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पंजाब में कांग्रेस ने फिर दिखाई ताकत, प्रदेश में हौसले बुलंद
कैप्टन की अगुवाई में तीन नगर निगमों सहित 30 नगर पंचायतों पर कांग्रेस ने किया कब्जा
दुर्गेश पार्थसारथी
चंडीगढ़ : सूबे में तीन नगर निगमों सहित 32 नगर कौंसिलों में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव व उसी दिन आए चुनाव परिणाम से उत्साहित कांग्रेस को इसके ठीक दूसरे दिन पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश आए विधानसभा के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को जोर का झटका धीरे से दिया। फिर भी प्रदेश कांग्रस के हौसले बुलंदियों पर हैं। हो भी क्यों न। क्योंकि दस साल के लंबे इंतजार के बाद वो घडी आई है जब कांग्रेस की स्थानीय सरकार तीन नगर निगमों अमृतसरए जालंधर व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के गृहनगर पटियाला सहित 31 नगर कौंसिलों में बनने जा रही है। हलांकि एक नगर कौंसिल पर अकाली.भाजपा ने अपना अध्यक्ष बना कर स्थानीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है।
काफी आरोप-प्रत्यारोंपों के बीच कांग्रेस ने अमृतसर की 85 सीटों में से 64 पर, जालंधर की 80 में से 66 पर और पटियाला की 60 सीटों में से 57 सीटों पर परचम लहराया है। इस बीच कई जगहों पर हिंसक झड़पें भी हुईं। इसके साथ ही अकाली, भाजपा व आम आदमी पार्टी से लेकर अन्य दलों व निर्दलीय उम्मीदवारों ने कांग्रेस सरकार की शह पर स्थानीय प्रशासन पर चुनाव में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें परेशान करने का आरोप लगाया। हालांकि चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि चुनाव निष्पक्ष व लोकतांत्रिक ढंग से हुए हैं। शिअद अध्यक्ष व पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट तक जाने की बात कही है। बात यहीं खत्म नहीं होती भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष व केंद्रीय मंत्री विजय सांपला और आम आदमी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भगत मान ने भी कांग्रेस पर गुंडागर्दी व बूथ कैंप्चरिंग के आरोप लगाते हुए इसे लोकतंत्र की हत्या तक करार दिया। हालांकि यह कोई पहला ऐसा मामना नहीं हैं। जानकारों की मानें तो पंजाब में जिसकी भी सरकार रही है उस पर स्थानीय निकाय या सरपंची के चुनाव में ऐसे आरोप लगते रहे हैं।
स्थानीय निकाय चुनावों में मिली भारी जीत से उत्साहित कांग्रेस नेताओं का कहना है कि राज्य की जनता ने अभी भी अकाली-भाजपा गठबंधन को माफ नहीं किया है। यह पंजाबियों के गुस्से का ही नतीजा है कि निकाय चुनावों में अकाली-भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया है। रही बात आम आदमी पार्टी की तो उसका तो खाता भी नहीं खुला है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि इस बार के हुए चुनाओं में आए नतीजों को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले 15 सालों में गठबंधन का यह सबसे खराब प्रदर्शन रहा है। उनका कहना है कि 2002 में हुए निगम चुनावों में कांग्रेस का ही कब्जा हुआ था, लेकिन तब सदन में विपक्ष के तौर पर अकाली-भाजपा गठबंधन मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा था। 2007 और 2012 में अकाली-भाजपा का इन तीनों नगर निगमों पर कब्जा रहा जिसमें अमृतसर और जालंधर में भाजपा का मेयर बना तो कैप्टन के गढ़ में अकाली दल का। लेकिन इस बार के नतीजे आशा के विपरीत निकले।
2019 के लोकसभा चुनाव में भी पड़ सकता है असर
नतीजों से उत्साहित कांग्रेस नेताओं का मानना है कि पार्टी कार्यकर्ताओं में यही उत्साह बना रहा तो 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी अकाली-भाजपा व आप का खाता तक नहीं खुलेगा। वैसे भी राजनीति की समझ रखने वाले लोगों का कहना है कि चंद सीटों पर सिमटे अकाली-भाजपा गठजोड़े के लिए ये नतीजे शुभ संदेश नहीं है। उन्हें नए सिरे से अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करनी होगी।
हालांकि यह बात भाजपा व अकाली नेतृत्व भी अच्छी तरह से समझ रहा है कि उसे अपने कार्यकर्ताओं में जान फूंकनी होगी। तभी तो निगम चुनाव में करारी हार के दूसरे दिन भी गुजरात व पड़ोसी राज्य हिमाचल में भाजपा की जीत का जश्न मनाकर भाजपा नेताओं ने अपने जहां हार के गम को भुलाने की कोशिश की वहीं कार्यकर्ताओं का उत्साह भी बढ़ाया और कहा कि यह मोदी की अच्छी नीतियों का परिणाम है। नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में भारी सफलता व उसके बाद गुजरात और हिमाचल में लोगों ने भाजपा को जिताकर कांग्रेस को सबक सिखाया है। खैर यह तो हार के गम को भुलाने का बहाना भर है। पंजाब में सत्ता गंवाने के बाद एकदम से धरातल पर आए अकाली-भाजपा गठजोड़ के हाथ से गुरदासपुर की उसकी सीट भी निकल गई जिसे विनोद खन्ना कांग्रेस से छीना था और उसे भाजपा की थाती की तरह बचाकर रखा था। यहां तक की जो कसर बाकी रह गई थी उसे निकाय चुनाओं ने पूरा कर दिया।
काम नहीं आया सुखबीर का धरना
निगम चुनावों से करीब एक सप्ताह पहले पत्तन पुल पर करीब 28 घंटे तक कड़ाके की ठंड में धरने पर बैठना भी अकाली दल के लिए संजीवनी नहीं बन सका। शिअद की इस रणनीति से एक बार दोआबा माझा व मालवा की ट्रैफिक व्यवस्था चरमरा गई। पार्टी नेतृत्व के आदेश पर शिअद के सभी बड़े नेता समर्थकों सहित सभी प्रमुख पुलों व सडक़ों पर धरने पर बैठ गए। यहां तक कि शिअद के प्रदेश अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने रात भी धरनास्थल पर जमीन पर सोकर काटी। यहीं नहीं कार्यकर्ताओं के घर से आई रोटी भी किसी आम आदमी की तरह हाथ पर रखकर खाई।
सुखबीर ने अपने पिता प्रकाश सिंह बादल का जन्मदिन भी यह कहते हुए नहीं मनाया कि वह पंजाब के लोगों की हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। शिअद के इस रुख को देखकर तो एक बार यही लगा कि इस धरने की राजनीति से निगम चुनावों में शिअद जोरदार वापसी करेगी, लेकिन सुखबीर के इस दांव का कोई असर नहीं दिखा। अलबत्ता पार्टी को निगम तो क्या नगर पंचायतों से भी हाथ धोना पड़ा।
सिद्धू व मलिक में छिड़ी जुबानी जंग
निगम चुनाव में मिली भारी जीत से उत्साहित स्थानीय निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने यह कहकर सबको हैरान कर दिया कि नौ माह तक नगर निगम व निकायों के सरकारी फंड को हमने जानबूझ कर रोके रखा। यह पूछे जाने पर कि आपने ऐसा क्यों किया, उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के कहा कि सूबे के तीनों नगर निगमों व नगर पंचायतों पर अकाली-भाजपा का कब्जा था। इसलिए हमने एक वर्ष से कोई फंड जारी नहीं किया।
अब कांग्रेस के मेयर बन गए हैं तो रुकी हुई सभी ग्रांट जल्द जारी कर दी जाएगी क्योंकि अकाली-भाजपा ने पैसे का दुरुपयोग किया है। इसके तुरंत बाद पूर्व मेयर व भाजपा के राज्यसभा सदस्य श्वेत मलिक ने कहा कि हमें तो सिद्धू की सोच पर हंसी आती है। पार्टी बदलते ही सिद्धू के सुर भी बदल गए।
पिछले दस साल तक सिद्धू व उनकी पत्नी भाजपा में ही रहे। यहां तक कि उनकी पत्नी अकाली सरकार में पीएस थीं। उस दौरान अगर पैसे का दुरुपयोग हुआ तो उनकी पत्नी ने उस समय इस्तीफा क्यों नहीं दिया। सिद्धू दंपत्ति सत्ता सुख भोगता रहा और अब पार्टी बलते ही इन्हें दुरुपयोग नजर आने लगा। अगर इन्होंने नगर निगमों का अकाली-भाजपा मेयर की वजह से फंड रोका है तो फिर किस आधार पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह मोदी सरकार के पास फंड मांगने जाते हैं। इसका जवाब सिद्धू को देना चाहिए।
कांग्रेस में कैप्टन का कद बढ़ा
विधानसभा और उसके करीब आठ माह बाद हुए निकाय चुनावों में कांग्रेस को मिली अपार सफलता से मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पार्टी के भीतर कद बढ़ा है। वे अपने विरोधियों को पटखनी देने में कामयाब हुए हैं। कैप्टन ने यह साबित कर दिया है कि विपक्ष उन पर चाहे जितना आरोप लगाता रहे पंजाब के लोगों ने उनका साथ दिया है। कांग्रेसी धुरंधरों का कहना है कि 40 साल बाद इतिहास ने खुद को दोहराया है। वे कहते हैं कि 1975 में आपातकाल लागू होने के बाद पूरे देश में कांग्रेस सिमटकर रह गई थी तो इसी पंजाब ने इंदिरा गांधी की अंगुली थामी थी और आज भी मोदी की आंधी में पंजाब ने ही कांग्रेस को सहारा दिया है। इससे कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व ने यह साबित कर दिया है पंजाब में पॉवरफुल कांग्रेस के कप्तान वही हैं।
आप हो गई साफ
निकाय चुनावों में एक बात तो साफ हो गई है कि यहां के लोगों को राजनीति का तीसरा विकल्प नहीं चाहिए। 2014 के लोकसभा चुनाव में पंजाब की 13 सीटों में से चार सीटें जीतने के बाद अति उत्साह में 2017 के विधानसभा चुनाव में 80 सीटें जीतने का सपना लेकर उतरी आप को मात्र 20 सीटें ही मिलीं और पार्टी में फूट पड़ी सो अलग। यही नहीं आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल अपने चारों सांसदों को भी नहीं संभाल पाए। हालत यह हुई आप के गर्भ से एपीपीपी यानी अपना पंजाब पार्टी निकली। रही सही कसर निकाय चुनावों में पंजाब के लोगों ने पूरी कर दी। तीन नगर निगमों सहित 31 नगर पंचायतों पर हुए चुनाव में पार्टी खाता तक नहीं खोल पाई। और तो और पार्टी के एक उम्मीदवार को जालंधर में मात्र एक वोट से संतोष करना पड़ा। पंजाब में पार्टी की दुर्दशा से तिलमिलाए दिल्ली नेतृत्व ने अमृतसर, जालंधर व पटियाला के पार्टी प्रमुखों को तलब किया है। यहां तक कि आप के प्रदेश अध्यक्ष भगवंत मान के लिए भी अपनी साख बचाना मुश्किल हो रहा है।
सांपला की भी जा सकती है कुर्सी
विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कमल शर्मा की कुर्सी छीन भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बने दलित चेहरा केन्द्रीय मंत्री विजय सांपला की भी कुर्सी जा सकती है। राजनीतिक सूत्रों की मानें तो विधानसभा चुनाव, गुरदासपुर लोकसभा सीट और अब नगर निगम चुनाव में पार्टी को मिली करारी हार के बाद प्रदेश अध्यक्ष सहित तमाम नेताओं को बदलने की मांग उठने लगी है। उल्लेखनीय है जिन तीन नगर निगमों में चुनाव हुए हैं उनमें से दो अमृतसर व जालंधर में भाजपा पिछले दस सालों से काबिज थी, लेकिन अबकी बार पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन ने सबको हैरान कर दिया है।