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Bharat Ke Logo Ki Jarurat: अमीरों की ट्रिलियन डालर इकनॉमी, आम आदमी के हिस्से संतोष का परम सुख
Bharat Ke Logo Ki Jarurat: भारत के सिर्फ दस फीसदी लोगों के पास खुल कर खर्च करने की हैसियत है। बाकी 90 फीसदी बस किसी तरह काम ही चला रहे हैं...
Bharat Ke Logo Ki Jarurat
Bharat Ke Logo Ki Jarurat: हम मल्टी ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं, दो ढाई दशक में विकसित राष्ट्र बनने का संकल्प है, दुनिया के अग्रणी देशों में हमारी जगह बन रही है ...... ऐसी तमाम कितनी ही गर्व की बातें हैं। लगता है सोने की चिड़िया वाले देश की कहानियां फिर से सच्ची होने वाली हैं। हमारे देश के साथियों को कहीं और जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बल्कि दूसरे देश वाले यहां आने को लाइन लगाएंगे।
तस्वीर बेहद आशावान, सुंदर और ऊर्जावान है, हम सभी को बेताबी से उस सुबह का इंतजार है।लेकिन फिलवक्त कहानी कुछ और ही बयां करती है। हाल ही में एक रिपोर्ट आई। हालांकि बहुत प्रचारित नहीं हुई । लेकिन है गम्भीर और ध्यान देने वाली। रिपोर्ट कहती है कि करीब डेढ़ अरब लोगों के हमारे देश के एक अरब लोगों के पास गैर जरूरी चीजों पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। रिपोर्ट है अमेरिका स्थित एक वेंचर कैपिटल फर्म ब्लूम वेंचर्स की है। जो कहती है कि भारत के सिर्फ दस फीसदी लोगों के पास खुल कर खर्च करने की हैसियत है। बाकी 90 फीसदी बस किसी तरह काम ही चला रहे हैं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि अमीर लोगों की तादाद स्थिर बनी हुई है, यानी अमीर ही और ज्यादा अमीर हो रहे हैं।
बहुत मुमकिन है कि ऐसी रिपोर्ट हैरान न करती हो। वजह मामूली है - जमीनी हकीकत ही ऐसी है तो फिर इसमें हैरानी हो भी तो किस बात की? टॉप दस फीसदी में घुसने या फिर बाकी 90 फीसदी में ही ऊपर सरकने की होड़ का क्या अंजाम है, जरा इस पर भी सोचिए। अच्छी तनख्वाहों की तस्वीर आईटी सेक्टर में दिखाई देती है। आईटी प्रोफेशनल्स के पास अच्छा पैसा नजर तो आता है। लेकिन उनकी तनख्वाह उन बेचारे युवाओं के तन को किस तरह खाये जा रही है, इसकी काली सच्चाई कभी कभार किसी अनहोनी सी खबर में ही सामने आती है।
लेकिन अब एक रिपोर्ट ने आईटी की गुलगुलाती दुनिया की सख्त हकीकत को बयां किया है। देश के साइबर केंद्र यानी हैदराबाद से निकली यह रिपोर्ट कहती है कि भारत के आईटी प्रोफेशनल्स की सेहत मुश्किल में है क्योंकि इनमें से 80 फीसदी से ज्यादा लोगों को फैटी लीवर रोग है, जबकि 70 फीसदी को मोटापे की ‘बीमारी’ है। हैदराबाद यूनिवर्सिटी की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 54 लाख से ज़्यादा लोगों को रोज़गार देने वाले आईटी सेक्टर में काम करने का तरीका बहुत ही बिमरिया है। लगातार लम्बे घण्टों तक काम करना, काम का भारी तनाव और नींद की कमी - ये सब सेहत का बैंड बजा रहे हैं।
पैसा पाने की बड़ी कीमत है। पैसा भी टॉप 10 फीसदी वाला नहीं। ये तो उन 30 फीसदी में हैं जो कभी कभार ही जेब ढीली करने की हैसियत में हैं।
अब एक और रिपोर्ट का मुजाहिरा करिए। फाइनैंस कंपनी परफियोस और पीडब्ल्यूसी इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के टॉप 10 फीसदी लोगों के पास अब देश की कुल आय का 57.7 फीसदी हिस्सा है, जबकि 1990 में यह 34 फीसदी था। वहीं, निचले 50 फीसदी लोगों की आय का हिस्सा 22.2 फीसदी से घटकर 15 फीसदी रह गया है।
अब ऐसे में कोई करे तो क्या ही करे? कमरतोड़ मेहनत करके गुजरा करे। चाहे ईंट ढोने वाले मजदूर हों या आईटी प्रोफेशनल, दोनों ही बस काम ही चलाने भर का कमा पा रहे हैं। फर्क इतना है कि मजदूर देसी चीजों में दुश्वारियां भुला रहा है जबकि प्रोफेशनल पब और क्लब में।
सच्चाई की एक और तस्वीर पर नजर डालनी चाहिए। हाल ही में भोपाल में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन हुआ। अच्छी बात है, दुनिया से निवेश आकर्षित करने के लिए ये सब होते भी रहना चाहिए। इसी से खुशहाली बढ़ती है। लेकिन निवेश आकर्षित करने वाले इस आयोजन की एक बदमज़ा तस्वीर ने भी ग्लोबल ध्यान आकर्षित किया। वैसे ये तस्वीर नहीं बल्कि एक छोटी सी वीडियो क्लिप थी, जिसमें दिखा की कि समिट में खाने की प्लेटों की किस तरह जंग छिड़ी हुई थी। छीना झपटी, धक्कामुक्की, तोड़फोड़ सब कुछ दिख गया कुछ सेकेंड के वीडियो में। और ये सब कर कौन रहा था? इन्वेस्टर्स समिट में स्टॉल लगाए कम्पनियों के एग्जीक्यूटिव युवा, महिलाएं और आगंतुक मेहमान। जब समिट में शिरकत करने वाले दो नान और पनीर की सब्जी के लिए इस कदर भूखे हैं तो वे दूसरों का क्या भला कर पाएंगे, कैसी खुशहाली दे पाएंगे?
मुफ्त के खाने के लिए ऐसी मारामारी कोई पहली घटना नहीं है। ऐसे वीडियो बरबस हास्य भले पैदा करते हों लेकिन हकीकत में ये सच्चाई पर सिर धुनने और शर्मिंदा होने के मंजर हैं जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहे। ये ठीक वैसे ही शर्मिंदा करते हैं जैसे कि 85 करोड़ को मुफ्त अनाज देने के दावे।
सिर्फ फ्री अनाज ही क्यों, अब तो मुफ्त बस यात्रा, मुफ्त गैस सिलेंडर, मुफ्त कैश, मुफ्त बिजली, मुफ्त ये - मुफ्त वो... फेहरिस्त लंबी होती चली जा रही है जो उस सच्चाई पर मुहर लगाती है जो टॉप 10 फीसदी बनाम बाकी 90 फीसदी लोगों के खर्च करने की हैसियत को बयां करती है।
हम विकसित राष्ट्र बनने जा रहे हैं। जरूर बनेंगे। लेकिन राह में रोड़ा ये है कि युवाओं के लिवर - हार्ट बैठे जा रहे हैं। लोगों की जेबें बेहद तंग हैं। मुफ्त के लिए जान दांव पर लग रही है। टॉप और बॉटम की खाई सुरसा की तरह फैलती ही चली जा रही है।
सफर बहुत लंबा है। कैसे पूरा होगा? अभी तो हम प्रति व्यक्ति जीडीपी में मात्र 2236 डॉलर प्रति वर्ष पर हैं जबकि विकसित राष्ट्र पचासों हजार डॉलर सालाना की प्रति व्यक्ति जीडीपी रखे हुए हैं।
ये वैतरणी कैसे पार होगी, कोई बता नहीं रहा। अमृत की आकांक्षा में अद्भुत संयोग वाले स्नान भी कई कई करोड़ ने कर लिए। टॉप 10 वालों ने भी और बाकी 90 फीसदी ने भी। अब कृपा का इंतज़ार है। कुछ ऐसा हो जाये कि सारी कि सारी कृपा टॉप वालों के हिस्से में न चली जाए। अब तो संगम हो जाये। हमारे स्नान की आस्था बनी रहे, बस यही प्रार्थना है। बाकी हम तो यही भजते आये हैं - जाहे विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।।
आगे भी यही भज लेंगे।
(लेखक पत्रकार हैं।)