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शिवराज के लिए डगर आसान नहीं, कांग्रेस को मिल सकती है संजीवनी !
भोपाल : लोकतंत्र में मतदाता सबसे ज्यादा ताकतवर होते हैं और उनके इशारों को समझ सत्ताधारी दल आगे का रास्ता तय करता है। मध्य प्रदेश में 20 नगरीय निकायों के चुनाव नतीजों ने भारतीय जनता पार्टी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए साफ नहीं, धुंधली इबारत लिखी है, मगर उसे साफ -साफ पढ़ा जा सकता है। यह इबारत आरएसएस को भी चिंता में डालने वाली है।
राज्य की सत्ता पर भाजपा 14 वर्षो से काबिज है और मुख्यमंत्री शिवराज 13 वर्षो से सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। भाजपा ने लगातार विधानसभा के दो चुनाव शिवराज की अगुवाई में ही जीते हैं। शिवराज की पहचान समाज के हर वर्ग के लिए काम करने वाले नेता की बनी। लाडली लक्ष्मी से लेकर छात्राओं के लिए साइकिल और छात्रवृत्ति जैसी योजनाओं ने उन्हें विशेष पहचान दिलाई। उसी का नतीजा रहा कि भाजपा लगभग हर चुनाव जीतती रही।
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वरिष्ठ पत्रकार भारत शर्मा का कहना है कि शिवराज ने खुद को जननेता के तौर पर स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कई योजनाएं बनाईं और उनका खूब प्रचार भी किया। इस प्रचार के चलते भाजपा ने कई चुनाव भी जीते, मगर चित्रकूट व अटेर विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस को परास्त न कर पाना और अब नगरीय निकाय के चुनाव में कई सीटें फिसलकर कांग्रेस के हाथ में चले जाना बताता है कि जनता के बीच शिवराज की चमक कुछ फीकी होने लगी है।
राज्य में 20 नगरीय निकाय के हुए चुनाव में से 19 के नतीजे शनिवार को घोषित हुए। इनमें कांग्रेस और भाजपा 9-9 स्थानों पर जीती, जबकि एक स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी ने बाजी मारी। इतना ही नहीं, पदाधिकारी को वापस बुलाने (राइट टू रिकॉल) में भी भाजपा के दो अध्यक्षों को जनता ने पद से हटाने के लिए मतदान किया। इस तरह भाजपा को कुल पांच स्थानों का नुकसान हुआ है। वहीं, कांग्रेस को दो का फायदा हुआ। भाजपा के अध्यक्ष 12 से घटकर नौ हुए, वहीं दो को जनता ने वापस बुला लिया है। ऐसे में कांग्रेस का हौसला बुलंद होना लाजिमी है।
नगरीय निकाय चुनाव प्रचार पर गौर करें, तो एक बात साफ हो जाती है कि मुख्यमंत्री, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान, संगठन महामंत्री सुहास भगत सहित तमाम मंत्रियों, सांसदों व विधायकों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। दूसरी ओर, कांग्रेस की ओर से प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ही सक्रिय रहे। इस चुनाव में किसी बड़े नेता, जैसे- कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी आदि ने प्रचार नहीं किया। अगर ये सभी नेता प्रचार में जुट गए होते तो भाजपा के लिए नौ सीटें जीतना भी मुश्किल हो जाता।
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कांग्रेस की इस जीत को यादव, सिंह और सिंधिया ने कार्यकर्ताओं की जीत के साथ मुख्यमंत्री शिवराज से जनता का मोहभंग होने की शुरुआत बताया है। सिंधिया ने कहा, "नगरीय निकायों के चुनाव से शुरू हुआ हमारी जीत का सिलसिला कोलारस व मुंगावली उपचुनाव के बाद आम चुनाव तक जारी रहेगा।"
दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराज और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष जीत से ज्यादा हताश या परेशान नहीं हैं। दोनों का कहना है, "ये चुनाव हम बागियों के कारण हारे हैं। बागियों को हम चुनाव लड़ने से रोक नहीं पाए, कई स्थानों पर हार का अंतर इतना नहीं रहा जितना बागियों को वोट मिले।"
आरएसएस के जानकार कहते हैं कि धार और मनावर वे स्थान हैं, जहां तीन से चार दशक बाद कांग्रेस को जीत मिली है। यह इलाका संघ और भाजपा का गढ़ रहा है। इसलिए अपने गढ़ में मिली हार कई सवाल खड़े कर रही है। बड़ी बात यह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत उज्जैन में पांच दिनों तक डेरा जमाए रहे, फिर भी ऐसे नतीजे आना चिंता की बात जरूर है। संगठन का घटता प्रभाव संघ प्रमुख को अपनी रणनीति पर और मंथन करने की जरूरत बता रहा है।
इन चुनावों की सबसे अहम बात यह है कि भाजपा के पांच विधायकों के क्षेत्र में उनके उम्मीदवार हारे हैं, साथ ही उस जिला पंचायत सदस्य का चुनाव भी भाजपा हार गई है, जहां की जिला सदस्य संपतिया उइके को राज्यसभा सांसद बनाया गया है।