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मोहन धारियाः एकमात्र मंत्री जो इंदिरा गांधी से लड़ गया था, ये था मामला

नेता का जन्म 14 फरवरी 1925 को महाराष्ट्र के रायगढ़ में हुआ था। उनका विवाह शशिकला से हुआ और उनकी तीन संतानें हुईं। मोहन धारिया मेडिकल सर्जन बनना चाहते थे लेकिन 1942 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण पढ़ाई छूट गई।

Roshni Khan
Published on: 14 Feb 2021 4:37 AM GMT
मोहन धारियाः एकमात्र मंत्री जो इंदिरा गांधी से लड़ गया था, ये था मामला
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मोहन धारियाः एकमात्र मंत्री जो इंदिरा गांधी से लड़ गया था, ये था मामला (PC: social media)

रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: एक समय भारतीय राजनीति के बहुत बड़े नाम रहे इस शख्स को आज के दौर में शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। लेकिन इस शख्स का राजनीतिक जीवन 50 साल का गौरवपूर्ण रहा। और इसके बाद ये वानिकी को समर्पित हो गए इनके द्वारा स्थापित वनराई आज भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम कर रही है।

गांधीवादी नेता मोहन धारिया का ने एक अवसर पर कहा था, ''ये बड़े दुख की बात है कि गांधी के विचारों को उन्हीं के अनुयायियों ने ख़त्म कर दिया, लेकिन बदलती परिस्थितियों में उनकी बातें एक बार फिर प्रासंगिक हो गई हैं।''

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इस नेता का जन्म 14 फरवरी 1925 को महाराष्ट्र के रायगढ़ में हुआ था। उनका विवाह शशिकला से हुआ और उनकी तीन संतानें हुईं। मोहन धारिया मेडिकल सर्जन बनना चाहते थे लेकिन 1942 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण पढ़ाई छूट गई। बाद में उन्होने कानून की पढ़ाई की और बाम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की।

17 साल की उम्र में किशोर मोहन स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। महाद तहसील पर कब्जे के लिए युवा मार्च का नेतृत्व किया। भूमिगत रहे लेकिन अंततः पकड़े गए। 1942 में सजा हुई। मोहन ने पीपुर्स आर्मी बनायी और जंजीरा स्टेट को 1948 में आजाद कराया। जिसका बाद में भारत में विलय हो गया।

mohan-dharia mohan-dharia (PC: social media)

मोहन धारिया में युवाओं को संगठित करने की अद्भुत शक्ति थी

मोहन धारिया में युवाओं को संगठित करने की अद्भुत शक्ति थी। उनकी एक आवाज पर सैकड़ों युवा जुट जाते थे। उन्होंने महाराष्ट्र में पोस्टमैन, स्टेट ट्रांसपोर्ट, बैंक आदि तमाम यूनियनों का नेतृत्व किया। बाद में उन्होंने नेशनल लेबर सेंटर की स्थापना की।

1957-60 के दौरान डा. धारिया पुणे म्युनिसिपल कारपोरेशन के सदस्य रहे। पुणे म्युनिसिपल ट्रांसपोर्ट के अध्यक्ष के रूप में इसे एक नई दिशा दी।

1962 के आम चुनाव में धारिया महाराष्ट्र राज्य कांग्रेस कमेटी के महासचिव और चुनाव प्रभारी रहे। वह एआईसीसी के 1962 से 1975 तक सदस्य रहे। मोहन धारिया और उनके साथियों को युवा तुर्क के नाम से जाना जाता था जो सरकार की गलत नीतियों का खुलकर विरोध करते थे। धारिया 1964 से 1971 तक राज्यसभा और 1971 से 1979 तक लोकसभा के सदस्य रहे।

मोहन धारिया संसद में मुखर युवा नेता के रूप में पहचाने जाते थे

मोहन धारिया संसद में मुखर युवा नेता के रूप में पहचाने जाते थे। उनके भाषणों में संतुलन दृष्टिकोण और गहरी जानकारी ने उन्हें पूरे देश में लोकप्रिय बना दिया था। 1971 से 1975 तक वह देश के योजना, आवास और शहरी विकास मंत्री रहे। धारिया सीड कैपिटल स्कीम को लाये और करीब चार लाख युवाओं को आत्म निर्भर बनाया।

डॉ. धारिया ने दस लाख से अधिक शहरों की जनसंख्या वृद्धि को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव रखा

1974 में डॉ. धारिया ने दस लाख से अधिक शहरों की जनसंख्या वृद्धि को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव रखा। इसके बाद उन्हें उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के संबंध में एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए उच्च स्तरीय नीति समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया। पूरे देश के दौरे के बाद, समिति ने एक व्यापक रिपोर्ट तैयार की, जिसने निर्माता को पारिश्रमिक मूल्य देकर और लोगों को उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के लिए कीमतों को स्थिर करने के लिए स्थायी समाधान का सुझाव दिया।

रिपोर्ट को "धारिया समिति की रिपोर्ट" के रूप में जाना जाता है

इस रिपोर्ट को "धारिया समिति की रिपोर्ट" के रूप में जाना जाता है। धारिया कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए तत्कालीन सरकार और प्रधान मंत्री से भी प्रतिरोध था। अंततः, हालांकि, बहुत आग्रह के बाद, यह कैबिनेट और जनता पार्टी सरकार द्वारा स्वीकार किया गया उस समय डॉ. धारिया नागरिक आपूर्ति मंत्री थे।

mohan-dharia mohan-dharia (PC: social media)

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1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो डॉ. धारिया ने इसका तीव्र विरोध करते हुए इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण से बात करने की सलाह दी थी। वह इंदिरा गांधी की कैबिनेट के एकमात्र मंत्री थे जिसने न सिर्फ आपातकाल का विरोध किया बल्कि इस मसले पर इस्तीफा भी दिया। आजादी की लड़ाई के दौरान भी सामाजिक न्याय के लिए धारिया को अनेक बार सजा हुई। डा. धारिया ने अपने सिद्धांतों और मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। 1990-91 के दौरान वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। बाद में वह सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर पर्यावरण संरक्षण के मिशन में समर्पित हो गए।

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