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2018 के चुनाव : त्रिपुरा में भी अपना विजय रथ चलना चाहती है भाजपा
नीलमणि लाल
भाजपा अपना चुनावी विजय रथ त्रिपुरा में भी चलना चाहती है और इसके लिए कई साल से तैयारी भी की जा रही है। वैसे, त्रिपुरा में भाजपा (उस समय जनता पार्टी) एक बार शासन भी कर चुकी है, 1977 में जनता पार्टी की सरकार राधिका रंजन गुप्ता के मुख्यमंत्रित्व में बनी थी लेकिन ये सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई।
बहरहाल, राज्य में भाजपा का मुकाबला सीपीएम के बेहद ताकतवर कैडर से है जो गाँव-गाँव में फैला हुआ है। चूंकि वामपंथी काफी लंबे समय से त्रिपुरा में काबिज हैं और यह स्थिति वैसी ही है जैसी कभी बंगाल में हुआ करती थी और यह दीगर है कि बंगाल से वामपंथियों को उखाडऩे में ममता बनर्जी को बरसों लग गये थे।
वामपंथियों के आखिरी किलों - त्रिपुरा और केरल में भाजपा और संघ ने काफी पहले से अपनी तैयारी चला रखी है और संगठन के कार्यकर्ता इन राज्यों के गाँव-गाँव में पार्टी और को मजबूत करने में जुटे हुए हैं। जमीनी मजबूती के अलावा भाजपा के पक्ष में जो सबसे बड़ी बात जाती है वह है युवाओं के बीच मोदी का जादू।
मोदी की आक्रामक नीति से युवा वर्ग प्रभावित है और इसमें यह सोच भी बनी है कि केंद्र व राज्य में एक पार्टी की सरकार होने से ही राज्य को फायदा हो सकता है। युवाओं में सीपीएम शासन के प्रति असंतोष होने की वजह बेरोजगारी, गरीबी और विकास को ले कर है। युवाओं के वोट के अलावा कंाग्रेस के परंपरागत वोट भी भाजपा को मिलना तय ही मना जाना चाहिए।
क्षेत्रीय दलों से दोस्ती
उत्तर पूर्व के सभी राज्यों में छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल काफी हैं, इनका अलग-अलग पॉकेट्स में खासा प्रभाव रहता है। इसी को देखते हुए भाजपा ने क्षेत्रीय दलों से दोस्ती करने की रणनीति बनाई हुयी है। इसी रणनीति के तहत ही राज्य की तृणमूल कंाग्रेस की पूरी इकाई का विलय भाजपा में हो चुका है। भाजपा, इन दलों के सदस्यों को अपने साथ लेने, राज्य की सबसे बड़ी आदिवासी पार्टी में अनबन का फायदा उठाने और अलग राज्य की मांग को लेकर स्वायत्त त्रिपुरालैंड काउंसिल बनाने के वादे की रणनीति पर चल रही है।
इन्डिजनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्विपरा (आईपीएफटी) में दो फाड़ का भी फायदा भाजपा को मिलेगा और उसका आईपीएफटी से अनौपचारिक तौर पर गठबंधन हो जानी पूरी संभावना है। इसके अलावा सर्वानंद सोनोवाल के असम का मुख्यमंत्री बनने से राज्य की छात्रों की पार्टी का समर्थन लेने में भी बीजेपी को आसानी होगी।
भाजपा के सामने चुनौतियाँ
समूचे उत्तर पूर्व में त्रिपुरा सबसे शांतिपूर्ण राज्य है। माणिक सरकार ने राज्य से सफलतापूर्वक नक्सलवाद का खात्मा किया है, और यही कारण रहा है कि केंद्र सरकार ने यहाँ से आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट हटा लिया था। माणिक सरकार अपनी इसी उपलब्धि को चुनाव में जरूर भुनाएंगे।
पांच बार के वामपंथी मुख्यमंत्री माणिक सरकार के स्टेटस का कोई स्थानीय नेता भाजपा के पास नहीं है।
सीपीएम की जमीनी स्तर पर बहुत गहरी पैठ है। पार्टी ने हर तरह के श्रमिकों के संगठन बना रखे हैं, गांव-गांव में पार्टी कमेटियां हैं। किसानों-ग्रामीण मजदूरों के बीच कैडर की खासी पैठ है।
माणिक सरकार के समक्ष चुनौतियाँ
मुख्यमंत्री माणिक सरकार की इमेज बहुत सा$फ सुथरी है। लेकिन राज्य ही हालत वही है जो दशकों पहले थी। गरीबी, बेरोजगारी बढ़ती ही गयी है और विकास का नामोनिशान नहीं, यही राज्य की पहचान बनी हुयी है।
राज्य में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और इसके खिलाफ कोई सख्त कदम पिछले 35 साल की सरकारों के दौरान नहीं उठाये गए हैं। इसके अलावा माणिक सरकार को ‘एंटी इन्कमबैन्सी’ स्थिति का सामना करना पड़ेगा।
आरएसएस ने त्रिपुरा में काफी फोकस किया है। संघ प्रमुख भागवत ने हाल में राज्य में चार दिन प्रवास भी किया है।
कांग्रेस का हाल
कांग्रेस त्रिपुरा में तीन बार राज कर चुकी है - 1963-71, 1972-77 और 1992 से 93 तक। फिलहाल कंाग्रेस विपक्ष में है और अगर सीपीएम बहुमत नहीं हासिल कर सकी तो कंाग्रेस का गेम प्लान उसके साथ मिल सरकार बनाने का होगा।
2013 का रिजल्ट
कुल सीट - 60 (सामान्य 30, एससी 10, एसटी 20)
कुल मतदाता - 2358493, मतदान - 91.82 फीसदी
नतीजा - सीपीएम - 49, कांग्रेस - 10, सीपीआई - 01
भाजपा 50 सीट पर लड़ी और 49 में जमानत जब्त हो गयी, कुल वोट शेयर रहा 1.54 फीसदी
सीपीएम का वोट शेयर 48.11 फीसदी तथा कांग्रेस का 36.53 फीसदी रहा
2008 का रिजल्ट
सीपीएम - 46, कांग्रेस - 10, सीपीआई - 01, आरएसपी - 02, आएएनपीटी - 01
भाजपा ने 1.49 फीसदी वोट पाए, सीपीएम ने 48.01 फीसदी तथा कांग्रेस ने 36.38 फीसदी वोट पाए
त्रिपुरा में किस धर्म के कितने लोग
हिन्दू - 83.40 फीसदी, मुस्लिम - 8.60 फीसदी, ईसाई - 4.35 फीसदी, बौद्ध - 3.41 फीसदी।