TRENDING TAGS :
Birsa Munda Jayanti: धरती आबा की कैसे हुई मौत, बिरसा को किसने दिया धोखा, आइये सब कुछ जानते हैं बिरसा मुंडा की जयंती पर
Birsa Munda Jayanti: बचपन में ही बिरसा ने अतीत में हुए मुंडा विद्रोह की कहानी सुन ली थी। उन्होंने कई बार समुदाय के सरदारों को विद्रोह का आह्वान करते देखा था । बीरसा के समुदाय के लोग ऐसे स्वर्ण युग की बात किया करते थे ।
Birsa Munda Jayanti: कहते हैं ना, जिंदगी ऐसे जियो की वह लंबी नहीं बड़ी लगे। बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का जीवन भी ऐसा ही था । उन्होंने सिर्फ 25 साल ही जिंदगी को दिए पर उनका 25 साल भी वर्षों तक याद किया जाएगा। कैसे एक 25 साल की युवा को भगवान का दर्जा मिला आइये समझते हैं ।
उलगुलान के महान नायक बिरसा मुंडा झारखंड की पहाड़ियों और जंगलों में जन्मा एक ऐसा महानायक जिसने अपने साहस और संघर्ष से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। आज हम बात कर रहे हैं बिरसा मुंडा की जिन्हें उनके अनुयायियों ने ‘धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा’ के रूप में पूजा।
बिरसा मुंडा का बचपन (Birsa Munda's childhood)
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को झारखंड के खूँटी जिले के उलिहातू गांव में हुआ। बिरसा का बचपन भेड़-बकरी चराते, नाचते गाते बीता था। उनकी परवरिश मुख्य रूप से बोगोंडा के आसपास के जंगलों में हुई। उन का बचपन बेहद गरीबी और संघर्ष में बीता। बचपन में ही बिरसा ने अतीत में हुए मुंडा विद्रोह की कहानी सुन ली थी। उन्होंने कई बार समुदाय के सरदारों को विद्रोह का आह्वान करते देखा था । बीरसा के समुदाय के लोग ऐसे स्वर्ण युग की बात किया करते थे । जब मुंडा लोग उत्पीड़न से मुक्त थे। सरदारों का कहना था कि एक बार फिर उनके समुदाय के परंपरागत अधिकार बहाल हो जाएंगे। वह खुद को मूल निवासियों का वंशज मानते थे। अपनी जमीन की लड़ाई यानी की मुल्क की लड़ाई के लिए लड़ रहे थे। इन वीरगाथाओं ने लोगों को अपना साम्राज्य पाने के लिए प्रेरित किया।
बिरसा का धर्म परिवर्तन (Birsa's conversion)
बिरसा ने अपने आसपास के अन्याय को देखा और महसूस किया छोटी सी उम्र में कैसे उनके समुदाय का विदेशी ताकते अपने लाभ के लिए शोषण कर रही हैं। उनके जीवन की परिस्थितियों कठिन थीं। लेकिन यही संघर्ष उन्हें आगे चलकर एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व करने की प्रेरणा देता है ।यह वो समय था जब ब्रिटिश शासन का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। आदिवासी समुदायों को अपनी ही भूमि और अधिकारों से वंचित किया जा रहा था । धीरे-धीरे ब्रिटिश मिशनरियों ने आदिवासी समाज में अपने धर्म का प्रचार शुरू किया था । बिरसा ने मिशनरी स्कूल में दाखिला लिया जहां उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ धर्म के विभिन्न पहलुओं को समझा ।
बिरसा का परिवार उनके जन्म के पहले ही ईसाई धर्म स्वीकार कर चुका था 1886 से 1890 तक बीरसा चाईबासा के जर्मन मिशनरी स्कूल में पढे। बाद में मिशनरयों से मुंडा सरदारों का संबंध विच्छेद होने के बाद बिरसा का मिशनरी के प्रति विचार बदला और वे मुंडा सरदारों के साथ उनके आंदोलन में शामिल हो गए । बिरसा के परिवार ने भी जर्मन मिशन धर्म त्याग कर रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार कर लिया । फिर 1891 में बिरसा का परिवार गांव आ गया, जहां बिरसा को वैष्णव धर्मगुरु आनंद पांडे का साथ मिला। वे इस धर्म के करीब रहे, उन्होंने जनेऊ धारण किया और गोकशी पर प्रतिबंध लगाया। शुद्धता व दया पर जोर देने लगे। बिरसा ने मुंडाओं से आह्वान किया कि वह शराब पीना छोड़ दें। गांव को साफ रखें और डायन व जादू टोने में कतई विश्वास ना करें।
बनाया बिरसाइत धर्म (Birsaite religion)
1895 तक बिरसा को लोग एक मसीहा की तरह देखने लगे थे। वे उनके पास अपनी समस्याओं के निदान के लिए आने लगे ।उन्होंने एक नया धर्म शुरू किया जिसका नाम बिरसाइत हुआ।इसे मानने वाले लोग प्रकृति की पूजा करते हैं। आगे चलकर बिरसाइत के हजारों अनुयाई हुए ।आज भी झारखंड में बिरसाई धर्म को मानने वाले अनुयाई हैं। यहीं पर बिरसा ने महसूस किया कि उनका समुदाय विदेशी मिशनरियों और जमींदारों के शोषण का शिकार हो रहा है ।उन्होंने धीरे-धीरे अपने लोगों को जागरूक करना शुरू किया। उन्हें एकजुट होने के लिए प्रेरित किया । बिरसा ने आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष का बिल्कुल बजाया।
शुरू हुआ उलगुलान (Ulgulan)
अंग्रेजों ने आदिवासियों की जमीन को हड़पने के लिए फॉरेस्ट एक्ट पारित किया ।अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को काटकर खेती करने का आदेश दिया। जिसका आदिवासियों ने विरोध किया। लेकिन आदिवासियों के पास नेतृत्व का अभाव था । जब नेतृत्व का अभाव था तो ऐसी स्थिति में उनके विरोधों को कुचल दिया गया। लेकिन 1875 के अंदर पैदा हुए बिरसा मुंडा जब मात्र 20 साल के हुए तो 1895 के अंदर इन्होंने नेतृत्व देने की बात की। इस कारण से इन्हें वहां के लोगों ने नाम दिया धरती आबा का । इन्होंने अंग्रेजों की इस राजस्व व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई करना शुरू किया । अपने साथ में और सैनिकों को लेकर के इन्होंने पुलिस थानों पर बोलना शुरू किया । अंग्रेजो को इतना डरा दिया कि जहां-जहां पुलिस चौकियां बनी हुई थी। वहां वहाँ आदिवासियों के हमले होने लगे। इस वजह से पुलिस चौकिया को पीछे हटना पड़ा। पुलिस को उसे पूरे की पूरे फॉरेस्ट क्षेत्र से निकलना पड़ा । फिर उलगुलान यानी विद्रोह का आह्वान किया। उनका उद्देश्य स्पष्ट था अपने लोगों को उनकी भूमि और अधिकार वापस दिलाना।
बिरसा ने अपने भाषणों में सभी को संगठित होने और अपनी संस्कृति अपनी परंपराओं के साथ जुड़े रहने का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि हमें अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना है जिसके परिणाम स्वरुप बिरसा और उनके अनुयायियों ने ब्रिटिश शासन और उनके समर्थकों के खिलाफ खुलकर विद्रोह किया। उन्होंने जमीदारों, ठेकेदारों और अन्य शोषणकर्ताओं के खिलाफ आवाज उठाई। उनका यह आंदोलन न केवल राजनीतिक विरोध था बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी था। जिसमें मुंडाओं को अपनी पहचान, सम्मान और परंपराओं के संरक्षण का संदेश दिया गया। उनके क्रांतिकारी विचारों और प्रभाव से ब्रिटिश सरकार परेशान हो गई और गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया । लेकिन उनका आंदोलन उलगुलान थमा नहीं। जेल में भी बिरसा का हौसला कम नहीं हुआ । उन्होंने अपने साथियों को संघर्ष जारी रखने का संदेश भेजा। उनकी गिरफ्तारी ने उनके आंदोलन को और तेज कर दिया।1895 से 1897 में इन्होंने अंग्रेजों के द्वारा जिन क्षेत्रों पर कब्जे किए गए । थे वह अधिकांश क्षेत्र छुड़ा लिए।
500 रूपये के लालच में हुई गिरफ्तारी (Birsa's arrest)
अंग्रेजों ने उनको गिरफ्तार करने के लिए ₹500 का इनाम रखा । यह ₹500 आज के समय में शायद 50 लाख रुपये से ऊपर है। इस ₹500 के लालच में एक व्यक्ति ने जो बिरसा को जानता था, उन्होंने अंग्रेजों को इनका पता दे दिया। इन्हें गिरफ्तार किया गया और रांची की जेल में डाल दिया गया। कहते हैं अंग्रेजों ने इन्हें कोई स्लो प्वाइजन दे दिया, स्लो प्वाइजन के कारण इनका शरीर धीरे-धीरे खत्म होने लगा और 9 जून वर्ष 1900 को इनका देहांत हो गया।
बिरसा की मृत्यु (Birsa's death)
9 जून, 1900 को बिरसा की मृत्यु जेल में हो गई। उनकी मृत्यु के साथ एक महानायक का अंत हुआ। लेकिन उनके विचार और उनका संघर्ष आज भी आदिवासियों के दिलों में जीवित है । बिरसा मुंडा के संघर्ष को पहचान देने के लिए 15 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘जनजातियों के गौरव दिवस ‘ मनाने की घोषणा की । इसी दिन 15 नवंबर, 2000 को बिरसा मुंडा के प्रयासों से झारखंड को नई पहचान मिली। नये राज्य का दर्जा मिल सका।इसी लिए 15 नवंबर के दिन को ही झारखंड राज्य के स्थापना दिवस के रूप में भी मनाते हैं।