कर जाती।

पार्टी ने फिलहाल संगठन पर फोकस किया हुआ है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के फॉर्मूले के तहत बूथ मैनेजमेंट पर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा है और इसके लिए पार्टी की तरफ से हर बूथ पर समर्पित कार्यकर्ताओं को तैयार किया जा रहा है। दावा है कि अब तक करीब 77,000 पोलिंग बूथों में करीब 65 फीसदी पर कार्यकर्ताओं को तैयार करने का काम पूरा कर लिया गया है। सूत्रों के मुताबिक, इस कोशिश में टीएमसी से भाजपा में आए वरिष्ठ नेता मुकुल रॉय की भूमिका सबसे अधिक है। पार्टी के पूरे बंगाल में जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता तैयार करने में मुकुल रॉय लगे हुए हैं।

दूसरी तरफ, भाजपा दिल्ली से बंगाल तक ममता बनर्जी पर दबाव बनाने की कोशिश में है। दिल्ली में पार्टी नेताओं का टीएमसी के दफ्तर के बाहर कई बार धरना हो चुका है, जबकि राज्य में हर रोज चार जिलों में टीएमसी दफ्तर के बाहर धरना दिया जा रहा है। इन चार धरनों का नेतृत्व चार बड़े नेता कर रहे हैं जिनमें राज्य भाजपा अध्यक्ष राहुल सिंहा, पूर्व अध्यक्ष दिलीप घोष, मुकल रॉय के अलावा चौथे धरने का नेतृत्व कोई पूर्व विधायक या कोई बड़ा नेता करता है।

ममता बनर्जी सरकार में कानून-व्यवस्था खराब होने का मुद्दा उठाकर उन्हें घेरने की कोशिश हो रही है। भाजपा को लगता है कि राज्य में अराजकता के कारण हो रही राजनीतिक हत्या और खराब कानून-व्यवस्था बडा मुद्दा है।

इसके अलावा महिला सुरक्षा और बेराजगारी के मुद्दे को भी भाजपा बड़ा मुद्दा बना रही है। ममता बनर्जी पर मुस्लिम तुष्टीकरण करने का आरोप लगाकर सबसे तगड़ी घेराबंदी और ध्रुवीकरण की भी पूरी कोशिश में पार्टी जुट गई है। पार्टी को उम्मीद है कि दूसरे राज्यों से संभावित लोकसभा सीटों की भरपाई बंगाल से पूरी होगी। अमित शाह की एक्ट ईस्ट पॉलिसी की सफलता भी नॉर्थ-ईस्ट के अलावा पश्चिम बंगाल की सफलता से ही तय होगा।

भारत के दूसरे हिस्सों में जहाँ जाति या धर्म को लेकर हिंसा होती है, पश्चिम बंगाल में लोगों का अस्तित्व राजनीतिक पार्टियों पर निर्भर है। पार्टी से नजदीकी की वजह से हर सरकारी काम आसान हो जाता है, हालांकि हर सेवा की कीमत होती है। ये परंपरा पुरानी है। बदलती वफादारियों और पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा के तार लाखों करोड़ों के संस्थागत सरकारी बजट पर कब्जे की होड़ और अतीत के राजनीतिक ढांचे से जुड़े हैं। पश्चिम बंगाल की जनसंख्या के हिसाब से यहां उद्योग और आर्थिक मौके कम हैं, इसलिए लोगों की राजनीतिक दलों पर निर्भरता बहुत ज़्यादा है।

कोलकाता में राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर मइदुल इस्लाम पश्चिम बंगाल को ‘सिंगल पार्टी सोसाइटी’ बताते हैं जहां वामपंथियों ने 33 साल राज किया और अब तृणमूल सात सालों से सत्ता में है। यहां लोगों की पहचान पार्टी के आधार पर होती है कि आप किस पार्टी से जुड़े हैं।

सरकारी सुविधा हासिल करना हो, या फिर सरकारी नौकरी ढूंढना, जब तक पार्टी साथ खड़ी न हो, सुविधा मिलना आसान नहीं होता। पार्टियों के साथ ये जुड़ाव सीपीएम के जमाने से है। जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत से बनी तीन परतों वाली पंचायती राज प्रणाली के करोड़ों के बजट पर नियंत्रण के लिए लड़ाई होती है क्योंकि चुनावी हार का मतलब है करोड़ों का नुकसान। असल में बंगाल में 1910, 1920 से ही क्रांति का सिलसिला है, खुदीराम बोस, बिनय, बादल, दिनेश से लेकर, सूर्य सेन को देखिए तो पश्चिम बंगाल में हिंसा का असर था। बंगाली समाज दूसरे समाज से अलग है। नक्सल पीरियड में पश्चिम बंगाल में काफी हिंसा हुई।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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