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Bhagalpur Danga Ki Kahani: जब लाशों को खेत में दफनाया गया, इतिहास के काले पन्नों में हमेशा दर्ज रहेगा भागलपुर दंगा
1989 Bhagalpur Riots History: भागलपुर दंगे के पीछे कई कारक थे, जिनमें राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक तनाव प्रमुख थे। इसके अलावा, घटनाओं का एक कड़ी जुड़ी हुई थी, जो धीरे-धीरे हिंसा के रूप में सामने आई।1
Bhagalpur Danga Ki Kahani: भागलपुर दंगे 1989 में बिहार राज्य के भागलपुर जिले में हुए थे। यह दंगे एक सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आए, जिनमें हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच गंभीर संघर्ष हुआ। इन दंगों ने न केवल भागलपुर बल्कि पूरे बिहार और भारत के साम्प्रदायिक परिप्रेक्ष्य को प्रभावित किया। इस लेख में, हम भागलपुर दंगे के कारणों, घटनाओं, प्रभावों और इसके सामाजिक और राजनीतिक परिणामों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
भागलपुर, जो बिहार के एक महत्वपूर्ण शहर के रूप में जाना जाता है, हमेशा से सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता का प्रतीक रहा है। यहां हिंदू और मुस्लिम समुदाय की बड़ी संख्या निवास करती है। हालांकि, 1980 के दशक में सांप्रदायिक तनाव में वृद्धि हुई थी, जिसका परिणाम 1989 में हुए दंगों के रूप में सामने आया। इस समय के दौरान, बिहार में कई छोटे-मोटे सांप्रदायिक हिंसक घटनाएं होती रही थीं, लेकिन भागलपुर दंगा एक बड़े पैमाने पर हुआ।
भागलपुर दंगे के पीछे कई कारक थे, जिनमें राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक तनाव प्रमुख थे। इसके अलावा, घटनाओं का एक कड़ी जुड़ी हुई थी, जो धीरे-धीरे हिंसा के रूप में सामने आई।1980 के दशक में बिहार में राजीव गांधी सरकार के आने के बाद, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रभाव बढ़ा। इससे कुछ ऐसे तत्व सक्रिय हो गए जो सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा दे रहे थे। राज्य और केंद्र सरकारों की निष्क्रियता, असमान विकास और एकजुटता की कमी ने साम्प्रदायिक तत्वों को बल दिया।
हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच आपसी समझ की कमी और धार्मिक जुल्मों को लेकर गहरी असंतोष की भावना थी। विशेष रूप से हिंदू-मुस्लिम संबंधों में नफरत फैलाने वाली बयानबाजी और संघर्षों के कारण यह तनाव बढ़ा। दंगे से पहले कुछ घटनाएं हुईं, जैसे कि मस्जिदों पर हमले, धार्मिक पूजा स्थलों का अपमान और सांप्रदायिक तनाव के संकेत, जिन्होंने इस हिंसा को और बढ़ावा दिया। इन घटनाओं ने भागलपुर को दंगों के लिए एक उर्वर भूमि बना दी।
दंगे की शुरुआत और घटनाएँ
भागलपुर दंगे 24 अक्टूबर, 1989 को शुरू हुए। यह दंगा तब शुरू हुआ जब भागलपुर में एक मुस्लिम व्यक्ति की हत्या की गई। इसके बाद, एक बांग्लादेशी धार्मिक नेता की हत्या के आरोपों के बाद, दोनों समुदायों के बीच हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं। धीरे-धीरे, यह हिंसा पूरे शहर में फैल गई, जिसमें हजारों लोग प्रभावित हुए।
दंगे की शुरुआत के बाद, दोनों समुदायों के बीच हिंसा तीव्र हो गई। हिंसा में उग्रवादियों ने घरों, दुकानों, मस्जिदों, मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया। हजारों लोग अपनी जान गंवा बैठे और संपत्ति की भारी क्षति हुई। पुलिस की निष्क्रियता और प्रशासनिक विफलता ने दंगों को और बढ़ावा दिया।
भागलपुर दंगे में न केवल संपत्ति का नुकसान हुआ, बल्कि मानवाधिकारों का भी उल्लंघन किया गया। महिलाओं के साथ बलात्कार, बच्चों की हत्या और निर्दोष लोगों की हत्या की घटनाएं घटीं। हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग पीड़ित हुए और यह हिंसा पूरे जिले में फैल गई।यह हिंसा इतनी बुरी स्थिति में फैली की 116 लाशों को खेतों मे छिपाना पड़ा, जिसका पता जांच में चल सका ।
भागलपुर दंगे ने न केवल जिले की छवि को धूमिल किया, बल्कि इसके दूरगामी परिणाम भी हुए।दंगे के कारण हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच आपसी विश्वास की कमी और बढ़ी। यह समुदायों के बीच दीवारें खड़ी कर गया और कई परिवारों के बीच संबंधों में दरारें आ गईं।इस दंगे ने बिहार की राजनीति में भी हलचल मचाई। विभिन्न राजनीतिक दलों ने इसे अपने लाभ के लिए उपयोग करने का प्रयास किया, जिससे राज्य की राजनीति में और भी विभाजन उत्पन्न हुआ।दंगे के कारण व्यापार और व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हुए। दुकानें और बाजार बंद हो गए और संपत्ति की भारी क्षति हुई, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को झटका लगा।
न्यायिक प्रतिक्रिया
भागलपुर दंगे (1989) के बाद न्यायिक प्रक्रिया में कई जटिलताएँ और समस्याएँ उत्पन्न हुईं। न्याय की प्रक्रिया को सही तरीके से लागू करना इस घटना के बाद मुश्किल साबित हुआ और कई कारणों से यह प्रक्रिया न केवल धीमी रही, बल्कि कई मामलों में न्याय मिलने में बहुत समय लगा।
भागलपुर दंगे के बाद सरकार ने कई न्यायिक आयोगों का गठन किया, ताकि दंगे की पूरी जांच की जा सके और यह निर्धारित किया जा सके कि प्रशासन और पुलिस की भूमिका क्या थी।
दंगों के तुरंत बाद बिहार सरकार ने एक जांच आयोग का गठन किया, जिसे न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) ए.ए. कुरेशी की अध्यक्षता में गठित किया गया था। आयोग का मुख्य उद्देश्य यह था कि वह दंगे की घटनाओं की तह तक जाकर यह पता कर सके कि क्या प्रशासन ने दंगे को रोकने के लिए समय रहते कदम उठाए थे या नहीं।
इस जांच के दौरान आयोग ने बहुत से साक्षात्कार लिए, जिसमें प्रभावित नागरिकों, पीड़ितों और समाज के विभिन्न हिस्सों से बयान प्राप्त किए गए। साथ ही, पुलिस, प्रशासन और सरकारी अधिकारियों से भी बयान लिए गए।
आयोग की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि प्रशासन ने दंगे को नियंत्रित करने में पर्याप्त कदम नहीं उठाए थे और पुलिस ने एक पक्षीय कार्यवाही की थी। कई मामलों में पुलिस ने अपराधियों पर कार्रवाई नहीं की और कई मामलों में हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों के लोग पीड़ित हुए, लेकिन न्याय का वितरण पक्षपाती था।
भागलपुर दंगे के बाद राजनीतिक दबाव भी बढ़ गया था। विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस मामले को अपनी ओर से उठाने की कोशिश की और इसे अपने चुनावी लाभ के लिए भी इस्तेमाल किया। इसके चलते न्यायिक प्रक्रिया में कई बार रुकावट आई और कई मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण निष्कलंक न्याय नहीं हो पाया।
कुछ मामलों में यह आरोप लगाया गया कि प्रशासन और राजनीतिक दलों के प्रभाव के कारण दोषियों को बचाने की कोशिश की गई, ताकि राजनीतिक स्थिति को स्थिर रखा जा सके। विशेष रूप से, मुस्लिम समुदाय ने यह आरोप लगाया कि दंगों में हिंदू उग्रवादी तत्वों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई।
दंगों के बाद अदालतों में विभिन्न मुकदमे दर्ज किए गए। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में कई समस्याएँ आईं। एक तो यह था कि सबूतों का अभाव था और कई मामले बहुत लम्बे समय तक लंबित रहे। इस कारण से अपराधियों को सजा दिलवाना मुश्किल हो गया।
दंगों के दौरान बड़ी संख्या में लोग मारे गए और लाखों की संपत्ति नष्ट हुई, लेकिन कई मामलों में कोई ठोस सबूत नहीं मिला। पीड़ितों के परिवारों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने अपराधियों के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई नहीं की और सबूतों को नष्ट किया। इसके कारण, अदालतों में मामलों की सुनवाई में बहुत कठिनाई हुई।
कई मामले अदालतों में वर्षों तक चलते रहे और केवल कुछ ही मामलों में दोषियों को सजा मिली। भागलपुर दंगे के बाद कई वर्षों तक कोई ठोस न्यायिक परिणाम नहीं आया। यह न्यायिक प्रणाली की धीमी गति और प्रशासनिक विफलता को दर्शाता है।
वास्तव में, भागलपुर दंगे के दोषी व्यक्तियों को दोषी ठहराने और सजा देने में बहुत समस्याएँ थीं। बहुत से प्रमुख आरोपी मामले से बाहर हो गए और उन्हें सजा नहीं मिल पाई। इसने यह सवाल खड़ा किया कि क्या किसी सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में न्याय देना वाकई संभव है, जब पुलिस और प्रशासन का सहयोग नहीं मिलता है।
मानवाधिकार संगठनों की भूमिका
भागलपुर दंगे के बाद कई मानवाधिकार संगठनों ने इस मुद्दे को उठाया और न्याय की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की कोशिश की। मानवाधिकार संगठनों ने दंगों के पीड़ितों के लिए न्याय की मांग की और यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि दोषियों को सजा मिले।
इन संगठनों ने दंगों के दौरान महिलाओं के साथ हुए बलात्कार, मानवाधिकारों के उल्लंघन और पुलिस की निष्क्रियता के खिलाफ आवाज उठाई। साथ ही, इन संगठनों ने बिहार सरकार और केंद्र सरकार से अपील की कि वे दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें और पीड़ितों को न्याय दिलवाएं।
न्यायिक सुधार की आवश्यकता
भागलपुर दंगे ने भारतीय न्याय व्यवस्था की कई कमजोरियों को उजागर किया। सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जब प्रशासन और पुलिस ही दोषपूर्ण हों, तो न्याय की प्रक्रिया सही तरीके से कैसे काम कर सकती है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि सांप्रदायिक दंगों के मामलों में न्याय की गति बहुत धीमी हो जाती है और पीड़ितों को अक्सर न्याय नहीं मिल पाता।
मुआवजा
बिहार सरकार ने दंगा पीड़ितों के लिए मुआवजा वितरण को लेकर महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। पहले सरकार ने दंगा पीड़ितों को ढाई हजार रुपये पेंशन देने का निर्णय लिया था, जो अब बढ़कर 5 हजार रुपये हो चुकी है। इसके अलावा, न्यायमूर्ति एमएन सिंह कमीशन की सिफारिश पर, बिहार सरकार ने दंगा पीड़ितों को साढ़े तीन लाख रुपये मुआवजा भी दिया।
सरकार ने 17 स्थानों को अवैध कब्जे से मुक्त करने की प्रक्रिया भी शुरू की, जो दंगे के दौरान जबरन कब्जा किए गए थे। 28 फरवरी, 2015 को जस्टिस एमएन सिंह की कमीशन ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें यह सुझाव दिया गया कि 80 बिक्री की गई जमीन और संपत्ति, जो दंगा पीड़ितों से जबरन खरीदी या हथिया ली गई थी, उन्हें डिस्ट्रेस सेल घोषित किया जाए।
यह दंगा यह भी दिखाता है कि जब तक प्रशासन और समुदायों के बीच सही समझ और संवाद नहीं होता, तब तक ऐसी घटनाएं जारी रह सकती हैं। इसलिए, हम सभी का कर्तव्य है कि हम साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दें और समाज में न्याय और समानता की भावना को मजबूत करें।