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Caste Politics in India: नेताजी! जाति राखिये, बिन जाति सब सून

Caste Politics in India: जाति के खेल न कम हुए हैं न कमजोर पड़े हैं। ये इतने मजबूत हुए हैं कि अब चुनाव में महंगाई, बेरोजगारी, सुरक्षा, विकास की बात की बजाए जाति की गिनती का वादा है। राज्यों के चुनावों से इसकी बात शुरू हो चुकी है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 21 Oct 2023 8:20 AM IST
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Caste Politics in India: कबीर दास कह के गए हैं :

जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥

मतलब यह है कि ज्ञान के बारे में पूछो, जाति का चक्कर छोड़ो।

कबीरदास को गुजरे 800 साल से ज्यादा हो चुके हैं। 800 साल पहले भी कबीरदास जाति के टंटे से परेशान थे। लेकिन आज वे होते तो क्या करते ? परेशान ही रहते या लिख देते कि :- जाति ही पूछो सबकी। रहीम भी शायद बिन पानी सब सून की जगह लिख देते : -

रहिमन जाति राखिये, बिन जाति सब सून।

जाति गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

बात सही है। जाति के बगैर सब सूना है, हमारे आपके लिए नहीं। लेकिन देश का भाग्य रचने का दम्भ भरने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए। और किसी के जीवन, खासकर वोटरों के जीवन में, सूनापन न रहे इसके लिए जाति की डोज़ खूब तबियत से पिलाई गई है, पिलाई जा रही है। इस घुट्टी को पिलाने में कोई किसी से पीछे नहीं है। पूरा तंत्र शामिल है। जाति आधारित सम्मेलन, जाति आधारित छुटभैये नेताओं - दलों से वोट का गठजोड़, जाति आधारित मंत्रिमंडल। क्या कुछ नहीं है। जिस बिहार में जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति के बिगुल के साथ जाति तोड़ने का नारा दिया था, उसी बिहार में उन्हीं जेपी के अनुयायी जाति की गिनती और जातिगत समाज की नींव खूब गहरी कर रहे हैं। यूपी में जेपी की याद में हल्ला मचाने और दीवारें फांदने वाले नेता जाति की ही राजनीति की पैदाइश हैं। जाति की गिनती से परेशान हमारे शीर्ष नेता कितनी ही बार अपनी जाति गर्व से बता चुके हैं। संसद में यह बड़े गर्व से कहा जाता है कि भाजपा ने पहली बार किसी ओबीसी को प्रधानमंत्री बनाया है।

नेतानगरी ही क्यों, मीडिया, लेखक, चिंतक सभी को तो जाति की फिक्र है। तभी तो आज भी जाति के इर्दगिर्द घूमते उपन्यासों, कविताओं और कहानियों की कमी नहीं। खबरों में अपराधी या पीड़ित की जाति का जिक्र अवश्य होता है। हत्या, रेप किसी इंसान की नहीं, दलित या पिछड़े की होती है। चुनावों के समय हर सीट, क्षेत्र के जातिवार आंकड़े और एनालिसिस भी वही पत्रकार देते हैं, जो जेपी की क्रांति के चलते सरनेम लगाना छोड़ चुके थे।

जाति के खेल न कम हुए हैं न कमजोर पड़े हैं। ये इतने मजबूत हुए हैं कि अब चुनाव में महंगाई, बेरोजगारी, सुरक्षा, विकास की बात की बजाए जाति की गिनती का वादा है। राज्यों के चुनावों से इसकी बात शुरू हो चुकी है। लोकसभा चुनावों तक ये और परवान चढ़ेगी, कुछ और कलेवर जोड़ेगी।

यही नहीं, बात इतनी बढ़ चुकी है कि जाति के इस ओवरडोज़ में अब एक बेहद खतरनाक तत्व को मिला दिया गया है जिसके परिणाम कुछ भी मंजर दिखा सकते हैं। यह तत्व है : “जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी’ का। खण्ड खण्ड भारतीय समाज के विखण्डन का यह अल्टीमेट गंतव्य है। इस नारे के बैनर तले ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा सीट तक पैमाना बदल जायेगा। जाति से परे धार्मिक आधार पर भागीदारी में हिस्सा नहीं मांगा जाएगा, इसकी क्या गारंटी है?

हिस्सेदारी भागीदारी के समीकरण में पूरा देश किस तरह जाति धर्म में बंट जाएगा, इसकी कल्पना करके देखिए। ये भी सोचिये जरूर कि सैकड़ों साल से जाति बंटवारे से हासिल क्या हुआ है? कई कई मुल्कों से हमलावर आये, रौंदते चले गए, दास बनाते चले गये और हम जाति की ढपली बजाते रहे। आज़ादी के बावजूद जाति के जाल से आज़ाद होना तो दूर, उसमें और उलझते गए हैं।

1881 से सन 31 तक यानी अंग्रेजों के शासनकाल में जाति की गिनती होती थी। आज़ादी के बाद ये गिनती सिर्फ एससी, एसटी तक सीमित हो गई। समस्त जातियों की गिनती अलग अलग सर्वेक्षणों में होती रही है। लेकिन कभी डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया। तर्क यह था कि आंकड़े देने से सामाजिक दरार और भी चौड़ी हो जाएगी। लेकिन आंकड़े न देने से भी यह दरार तनिक भी कम न हुई। क्योंकि वोटों की राजनीति के फेर में जातीय भेदभाव को हवा ही दी जाती रही।

लेकिन किसी ने ये नहीं पूछा कि देश जिस किसी भी मुकाम पर पहुंचा है उसमें जाति की भूमिका क्या रही है, क्या इसका कोई ऑडिट, कोई आंकड़ा, कोई पैमाना है। जवाब आसान है - ऐसा कुछ भी नहीं है। तभी यह खेल अभी भी जारी है। हिस्सेदारी-भागीदारी की बात करने वाले अपने ही दल में जातिगत गिनती और उसी के अनुपात में भागीदारी नहीं देंगे।

हम दुनिया के सबसे बड़े ‘निर्वाचन लोकतंत्र’हैं। लेकिन निर्वाचनों में प्रत्याशियों में चयन के लिए जाति एक प्रमुख तत्त्व है। अपने- अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए इसी जातिगत आधार पर चुनाव प्रचार होते हैं। मंत्रिमंडलों का निर्माण भी, खासकर राज्यीय स्तर पर जातीय भावनाओं से ओतप्रोत रहता है। अब तो राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशियों के चयन में भी यह तत्त्व घुस चुका है। विदेशों तक में जाति के मसलों को एक्सपोर्ट किया जा चुका है। अमेरिका में भारतीयों के चलते जातिगत कानून बनाने पड़ रहे हैं।

जातियों की गिनती से मजलूमों, गरीबों और पिछड़ों को क्या फायदा होगा इसका जवाब नेतानगरी के पास फिलवक्त यही है कि इससे जातीय ग्रुपों के डेवलपमेंट में मदद मिलेगी। लेकिन जहां सब गरीब होंगे उस गांव में क्या सिर्फ जातीय आधार पर उत्थान किया जाएगा? तब बाकियों का क्या होगा? किसी देश या समाज का विकास जाति के आधार पर कैसे हो सकता है, यह फ़ार्मूला किसी के पास है क्या? सीधा सा उत्तर है- बिलकुल नहीं। पर जाति के आधार पर विकास का फ़ार्मूला बिहार व उत्तर प्रदेश में लालू व मुलायम की जातियों में दिख सकता है। पर यादव जाति ने कितनी जातियों का हक़ मारा है, तब जाकर विकास हो पाया है। इस विकास में ‘जितनी संख्या भारी, उतनी हिस्सेदारी ‘ के फ़ार्मूले को जगह कहाँ मिल पाई।

जाति का विकास सबसे पहले अपने समूचे परिवार को संतृप्त करने बाद ही जाति की ओर बढ़ता है। नाम लेने की ज़रूरत नहीं है। यह किसी भी जातिवादी राजनीतिक दल में देखा जा सकता है। पार्टी व सरकार के सभी निर्णायक पदों पर सुप्रीमों की जाति के ही लोग रहते हैं। जिस कर्पूरी ठाकुर जी के राज्य से जाति जाति के खेल की शुरूआत हुई है। उनका समर्थन करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्पूरी ठाकुर जी 22.12.1970 से 2.6.1971 तक और 24.6.1977से 21.4.1979 तक मुख्यमंत्री रहे। यह न तो मंडल कमंडल का दौर था। न ही जातीय राजनीति का कालखंड। नीतीश कुमार के जातीय सर्वेक्षण में कर्पूरी जी की जाति के लोगों की संख्या केवल 1.5927 फ़ीसदी है। इसका सीधा सा मतलब है कि नये फ़ार्मूले में तो कर्पूरी जी मुख्यमंत्री बन ही नहीं पाते। यह तो एक उदाहरण हैं। राजनीति में ऐसे असंख्य उदाहरण खोजे जा सकते हैं।

दिनकर भूमिहर थे। पर उनकी कविता ने 1977 में क्रांति का काम किया। महात्मा गाँधी, जय प्रकाश नारायण व राम मनोहर लोहिया ने जो लड़ाई लड़ी वह उनके जाति की नहीं थी। ये देश व समाज के लिए लड़े थे। जिस समाज में कार्य से अधिक जाति को अहमियत मिल रही हो वह देश या समाज के लिए क्या कुछ कर पायेगा? जातीय राजनीति का फ़ार्मूला किसी जाति या समाज के विकास से बिल्कुल नहीं जुड़ता है। यह अंग्रेजों की बाँटो व राज करो का भारतीय स्वरूप है। बंटी हुई जातियों के समवेत स्वर नहीं होंगे। बाँट,काट, छाँट कर रखने पर अनसुनी करना आसान होगा। सवाल बहुत हैं। जवाब आसान नहीं हैं। जड़ें बहुत गहरी हैं। लेकिन एक बार उन समाजों के बारे में भी सोचियेगा जहां जाति नहीं होती। उनमे और हममें फर्क भी देखिए परखियेगा।

( लेखक पत्रकार है।)



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Durgesh Sharma

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