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किसानों की तबाहीः मोदी का ये कानून, बेमौत मरेंगे करोड़ों
किसान समझ रहा है कि जो निजी कंपनियां आएंगी वो किसानों को सुविधाएं, पैसा देंगी लेकिन उसके बाद किसान उनका गुलाम हो जाएगा। जो वो कहेंगे वही करना किसान की मजबूरी हो जाएगा। यानी किसान उनकी शर्तों के अधीन हो जाएगा।
रामकृष्ण वाजपेयी
इतिहास खुद को दोहरा रहा है। आज से तकरीबन दो सौ साल पहले जो काम अंग्रेजों ने करके भारतीय खेती को नष्ट किया था। आज वही काम नरेंद्र मोदी का किसानों के लिए बना कानून करने जा रहा है। उस समय पूरा दक्षिण भारत नील की कांट्रेक्ट खेती की चपेट में आया था जिसकी चरम परिणति भयानक अकाल के रूप में हुई थी जिसमें एक करोड़ लोग मरे थे। लेकिन आज किसानों के भले के नाम पर मोदी सरकार जो करने जा रही है उससे किसान एक बार फिर गुलाम हो जाएगा। इसकी कीमत देश को कितनी मौतों से चुकानी पड़ेगी इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
बर्बाद होता किसान
1760 से भारत में अंग्रेजों के शासन की शुरुआत मानी जाती है। अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए भारत की खेती को लेकर ऐसे कानून बनाए, ऐसे अंकुश लगाए कि भारत की खेती और किसान लगातार बरबाद होता चला गया। इन कानूनों के खिलाफ आवाज उठाने में किसानों को सौ साल लगे और नील विद्रोह की शुरुआत हुई।
वर्तमान समय में मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश, 2020 इन्हीं आशंकाओं को लेकर चर्चा में है और किसानों में इसके खिलाफ जबर्दस्त आपत्ति है क्योंकि किसान आजाद मुल्क में अब किसी का गुलाम नहीं बनना चाहता है।
मोदी सरकार जिस तरह से धीरे धीरे किसानों पर शिकंजा कस रही है वह भारतीय राजनीति में आई गिरावट का चरम है। क्योंकि विपक्षी दलों ने भी अपने हित साधन के लिए कभी न कभी इन कानूनों को किसानों का हितैषी बताकर बरगलाने की कोशिश की थी लेकिन इन्हें लाने का वह साहस नहीं जुटा पाए जो पूर्ण बहुमत की केंद्र सरकार पूरी दबंगई से कर रही है और विपक्ष विरोध भी ढंग से नहीं कर पा रहा है।
सरकार का तर्क
'मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता अध्यादेश-2020' में किसानों को पहले से तय मूल्य पर कृषि उपजों की आपूर्ति के लिए एक लिखित समझौता करने की अनुमति दी गयी है।
केंद्र सरकार इसके लिए आदर्श कृषि समझौते के दिशानिर्देश जारी करेगी, ताकि किसानों को लिखित समझौते करने में मदद मिल सके। बिचौलियों की भूमिका खत्म होगी और किसानों को अपनी फसल का बेहतर मूल्य मिलेगा।
क्या कहना है किसान का
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश को लेकर किसानों ने रिलायंस जियो का उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे पहले जियो आया और उन्होंने सस्ता दिया और बाद में धीरे-धीरे दाम बढ़ गए।
किसानों का कहना है कि निर्यातकों को इस आवश्यक वस्तु (संशोधन) बिल से बाहर रखा जा रहा है। मतलब ये कि कानून उनपर लागू नहीं होगा। वो जितना अनाज चाहे अपने साथ रख सकते हैं क्योंकि उन्हें निर्यात करना है। लेकिन किसानों पर पाबंदी लागू होगी कि वो एक तय सीमा से ज्यादा नहीं रख सकते हैं।
किसान फिर होगा गुलाम
किसान समझ रहा है कि जो निजी कंपनियां आएंगी वो किसानों को सुविधाएं, पैसा देंगी लेकिन उसके बाद किसान उनका गुलाम हो जाएगा। जो वो कहेंगे वही करना किसान की मजबूरी हो जाएगा। यानी किसान उनकी शर्तों के अधीन हो जाएगा।
सत्तारूढ़ भाजपा नीत राजग गठबंधन के घटक शिरोमणि अकाली दल ने भी इसका विरोध किया है। अकाली दल ने विधेयक और अध्यादेश को वापस लेने की सरकार से मांग की है।
मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश का विरोध करने वालों का दावा है कि अब निजी कंपनियां खेती करेंगी और किसान मजदूर बन जाएगा। किसान नेताओं का यह भी कहना है कि इसमें एग्रीमेंट की समयसीमा तो बताई गई है लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य का जिक्र ही नहीं किया गया है।
असफल रह चुका है कांट्रेक्ट खेती का प्रयोग
अंग्रेजों द्वारा कराई गई नील की कांट्रेक्ट खेती का दंश आज तक किसान झेल रहा है। प. बंगाल के अकाल का भी यह प्रमुख कारण रहा है।
इसी तरह के हालात के चलते आज से 172 साल पहले आयरलैंड में आलू का अकाल पड़ा था, जो इतिहास में आलू के महान अकाल के रूप में दर्ज़ है। आयरलैंड में 1845 से 1849 के बीच आलू की फसल पूरी की पूरी ख़राब हो गई थी। सारे किसान आलू कामर्शियल फसल के रूप में आलू की ही खेती कर रहे थे।
आयरलैंड की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या अपनी भूख आलू से ही मिटाती थी। इस अकाल का ऐसा असर हुआ कि लगभग 10 लाख लोगों ने देश छोड़ दिया और 10 लाख लोगों की मौत हो गई।
नये कानून के तहत अगर कंपनियां अपनी मर्जी से किसान को मजदूर बनाकर खेती कराएंगी तो उनकी प्राथमिकता अपना मुनाफा कमाना होगा न कि देश में अनाज की जरूरतो को पूरा करना। फिर किसान को बीज भी उन्हीं कंपनियों से खरीदना पड़ेगा। किसान और देश के सामने ये यक्ष प्रश्न है।