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लोकसभा चुनाव : सितारे जमीं पर

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Published on: 10 May 2019 10:50 AM GMT
लोकसभा चुनाव : सितारे जमीं पर
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लोकसभा चुनाव : सितारे जमीं पर

लखनऊ: 2019 के लोकसभा चुनाव में ध्रुवीकरण, गठबंधन, ऊटपटांग बयानबाजी को एक किनारे रख दें तो सबसे बड़ी बात है लगभग सभी दलों द्वारा बड़ी तादाद में सेलेब्रिटीजको बतौर प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारा जाना। यूं तो पहले भी तमाम सेलेब्रिटीज और फिल्मस्टार राजनीति के मैदान में हाथ आजमाते रहे हैं, लेकिन इस मर्तबा यह ट्रेंड ज्यादा तेजी पर है। उर्मिला मातोंडकर, निरहुआ, रवि किशन, सनी देओल, मिमी चक्रवर्ती, प्रकाश राज, जावेद हबीब, विजेंदर सिंह वगैरह, इनकी लिस्ट लंबी है। राजनीतिक दलों ने हमेशा से चुनावी दौड़ में सेलेब्रिटी पावर का इस्तेमाल किया है। कई बार यह कवायद सफल हो जाती है तो कई बार कुछ सेलेब्रिटीज राजनीतिक परिदृश्य में अपनी राह भटककर खो जाते हैं, लेकिन जिस तरह इस बार यह ट्रेंड बढ़ा है उससे लगता है कि जनता पारंपरिक नेताओं ने शायद ऊब भी चुकी है या उन पर भरोसा डगमगा रहा है।गंभीर नेताओं के मुकाबले फिल्‍मी नेताओं ने चुनाव जीतकर भी दिखाया है। इसके कई उदारहण पहले से हैं। चाहे हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे दिग्‍गज को इलाहाबाद में अमिताभ बच्‍चन द्वारा या फिर मौजूदा राज्‍यपाल राम नाईक को मुंबई में गोविंदा द्वारा पराजित किए जाने का किस्‍सा हो। ऐसे कई और वाकए भी हैं।

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दक्षिण भारत के राज्यों में ग्लैमर की राजनीति काफी पहले से है। तमिलनाडु में एम.करुणानिधि, एमजी रामचंद्रन और जयललिता फिल्मों से जुड़े रहे और लंबे समय तक तमिलनाडु की राजनीति में सिर्फ हावी ही नहीं रहे बल्कि तीनों ही प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। बात करें हिंदी की तो यह फिल्मी ग्लैमर की राजनीति से 90 के दशक तक मुक्त थी,लेकिन 2019 आते-आते राजनीतिक दलों पर ग्लैमर की राजनीति का खुमार चढ़ता रहा और इस समय परवान पर है।तमाम राजनीतिक दल अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ग्लैमर का इस्तेमाल कर रहे हैं। भाजपा और कांग्रेस के साथ-साथ क्षेत्रीय दल भी जनता को लुभाने के लिए ग्लैमर का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तो फिल्म के अलावा खेल जगत के ग्लैमर का भी इस्तेमाल राजनीति में हो रहा है।

समाजशास्त्री राजनीति में ग्लैमर के इस्तेमाल को अच्छा संकेत नहीं मानते। समाजशास्त्री डा.पी.के. सिंह का कहना है कि यूपी, बिहार जैसे राज्यों में फिल्मस्टार्स या अन्य सेलेब्रिटीज को जमीन की समझ नहीं है। इनको तो बस पार्टियां एक स्ट्रेटजी के तहत चुनाव मैदान में उतारती हैं। चुनाव जीतें या हारें, ये लोग पलटकर अपने चुनाव क्षेत्रों में नहीं जाते। जनता के हितों से इनका कोई सरोकार नहीं होता।

कांग्रेस ने शुरू किया था फार्मूला

हिंदी भाषी राज्यों में सेलेब्रिटीज को राजनीति में लाने की शुरुआत कांग्रेस ने की थी जब पार्टी ने 1984 के चुनाव में अमिताभ बच्चन को इलाहाबाद से चुनाव लड़ाया। 1984 में ही फिल्म अभिनेता सुनील दत्त मुंबई से लोकसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़े।अमिताभ बच्चन ने देश के एक बड़े नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा को चुनावों में शिकस्त दी थी। भाजपा ने भी कांग्रेस की देखादेखी 90 के दशक में फिल्म स्टार्स को राजनीतिक अखाड़े में उतारना शुरू किया। 1992 में नई दिल्ली में लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार राजेश खन्ना के खिलाफ भाजपा ने शत्रुघ्न सिन्हा को उतारा।भाजपा ने 1998 के बाद कई फिल्म स्टारों को पार्टी में ज्वाइन करवाया। इनके अलावा खिलाडिय़ों का भी राजनीति में इस्तेमाल किया। 2004 के बाद भाजपा की राजनीति में नौकरशाह भी आने लगे।

2019 में भाजपा सेलेब्स पर खासा निर्भर कर रही है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की गोरखपुर लोकसभा सीट पर भोजपुरी फिल्मस्टार रविकिशन को जबकि आजमगढ़ में अखिलेश यादव के खिलाफ भोजपुरी हीरो दिनेश लाल यादव निरहुआ को उतारा गया है। वहीं पंजाब के गुरदासपुर में भाजपा ने सनी देओल को उतारा है।दूसरी तरफ मथुरा से हेमामालिनी पहले से ही उम्मीदवार बनी हुई हंै। दिलचस्प बात है कि राजनीति में अनुभवहीन मनोज तिवारी को भाजपा ने लोकसभा ही नहीं भेजा, बल्कि दिल्ली भाजपा के संगठन की कमान भी दे दी। सिर्फ बसपा, जदयू और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां अभी तक फिल्मी ग्लैमर से दूरी बनाए हुए हैं।

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चुनावी आंकड़ों के अनुसार हिंदी व क्षेत्रीय सिनेमा इंडस्ट्री के दस कलाकार 16वीं लोकसभा में पहुंचे थे जबकि 2014 के चुनाव में 20-21 कलाकारों ने अलग-अलग पार्टियों से चुनाव लड़ा था। जो दस जीते उनमें 6 भाजपा से, 2 टीएमसी से और एक-एक लोक जनशक्ति पार्टी व आम आदमी पार्टी से थे।

भाजपा सबसे आगे

२०१४ में जो सेलेब्स जीते वह सभी भारी मतों के अंतर से जीते थे। छह प्रत्याशी तो एक लाख से ज्यादा वोटों से जीते। सबसे बड़ी जीत हेमामालिनी की मथुरा में रही जो ३,३०,७४३ वोटों से जीतीं। सबसे कम अंतर चंडीगढ़ में किरण खेर का रहा जो ६९,६४२ वोटों से विजयी रही थीं। बात करें वोट प्रतिशत की तो परेश रावल ने ६४.२२ फीसदी, शत्रुघ्र सिन्हा ने ५५.०४ फीसदी, हेमा मालिनी ने ५३.३० फीसदी और अधिकारी दीपक देव ने ५०.१० फीसदी वोट बटोरे थे।

2019 के सेलेब्स

रविकिशन (भाजपा) - गोरखपुर

स्मृति ईरानी (भाजपा) - अमेठी

सनी देओल (भाजपा) - गुरदासपुर

हंसराज हंस (भाजपा) - पश्चिमी दिल्ली

गौतम गंभीर (भाजपा) - पूर्वी दिल्ली

दिनेश लाल यादव निरहुआ (भाजपा) - आजमगढ़

मनोज तिवारी (भाजपा) - उत्तर पूर्वी दिल्ली

जयाप्रदा (भाजपा) - रामपुर

हेमामालिनी (भाजपा)-मथुरा

किरणखेर (भाजपा)-चंडीगढ़

बाबुल सुप्रियो (भाजपा)-आसनसोल

राज्यवर्धन सिंह राठौर (भाजपा)-जयपुर ग्रामीण

नुसरत जहां(टीएमसी) - बशीरहाट

मिमी चक्रवर्ती (टीएमसी- जाधवपुर

मुनमुन सेन (टीएमसी) - आसनसोल

दीपक अधिकारी (टीएमसी) - घाटल

शताब्दी रॉय (टीएमसी) - बीरभूम

विजेंदर सिंह (कांग्रेस)- दक्षिणी दिल्ली

उर्मिला मातोंडकर (कांग्रेस) - उत्तर मुंबई

राजबब्बर (कांग्रेस) - फतेहपुर सीकरी

कृष्णा पूनिया (कांग्रेस) -जयपुर ग्रामीण

शत्रुघ्र सिन्हा (कांग्रेस) - पटना साहिब

प्रकाश राज (निर्दलीय) - बंगलुरु मध्य

पूनम सिन्हा (सपा) - लखनऊ

निखिल गौड़ा (जेडीएस) - मांड्या

अनुभव मोहंती (बीजेडी) - केंद्रापाड़ा

जनता की राय

अगर फिल्‍म वाले राजनीति में आते हैं तो गलत नहीं। वह भी देश के नागरिक हैं और वह भी देश के लिए ही काम कर रहे हैं। दक्षिण भारत में कई फिल्‍म वालों ने खुद को साबित कर दिया है वह राजनीति में भी बेहतर हैं। रही बात पार्टियों के टिकट देने की तो पार्टियां चुनावी रणनीति पर काम करती हैं और जरूरत के हिसाब से उम्‍मीदवार उतारती हैं।

- प्रो. योगेश्‍वर तिवारी, इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय

कोई कलाकार या खिलाड़ी लोगों के बीच से चुनकर संसद में पहुंचना चाहता है तो इसमें गलत क्या है। समाज की सोच अब व्यापक हुई है। पहले अधिवक्ता या समाज सेवा में जुटे लोग ही राजनीति में आते थे। अब हर क्षेत्र में विशेषज्ञ पहुंच रहे हैं। समाज कलाकारों को नेता के रूप में स्वीकार रहा है। तभी तो वह जीत रहे हैं।

- प्रो मानवेन्द्र सिंह, विभागाध्यक्ष, समाजशास्त्र विभाग, डीडीयू

सवाल यह है कि अभिनेता या फिर खिलाड़ी चुनाव जीतने के बीच जनता के बीच रहता है या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि नेता हारने के बाद भी क्षेत्र में लोगों के बीच रहे। जो वादे उसने किए वह पूरा न हो तो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार पर दबाव बनाएं। 2009 में मनोज तिवारी गोरखपुर लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में थे, तमाम वादे किए थे। चुनाव हारने के बाद वह नजर नहीं आए। यह ठीक नहीं है।

- चेता सिंह, लोकगायिका

रविकिशन क्या चुनाव जीतने या हारने के बाद भी गोरखपुर में रहेंगे? लोगों के सुख-दुख में भागीदार बनेंगे? क्या चुनाव बाद भी गेहूं काटने वाली कंबाइन पर चढ़ेंगे? गोरखपुर में तो सांसद कोई भी हो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के रहते कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उनकी गैरमौजूदगी में लोगों के बीच उपलब्ध रहने वाला सांसद तो चाहिए ही।

- अनीता शुक्ला, गृहिणी

फिल्मी कलाकार भी समाज का हिस्सा हैं। अत: उन्हें भी राजनीति में भागीदारी करने का अधिकार है, हालांकि कसौटी सुनील दत्त की तरह ही होनी चाहिए। ताकि आप हार या जीत से विचलित हुए बिना उसी क्षेत्र में डटे रहें। पैराशूट से उतारे गए कलाकार को क्षेत्रीय भूगोल और इतिहास और स्थानीय सामाजिकता का पता नहीं होता है। वह अक्सर वोट अपने आकर्षण पर खींचना चाहता है।

- पंकज जायसवाल, वित्तीय सलाहकार

सभी को राजनीति में आने का लोकतांत्रिक अधिकार है।कलाकार से नेता बने लोगों को चुनाव जीतने के बाद जनता के दुख-दर्द से भी रूबरू होना चाहिए। कलाकार की चमक-दमक में बहक कर नागरिक उसे जीता तो देते हैं, लेकिन वह संसद में शो-पीस बनकर रह जाता है। राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होगी तो राजनीति में गंदगी आएगी।

- शिवकुमार श्रीवास्तव, बैंककर्मी

लोकतंत्र की लड़ाई में सेलिब्रिटीज या गैर राजनीतिक प्रत्याशियों की चमक के आगे नेता फीके पड़ गए हैं। राजनीतिक दलों में अपने नेताओं से ज्यादा नामचीन हस्तियों को तरजीह देने का चलनजिस तरह बढऱहा है वह देश व देश की राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है। एक तरह से राजनीतिक दल ऐसा करके अपनी कमजोरी साबित कर रहे हैं कि उनके पास अपना ऐसा कोई काम नहीं है जिसके बल पर वह मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित कर सकें। ऐसे में उन्हें अब केवल सेलिब्रिटीज का ही सहारा है। मैं सेलिब्रिटीज या गैर राजनीतिक प्रत्याशियों की जगह काम करने वाले ईमानदार व कर्मठ उम्मीदवार को ही वोट देना पसंद करूंगा।

- विमल प्रसाद शर्मा (समाजशास्त्री)

लोकतंत्र की लड़ाई में सेलिब्रिटीज या गैर राजनीतिक प्रत्याशियों को उतारना गलत बात नही है,लेकिन कम से कम ऐसे लोग तो हों जो जनता से किए वादे निभा सकें। दरअसलराजनीतिक दलों द्वारा सेलिब्रिटीज या गैर राजनीतिक प्रत्याशियों के चुनाव में इस्तेमाल करने की वजह यही है कि पारंपरिक नेताओं से जनता उब चुकी है। मेरे लिए जरूरी यह है कि क्या कोई राजनीति में वाकई में देश व समाज की सेवा करने की नीयत से आया है या फिर केवल कमाई के लिए। अगर कमाई के लिए आया है तो फिर ऐसे उम्मीदवार को मेरा वोट बिल्कुल नहीं है।

- हरिओम अग्रवाल (चैयरमेन जेपी एकाडेमी)

आज के दौर में जनता को सभाओं में बुलाना अब आसान नहीं रहा है। कम से कम इन सेलिब्रिटी को देखने जनता आ ही जाती है। हालांकि अभी तक सुनील दत जैसी सेलिब्रिटी कम ही हैं ,जिन्हें बेहतरीन चरित्र और व्यवहार के चलते मुंबई का शेरिफ भी बनाया गया। देश व समाज का भला सेलिब्रिटी से नहीं बकि अच्छी सोच व काम करने वाले उम्मीदवारों से होगा।

- अनिल शर्मा अधिवक्ता

राजनीतिक दलों के पास अपना ऐसा कोई काम नहीं है जिसके बल पर वे चुनाव जीत सकें। सो,जनता को रिझाने लिए फिल्मी या गैर फिल्मी सेलिब्रिटीज का सहारा लिया जा रहा है। यह देश व समाज के हित में नहीं है। जनता को ऐसे प्रत्याशी को वोट नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग बेशक अपने-अपने क्षेत्रों के महारथी होते हैं, लेकिन राजनीति में शून्य ही होते हैं। उनके लिए देश व समाज का कोई मूल्य नहीं होता है।

- भूपेन्द्र चौधरी(अध्यक्ष भैसाली बस अड्डा संयुक्त व्यापार संघ)

फिल्मी कलाकार या खिलाड़ी तो वही ठीक लगते हैं जहां से वह आए हैं। राजनीतिक दल गरीबी हटाने,बेरोजगारी दूर करने और महंगाई घटाने के भाषण तो चुनाव में खूब देते हैं,लेकिन जीतने के बाद फिर केवल अपने और अपने रिश्तेदारों और परिचितों का भला करने में जुट जाते हैं। चुनाव में जनता के बीच जाकर कहने केलिए इनके पास कुछ होता नहीं है। इसलिए नाचने-गाने वालों को टिकट देकर जनता को रिझाते हैं। मैं तो ऐसे उम्मीदवारों को बिल्कुल भी वोट नहीं करुंगी।

- कस्तूरी देवी

(गोरखपुर से पूर्णिमा श्रीवास्तव, मेरठ से सुशील कुमार)

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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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