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कोरोना इफेक्ट : बदल जाएगी न्याय की प्रक्रिया, मंडली और गाउन के बगैर भी न्याय

कोविड के इफेक्ट पर जस्टिस बोबडे ने कहा कि, इस साल जनवरी में प्रतिदिन 205 फाइलिंग तक होती थी और पूरे महीने में कुल 4,108 फाइलिंग हुईं। अप्रैल में  ई-फाइलिंग घट कर सिर्फ 305 (26 अप्रैल तक) है। इससे आपको कोविड के असर का अंदाजा लग जाएगा।

राम केवी
Published on: 29 April 2020 8:21 AM GMT
कोरोना इफेक्ट : बदल जाएगी न्याय की प्रक्रिया, मंडली और गाउन के बगैर भी न्याय
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नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की योजना थी की अपनी कार्यप्रणाली में सुधार के लिए आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (आईए) के इस्तेमाल को शुरू किया जाए। ये काम मार्च में शुरू होना था लेकिन कोरोना वायरस ने सभी क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भी इस योजना को ठंडे बस्ते में डालने और पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया।

भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे ने द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कोविड के बाद के युग में अदालतों के बारे में अपने विज़न पर चर्चा की। वेबकास्ट, वेब सुनवाई और अदालतों के खुलेपन पर जस्टिस बोबडे ने कहा कि अदालत की कार्यवाही को टेलीकास्ट किया जाना चाहिए या नहीं, ये एक व्यापक मसला है। यह देखने की जरूरत है कि किस मामले को टेलीकास्ट किया जाये। अभी महत्वपूर्ण सुनवाइयाँ नहीं हो रही हैं। अभी तो हम फायरफाइटिंग मोड में हैं, नई तकनीक में हैं। यानी नए तरीके से पुराने कार्य।

घट गए मामले

कोविड के इफेक्ट पर जस्टिस बोबडे ने कहा कि, इस साल जनवरी में प्रतिदिन 205 फाइलिंग तक होती थी और पूरे महीने में कुल 4,108 फाइलिंग हुईं। अप्रैल में ई-फाइलिंग घट कर सिर्फ 305 (26 अप्रैल तक) है। इससे आपको कोविड के असर का अंदाजा लग जाएगा।

कोविड के बाद की दुनिया

कोरोना के बाद की दुनिया में न्यायपालिका किस तरह की होगी, इस बारे में जस्टिस बोबडे ने कहा कि - जजों और वकीलों की पूरी बिरादरी को एहसास जरूर हुआ होगा कि न्यायिक प्रक्रिया के लिए क्या जरूरी है और क्या नहीं। इस बात का भी अहसास होगा कि परंपरागत तरीकों के इतर भी कई तरह से समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

न्याय ‘गाउन’ या मण्डली के बगैर भी समान रूप से किया जा सकता है। ऐसा हमेशा से था लेकिन अब लोगों को इसका अनुभव हो चुका है। वकीलों और न्यायाधीशों की पुरानी पीढ़ी निस्संदेह वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग और ई-फाइलिंग जैसे नए फीचर्स आने और सामान्य प्रकार के "दर्शकों" की अनुपस्थिति से थोड़ा असहज महसूस करेगी। एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने टिप्पणी की है कि "हमने अपने विरोधियों के साथ टोका-टाकी नहीं करना सीखा लिया होगा।" किसी भी सूरते हाल में ऐसा ही होना चाहिए।

भीड़ या मंडलियाँ आवश्यक नहीं

मुझे लगता है कि मुकदमेबाज़ जनता, न्यायाधीशों और वकीलों को समझ आ गया होगा कि न्याय के प्रशासन में इतनी बड़ी भीड़ या मंडलियाँ आवश्यक नहीं हैं। हो सकता है कि संक्षिप्त व सटीक तर्क चाहे वह मौखिक हों या लिखित, उनका महत्व अब स्थापित हो चुका हो। इसके साथ नई तकनीक से एक अदालत से दूसरे में रिकॉर्ड का सम्प्रेषण कहीं अधिक कुशल होगा।

जनवरी 2020 में, जिला और तालुका अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक, 26.84 लाख पृष्ठ संप्रेषित किए गए थे। फिर हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कागजी काम होता है। इतने दस्तावेजों के अलावा गति की भी बात है। डिजिटल कीपिंग से इसमें तेजी आती है। जैसे ही एक अपील दायर की जाती है, एक जिला अदालत से लेकर उच्च न्यायालय के फैसले तक पूरे रिकॉर्ड को उच्च न्यायालय द्वारा नेट पर प्रेषित किया जा सकता है।

डिजिटलीकरण

जहां तक अभिलेखों के डिजिटलीकरण की बात है, हम इस लक्ष्य को हासिल करने से कुछ दूरी पर हैं क्योंकि कोविड का यह संकट आ गया है। लेकिन अगर डिजिटलीकरण 17,500 जिला अदालतों में से प्रत्येक में होता है, तो निश्चित रूप से, इन डिजिटल रिकॉर्डों के प्रमाणीकरण की समस्या है, ताकि छेड़छाड़ को रोका जा सके।

हम इसे देख रहे हैं, लेकिन उम्मीद है कि डिजिटल संस्कृति की जड़ें जाम जाएंगी। फिर यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के लिए आधार होगा जिसे हम बाद में ला सकते हैं। जब काम करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक डेटा होगा तब एआई सबसे प्रभावी होगा । हम मार्च में एआई लॉन्च करने के लिए तैयार थे, लेकिन ऐसा नहीं कर सके।

सबसे महत्वपूर्ण बात चेतना में एक बदलाव की है। लॉकडाउन के दौरान कानूनी समुदाय इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से काम करने के लिए मजबूर है और इससे इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसमिशन और प्रस्तुतीकरण के महत्व के प्रति चेतना बन रही है। अधिवक्ताओं के जरिये ईमेल और व्हाट्सअप से रजिस्ट्री को रिकार्ड भेजे जा सकते हैं। यदि ईमेल विफल रहता है तो व्हाट्सएप है ही।

आजीविका के अधिकार, प्रवासी आबादी, चिकित्सा देखभाल की चुनौतियों के साथ-साथ जीवन के अधिकार – इन सबके बारे में सर्वोच्च न्यायालय क्या कर रहा है?

- यह एक बड़ी चुनौती है और मुझे यकीन नहीं है कि हम केवल कोर्ट में पक्ष-विपक्ष के हलफनामों के पढ़ कर इससे निपट सकते हैं। हमने सरकार से कहा है कि वह बताए कि चिकित्सा, पोषण, आश्रय और परिवहन के बारे में क्या उपाए कर रही है और क्या परिवहन सामाजिक दूरी मानदंडों के अनुरूप हैं? हमने कैदियों की रिहाई के संबंध में राज्यों के लिए प्रावधान किए हैं, इससे असम में डिटेन्शन केंद्रों में बंद लोगों को मुक्त किया जा सका है।

क्या एक निगरानी समिति या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरीक्षण से कुछ मदद मिल सकती है?

- अधिकारीगण अपनी नौकरी की प्रकृति के अनुसार 700 से अधिक जिलों में से प्रत्येक में मौजूद हैं। न्यायालय जिलों में सभी अधिकारियों की गतिविधियों की निगरानी नहीं कर सकता है। हम निश्चित रूप से पूछ सकते हैं और सरकार से पूछा भी है कि क्या किया जा रहा है। जो कदम उठाए गए हैं उनकी जानकारी भी दी गई है। इसमें गलतियाँ ढूँढने की कोई वजह नहीं है।

जम्मू कश्मीर में बड़ी संख्या में बंदी प्रत्यक्षीकरण के महत्वपूर्ण मामले हैं। चुनावी बांड, डिजिटल गोपनीयता और अन्य संवैधानिक मामले हैं। उन्हें कब सुना जाएगा?

- इनके अलावा भी बहुत से मामले हैं। मैं नहीं कह सकता कि इन्हें कब सुना जाएगा। लेकिन हम निश्चित रूप से इन्हें सुनेंगे।

बंदी प्रत्यक्षीकरण तो सबसे जरूरी याचिका होनी चाहिए।

- उनके और अन्य मामलों की प्रकृति के बारे में हम सचेत हैं। उनका फैसला किया जाएगा।

क्या इस साल गर्मी की छुट्टी होगी?

- यह तय किया जाना बाकी है। कोर्ट में जो कमेटी इसे देख रही है वह लॉकडाउन के अंत में अपनी रिपोर्ट मुझे सौंपेगी। वैसे इस मामले में फुल कोर्ट को फैसला करना होगा। हमारे लिए प्रत्येक कैलेंडर वर्ष में 210 दिन काम करना अनिवार्य है।

राम केवी

राम केवी

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