Bindeshwar Pathak: ऐसे थे बिंदेश्वर पाठक जो ठान लिया उसे कर दिखाया, आज हर कोई उनके कार्य की कर रहा तारीफ | News Track in Hindi
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Bindeshwar Pathak: ऐसे थे बिंदेश्वर पाठक जो ठान लिया उसे कर दिखाया, आज हर कोई उनके कार्य की कर रहा तारीफ

Bindeshwar Pathak: पाठक कहते थे, ‘मेरी मां ने मुझे हमेशा दूसरों की मदद करना सिखाया। मां ने मदद के लिए आए किसी भी व्यक्ति को कभी मना नहीं किया। उनसे मैंने बदले में कुछ भी अपेक्षा किए बिना देना सीखा।

Ashish Pandey
Published on: 15 Aug 2023 6:55 PM
Bindeshwar Pathak: ऐसे थे बिंदेश्वर पाठक जो ठान लिया उसे कर दिखाया, आज हर कोई उनके कार्य की कर रहा तारीफ
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ऐसे थे बिंदेश्वर पाठक जो ठान लिया उसे कर दिखाया: Photo- Social Media

Bindeshwar Pathak: पाठक कहते थे, ‘मेरी मां ने मुझे हमेशा दूसरों की मदद करना सिखाया। मां ने मदद के लिए आए किसी भी व्यक्ति को कभी मना नहीं किया। उनसे मैंने बदले में कुछ भी अपेक्षा किए बिना देना सीखा। ऐसा कहा जाता है कि इंसान अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए पैदा होता है।‘ पाठक ने इन मूल्यों को अपने जीवन में जल्दी ही शामिल कर लिया।

सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक 15 अगस्त यानी आज निधन हो गया। दिल्ली के एम्स में उन्होंने मंगलवार को अंतिम सांस ली। पाठक का निधन समाज के लिए एक बड़ी क्षति है। उन्होंने समाज के लिए काफी किया है। बिंदेश्वर पाठक ने पांच दशकों से अधिक समय तक चलने वाले राष्ट्रव्यापी स्वच्छता आंदोलन के निर्माण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। पाठक के योगदान ने उन लाखों वंचित गरीबों के जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाया जो शौचालय का खर्च नहीं उठा सकते थे और जो लोग मैला ढोने का काम करते थे।

पाठक ने पिछले 50 वर्षों में सूखे शौचालयों को साफ करने वाले हाथ से मैला ढोने वालों के मानवाधिकारों के लिए अथक प्रयास किया, जो भारत की जाति-आधारित व्यवस्था के सबसे निचले तबके से आते हैं और उसमें ज्यादातर महिलाएं हैं।

मां ने हमेशा दूसरों की मदद करना सिखाया-

डॉ. बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बाघेल गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी मां योगमाया देवी और उनके पिता रमाकांत पाठक थे-जो समुदाय के एक सम्मानित सदस्य थे। पाठक अपनी मां के बहुत करीब थे और उनसे काफी प्रभावित थे। पाठक कहते थे, ‘मेरी मां ने मुझे हमेशा दूसरों की मदद करना सिखाया। मां ने मदद के लिए आए किसी भी व्यक्ति को कभी मना नहीं किया। उनसे मैंने बदले में कुछ भी अपेक्षा किए बिना देना सीखा। ऐसा कहा जाता है कि इंसान अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए पैदा होता है।‘ पाठक ने इन मूल्यों को अपने जीवन में जल्दी ही शामिल कर लिया।

ईमानदारी और सत्यनिष्ठा मार्गदर्शक सिद्धांत रहे-

पाठक के जीवन में ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पूरे जीवन और करियर में मार्गदर्शक सिद्धांत रहे। उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल, जिस प्रतिष्ठित संगठन की स्थापना की थी, वह उन मूल्यों पर आधारित उद्यम और दृढ़ता के माध्यम से बनाया गया था। पाठक ने अपना बचपन और किशोरावस्था गाँव में बिताया जहाँ उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। बाद में वह पटना चले गए और बीएन कॉलेज में दाखिला लिया, वहां से उन्होंने समाजशास्त्र में स्नातक किया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने एक स्वयंसेवक के रूप में पटना में गांधी शताब्दी समिति में शामिल हो गए।

मिशन स्वच्छता-

बिहार गांधी शताब्दी समिति के लिए काम करते समय पाठक को संगठन के महासचिव सरयू प्रसाद ने अछूतों के मानवाधिकारों और सम्मान की बहाली के लिए काम करने के लिए कहा-उन्हें बेतिया नामक शहर में भेज दिया गया।‘ जब वे बिहार के बेतिया में थे तो उनकी बचपन की यादें ताजा हो गईं। यहां, उन्होंने समस्याओं की भयावहता को प्रत्यक्ष रूप से देखा। हाथ से मैला ढोने वालों के समुदाय-जिन्हें अछूत भी कहा जाता है-के साथ क्रूरतापूर्वक व्यवहार किया जाता था। विशेष रूप से एक घटना ने उनके जीवन पर अमिट छाप छोड़ी।

एक दिन एक दर्दनाक घटना देखी-

एक दिन वहां काम करते हुए पाठक ने एक दर्दनाक घटना देखी। उन्होंने देखा कि एक सांड लाल शर्ट पहने एक लड़के पर हमला कर रहा है। जब लोग उसे बचाने के लिए दौड़े तो किसी ने चिल्लाकर कहा कि वह अछूत है। भीड़ ने तुरंत उसका साथ छोड़ दिया और उसे मरने के लिए छोड़ दिया।‘ इस दुखद और अन्यायपूर्ण घटना ने पाठक की अंतरात्मा को अंदर तक झकझोर कर रख दिया था। उस दिन, उन्होंने महात्मा गांधी के सपनों को पूरा करने की शपथ ली, जो अछूतों के अधिकारों के लिए था। उसी दिन से यह उनका मिशन बन गया। ‘

1968 में, अछूतों की दयनीय स्थिति से परेशान और महात्मा गांधी के दर्शन और शिक्षाओं से प्रेरित होकर पाठक एक ऐसी तकनीक लेकर आए जो शुष्क शौचालयों की जगह ले सकती थी। उन्होंने एक टिकाऊ तकनीक का आविष्कार किया जिसे दो-गड्ढे वाले फ्लश शौचालय के रूप में जाना जाता है, जो बाल्टी वाले शौचालयों की जगह ले सकता है जिन्हें साफ करने के लिए मैन्युअल मैला ढोने वालों की आवश्यकता होती है और अंततः इस अमानवीय प्रथा का अंत हो गया। इस प्रकार डॉ. पाठक ने मैला ढोने वालों को मुक्ति दिलाने के लिए स्वच्छता आंदोलन शुरू किया।

पाठक आश्वस्त थे कि मैला ढोने वालों को उनके अमानवीय व्यवसाय से मुक्त कराने के लिए हर घर में एक उचित शौचालय होना चाहिए। उन दिनों भारतीय गाँवों में, अधिकांश घरों में शौचालय ही नहीं होता था। जिन घरों में शौचालय थे वे शुष्क शौचालय थे जिन्हें ‘‘अछूतों‘‘ द्वारा मैन्युअल रूप से साफ किया जाना था। खुले में शौच एक सामान्य घटना थी। महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित थीं। उन्हें शौच के लिए अंधेरे में-सुबह जल्दी या सूर्यास्त के बाद बाहर जाना पड़ता था-और इसलिए अपराध, सांप के काटने और यहां तक कि जानवरों के हमलों का जोखिम बहुत अधिक था।

1974 में, बिहार सरकार ने सभी स्थानीय निकायों को एक परिपत्र भेजा जिसमें पाठक द्वारा डिजाइन किए गए बाल्टी शौचालयों को सुलभ दो-गड्ढे वाले पोर-फ्लश शौचालयों में बदलने के लिए सुलभ की मदद ली गई, ताकि सफाईकर्मियों को अमानवीय स्थिति से राहत मिल सके। मानव मल को हाथ से साफ करना और उसे सिर पर बोझ के रूप में ढोना। इसके बाद यह कार्यक्रम पूरे बिहार में चलाया गया। उसी वर्ष, पाठक ने भुगतान और उपयोग के आधार पर सार्वजनिक शौचालयों के रखरखाव की प्रणाली शुरू की। उस समय भारत में यह एक नया कॉन्सेप्ट था लेकिन जल्द ही यह पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। 1980 तक अकेले पटना में 25000 लोग सुलभ सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग कर रहे थे। कार्यक्रम की सफलता इतनी थी कि जल्द ही इसने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस का ध्यान आकर्षित किया।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने पाठक के मिशन की सराहना की-

न्यूयॉर्क टाइम्स ने 1980 में एक लेख में डॉ. पाठक के मिशन की सराहना की और उन्हें ‘‘विकास में स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका का एक मुखर समर्थक‘‘ बताया। अखबार ने आगे कहा, ‘‘सफलता का प्रमुख कारण पाठक की समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक प्रतिभा है - वह जानते हैं कि विचारों को कार्य में कैसे अनुवादित किया जाए और लोगों को कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाए।‘‘ 1985 में वाशिंगटन पोस्ट ने पाठक के मिशन को ‘‘दुर्जेय‘‘ के रूप में परिभाषित किया।

1991 में, डॉ. पाठक को हाथ से मैला ढोने वालों की मुक्ति और पुनर्वास के लिए उनके महान कार्य के लिए और शुष्क शौचालयों के विकल्प के रूप में काम करने वाली पोर-फ्लश शौचालय तकनीक प्रदान करके पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

महात्मा गांधी के पोते प्रोफेसर राजमोहन गांधी के शब्दों में, “मैं महात्मा गांधी के पुत्र का पुत्र हूं लेकिन डॉ. बिंदेश्वर पाठक उनकी आत्मा के पुत्र हैं। अगर हम एमके गांधी से मिलने जाते, तो वह पहले डॉ. पाठक को उनके द्वारा किए जा रहे नेक काम के लिए बधाई देते और फिर मुझसे मिलते।‘

Ashish Pandey

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