उपचुनाव: संवेदना में बदले वोट, किसी को नहीं चोट

raghvendra
Published on: 16 March 2018 7:27 AM GMT
उपचुनाव: संवेदना में बदले वोट, किसी को नहीं चोट
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शिशिर कुमार सिन्हा

पटना: जब अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद व भभुआ विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव की घोषणा हुई तो केंद्र में सत्तारूढ़ मुख्य राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी और बिहार में सरकार चला रही मुख्य पार्टी जनता दल यूनाईटेड ने न बहुत उत्साह दिखाया और न उदासीनता बरती। बयानों में जो हो, चुनावों में ताकत झोंकते समय भी इन दोनों दलों का यही रवैया रहा। भाजपा को अपनी भभुआ विधानसभा सीट के अलावा अन्यत्र ज्यादा उम्मीद नहीं थी। जदयू ने राजद की जहानाबाद विधानसभा सीट छीन लाने का दावा करने वाले प्रत्याशी-समर्थक पर सब कुछ छोड़ रखा था। असल ताकत राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने झोंक रखी थी। कांग्रेस ने बहुत कहासुनी-जद्दोजहद के बाद लडऩे को राजद से भभुआ सीट हासिल की थी, इसलिए वह यहां पूरी ताकत झोंक रही थी। राजद को ज्यादा ताकत इसलिए झोंकनी थी, क्योंकि जहानाबाद विधानसभा सीट के साथ ही अररिया लोकसभा सीट भी उसके विधायक-सांसद के निधन पर खाली हुई थी।

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जो स्थितियां थीं, उसमें सहानुभूति वोटिंग के आसार ज्यादा थे। राजनीतिक दल ऐसा बोल नहीं रहे थे, लेकिन रणनीतिकार इसे ठीक से समझ जरूर रहे थे। यही कारण है कि राजद ने अररिया के अपने दिवंगत सांसद तस्लीमुद्दीन के घर को पहले एक किया। तस्लीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम इसी सीट के अंतर्गत जोकीहाट विधानसभा क्षेत्र से जदयू के विधायक थे। जदयू से उनका नाता तोड़े बगैर राजद के लिए यह सीट कायम रख पाना मुश्किल था। गणित सभी की समझ में आ रहा था, लेकिन चूंकि भाजपा इस सीट पर अपना प्रत्याशी उतारने को तैयार खड़ी थी तो जदयू ने बहुत दमदार मांग नहीं रखी। भाजपा ने विकल्प खुले रखे थे तो फिजा में भागलपुर के पूर्व सांसद सैयद शाहनवाज हुसैन की चर्चा अररिया के लिए निकल पड़ी।

इस चर्चा में बहुत दम नहीं था, लेकिन राजद और जदयू में इसे इतनी हवा मिली कि जोकीहाट के जदयू विधायक सरफराज आलम ने इसी का बहाना करते हुए पार्टी छोड़ दी और दिवंगत सांसद पिता की संसदीय सीट से चुनाव लडऩे के लिए राजद में आ गए। इस पूरे घटनाक्रम में राजद की रणनीति थी और इसके पीछे था वह गणित, जो अब परिणाम के रूप में सामने है। अररिया लोकसभा सीट के अररिया और जोकीहाट में ही सरफराज आलम को जिताने वाले वोट मिले, बाकी चार विधानसभा क्षेत्रों नरपतगंज, रानीगंज, फारबिसगंज और सिकटी में भाजपा प्रत्याशी प्रदीप सिंह को लीड हासिल हुई। इन चारों विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा और प्रत्याशी का प्रभाव रहने के आसार थे और राजद को भी अररिया-जोकीहाट से ही ज्यादा उम्मीद थी। संवेदना वाले वोट इन्हीं दो विधानसभा क्षेत्रों में मिले, जिसके कारण राजद की यह सीट उसके पास कायम रही।

जहानाबाद में धन पर भारी पड़ी संवेदना

जहानाबाद विधासभा सीट पर इस बार ‘धन’ की चर्चा बहुत ज्यादा रही। राजद विधायक मुंद्रिका सिंह यादव जब जीते थे, तब जदयू के भी वोटर साथ थे। जदयू के उन वोटरों को कायम रखने के साथ ही नए वोटर जोड़ लेने का दावा करते हुए अभिराम शर्मा ने पार्टी से टिकट हासिल किया था। अभिराम शर्मा के सिर पर एक रसूखदार राजनेता का भी हाथ था। जिस समय अभिराम शर्मा को टिकट मिला, तभी से इस चुनाव में ‘धन-बल’ की चर्चा उठी और अंत तक चली। परिणाम के बाद भी राजद समर्थक ‘धन की हार’ जैसे टर्म सामने लाए। इस सीट पर राजद के सुदय यादव को अपेक्षाकृत ज्यादा संवेदना हासिल हुई। यही कारण है कि पिछली बार महागठबंधन (जदयू-राजद-कांग्रेस) के राजद प्रत्याशी मुंद्रिका सिंह यादव करीब 30 हजार वोट से जीते थे, वहीं इस बार महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) प्रत्याशी सुदय यादव 35 हजार वोटों के अंतर से जीतने में कामयाब रहे। सुदय की इस जीत में राजग के दलों में चल रहे मतभेद की भी भूमिका रही।

जहानाबाद सीट राजद के पास होने के आधार पर राजग के घटक दलों राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और हम (से) ने इस सीट पर दावा ठोका था। कुशवाहा वोटरों के नाम पर उपेंद्र कुशवाहा रालोसपा के लिए टिकट मांग रहे थे, जबकि दलित वोटरों का आधार बता पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हम (से) अड़े हुए थे। ऐसे में भाजपा ने इसे जदयू को देकर अपना पल्ला झाड़ लिया। चूंकि अभिराम शर्मा ने 2010 के विधानसभा चुनाव में यह सीट हासिल की थी, इसलिए जदयू ने उन्हीं पर दांव खेलना उचित समझा, हालांकि राजग के अंदर हुए इस मतभेद के कारण कैडर वोट ही बंटे नजर आए और राजद के लिए सुदय ने यह सीट लगातार बढ़त कायम रखते हुए निकाल ली।

भभुआ में संवेदना के आगे सारे फेल

भभुआ विधानसभा सीट पर कांग्रेस बहुत ज्यादा उत्साहित थी। यहां प्रत्याशी देने के लिए कांग्रेस को महागठबंधन के सबसे ताकतवर दल राजद को झिडक़ी तक देनी पड़ी। काफी जद्दोजहद से इस सीट पर प्रत्याशी उतारने का मौका मिला और कांग्रेस ने पूरी ताकत भी झोंकी। राजद ने भी इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना रखा था। महागठबंधन का मानना था कि भाजपा की यह सीट हासिल हो जाए तो भाजपा-जदयू की बोलती बंद करा सकते हैं, लेकिन परिणाम में यह सपना टूट गया। भाजपा के दिवंगत विधायक आनंद भूषण पांडेय की पत्नी रिंकी पांडेय ने जीत के अंतर को दोगुना कर दिया। भाजपा के कैडर वोटर भी मानते हैं कि पति की सीट पर मौका मिलने के कारण रिंकी पांडेय के लिए यह जीत बहुत मुश्किल नहीं रही। मतगणना के दौरान हर राउंड में वह आगे ही रहीं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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