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गजब!भूरी बाई की दिहाड़ी मजदूर से विश्व प्रसिद्ध चित्रकार बनने की दिलचस्प कहानी
जयपुर : आज के समय में हर कोई पहचान के पीछे भाग रहा है। किसी तरह से पैसों के साथ नाम हो जाएं। दुनिया जाने, लेकिन कभी-कभी लाख जतन के बाद भी हम नाम नहीं कमा पाते , ना ही पहचान। लेकिन कुछ लोगों की किस्मत ऐसी होती है कि कामयाबी व पहचान उनके दरवाजे पर खुद दस्तक देती है।ऐसी ही दास्तां है। मध्यप्रदेश की आदिवासी महिला भूरी बाई की।
भूरी बाई ने अपनी कला के जरिए विशिष्ट पहचान बनाते हुए साबित कर दिखाया है कि साधनहीन, ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं में भी लगन और कुछ कर दिखाने की तमन्ना हो तो वे भी सफलता का परचम लहरा सकती हैं। मध्यप्रदेश का सर्वोच्च शिखर सम्मान हासिल करने वाली आदिवासी कलाकार भूरी बाई किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास, चांदी के भारी आभूषणों से सजी भूरी बाई को छुियों में गांव जाने पर खेती करना और लोकगीतों की मधुर ध्वनि बेहद भाती है। गांव की माटी की सुगंध, हरियाली बेहद पसंद है।
पत्तियों के रंग से चित्रांकन की शुरूआत करने वाली भूरीबाई ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि आगे चलकर वे नामी कलाकार बन जाएंगी।
भूरी बाई आज जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने का सपना भी उन्होंने कभी नहीं देखा था। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि आपके साथ घटी एक घटना ही आपके पूरे भविष्य की बुनियाद बन जाती है। भूरी बाई के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।भूरी बाई को चित्र बनाने की प्रेरणा घर-परिवार और आसपास के माहौल से मिली। तीज-त्योहारों में मां के बनाए गए भित्ति चित्रों को देखकर ही उन्होंने पारंपरिक रंगों से चित्र बनाना सीखा। बचपन में खेल-खेल में घर के आंगन और दीवारों पर खडिया, गेरू, काजल, हल्दी, सेमल की पत्तियों के रंग से चित्रांकन की शुरूआत करने वाली भूरीबाई ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि आगे चलकर उनकी यही कला दुनिया में पहचान बनाएगी।
भूरी बाई बचपन से ही घर की दीवार और आंगन में पेंटिंग करती थीं। 17 साल की उम्र में ही भूरी बाई की शादी कर दी गई थी। शादी के बाद भूरी बाई अपने पति जौहर सिंह के साथ जब वो काम की तलाश में भोपाल आई, उस समय भारत भवन में निर्माण कार्य चल रहा था। एक दिन काम के दौरान ही वो जमीन पर बैठे चित्र बना रही थीं, तभी मशहूर चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन ने उन्हें देखा। स्वामीनाथन ने भील जनजाति से जुड़ी होने के कारण उनसे तीज -त्योहार पर बनाए जाने वाले पारंपरिक चित्रों को बनाने के बारे में कहा तो उन्होंने पहली बार कागज, कैनवास, ब्रश और एक्रेलिक रंगों का प्रयोग किया। स्वामीनाथन को उनके बनाए चित्र पसंद आए। उन्हें दिहाड़ी मजदूरी में मिलने वाले छह रूपयों की जगह दस रूपए रोज चित्र बनाने का मेहनताना मिलने लगा।प्रोत्साहन और सहयोग से वो एक मजदूर से चित्रकार बन गई।
कुछ दिनों बाद मुझे भारत भवन में चित्र बनाने के लिए बुलवाया गया। दस चित्र के मुझे 1500 रुपए मिले। मुझे यकीन नहीं आया। सिर्फ चित्र बनाने के इतने पैसे। मेरे रिश्तेदार और गांव के लोग मेरे पति को भड़काते भी थे, तरह-तरह की बातें करते थे, लेकिन पति ने कभी रोक-टोक नहीं की। फिर पेंटिंग बनाना छूट गया। उसके बाद मैंने पीडब्ल्यूडी में भी मजदूरी की, कई सालों तक। एक दिन मेरे पति के पहचान वाले ने बताया कि तुम्हारी पत्नी भूरी का अखबार में फोटो आया है। सरकार उसे शिखर सम्मान देगी। तब जाकर उनके परिवार वालों को उनके हुनर की कद्र हुई।
पिथोरा भील आदिवासी समुदाय की एक ऐसी कला-शैली है जिसमें गांव के मुखिया की मौत के बाद उन्हें हमेशा अपने बीच याद रखने के लिए गांव से कुछ कदमों की दूरी पर पत्थर लगाया जाता है। और फिर इस पत्थर पर एक विशेष किस्म का घोड़ा बनाया जाता है। यह विशेष किस्म का घोड़ा ही पिथोरा चित्रकला को खास पहचान देता है। किंतु भीलों में यह विशेष किस्म का घोड़ा बनाने की इजाजत केवल पुरुषों को ही दी जाती है। यही वजह है कि भूरी बाई ने अपनी चित्रकला की शैली में घोड़े की डिजाइन बदल दी है।भूरी बाई ने बताया कि कोलकाता के एक कलाप्रेमी ने उनकी एक पेंटिंग डेढ़ लाख में खरीदी। फिर उनको अमेरिका में फोकआर्ट मार्केट के लिए बुलाया गया, जहां दुनियाभर के कलाकार आए थे। सब लोग उनके चित्र को बहुत पसंद कर रहे थे। उनके पति ने भी उनसे भीली चित्र बनाना सीख लिया था और उनका हाथ बंटाने लगे थे।
भूरी बाई के मुताबिक, 'अगर आदिवासी लोक-कला और संस्कृति विभाग ने उनकी कला की कद्र न करते हुए बतौर आर्टिस्ट उसे काम नहीं दिया होता, तो वे आज गांव में गुमनाम जिंदगी जी रही होतीं।' उन्हें मध्यप्रदेश का सर्वोच्च शिखर सम्मान, अहिल्या सम्मान और रानी दुर्गावती सम्मान के साथ अनेक कला पुरस्कार मिल चुके हैं।