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धरती का एक चौथाई हिस्सा ही है अब जंगल

raghvendra
Published on: 16 Nov 2018 11:08 AM GMT
धरती का एक चौथाई हिस्सा ही है अब जंगल
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नई दिल्ली: पृथ्वी पर मौजूद सूनसान बीहड़ों का करीब 70 फीसदी हिस्सा महज पांच देशों की सीमाओं में है। इन जंगली इलाकों में हजारों ऐसे जीवों को आश्रय मिला है जो जंगलों की कटाई या जरूरत से ज्यादा मछली के शिकार की वजह से लुप्त होने की कगार पर हैं। साइंस जर्नल नेचर में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि इस अनछुए जंगल का दो तिहाई हिस्सा ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, रूस और अमेरिका में है।

क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी में संरक्षण विज्ञान के प्रोफेसर जेम्स वाटसन इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक हैं। उन्होंने बताया, ‘पहली बार हमने जमीनी और समुद्री दोनों बीहड़ों का नक्शा तैयार किया है जो बताता है कि अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है। महज कुछ ही देश हैं जो इस अनछुई जमीन के मालिक हैं और उन पर इसे बचाए रखने की भारी जिम्मेदारी है।’

रिसर्चरों ने बीहड़ों पर इनसान के असर के आठ सूचकों के बारे में मौजूद आंकड़ों का इस्तेमाल किया। इनमें शहरी वातावरण, कृषि भूमि और बुनियादी निर्माण की परियोजनाएं भी शामिल हैं। उन्होंने समुद्र के लिए मछली के शिकार, औद्योगिक पोत परिवहन और पानी में उर्वरकों के बहाव को मानवीय गतिविधियों की कसौटी माना। ज्यादातर देशों में पर्यावरणवादी सरकारों पर जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में सुस्त रहने के आरोप लगते हैं। ये रिपोर्ट ऐसे वक्त में आई है जब वैज्ञानिक ज्यादा उपभोग के कारण जीवों के लुप्त होने की चेतावनी दे रहे हैं।

रूस के विशाल टाइगा जंगल में ऐसे पेड़ों की तादाद खरबों में है जो वातावरण से कार्बन सोख कर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के असर को कम कर देते हैं। हालांकि बीते साल राष्ट्रपति पुतिन ने यह कह कर इनके संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता को कमजोर कर दिया कि जलवायु परिवर्तन के लिए इनसान जिम्मेदार नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पेरिस की ऐतिहासिक डील से अमेरिका को बाहर ले जा चुके हैं और ब्राजील ने एक दक्षिणपंथी और सेना के ऐसे पूर्व कैप्टेन को राष्ट्रपति चुना है जिसने अमेजन के वर्षावनों की सुरक्षा के मौजूदा कानूनों को कमजोर करने की शपथ ली है।

वाटसन का कहना है कि इन जंगलों के लिए ‘खतरे की घंटी’ बज चुकी है लेकिन ‘अब व्यवहार को बदलने और नेतृत्व दिखाने की जरूरत है क्योंकि इन बीहड़ों को बचाने के लिए उद्योगों और लोगों को यहां पहुंचने से रोकना होगा।’

फॉसिल फ्यूल, लकड़ी और मांस के भारी इस्तेमाल के साथ ही तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण पृथ्वी की महज 23 फीसदी जमीन ही अब ऐसी है जो कृषि और उद्योगों के असर से अछूती है। एक सदी पहले ऐसी जमीन का हिस्सा करीब 85 फीसदी था। केवल 1993 से 2009 के बीच ही करीब भारत के आकार का बियाबान इंसानी बस्तियों, खेतों और खदानों में बदल गया। संरक्षणवादी गुट डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने चेतावनी दी है कि पिछले 40 साल में मछलियों, चिडिय़ों और उभयचरों, सरीसृपों और स्तनधारियों की आबादी औसतन 60 फीसदी कम हो गई।

उत्तरी कनाडा का बोरियल फॉरेस्ट भी इसी तरह का एक जंगल है, जो ना सिर्फ जैव विविधता के लिए किसी स्वर्ग बल्कि कार्बन के एक विशाल हौज जैसा है। इसे संघीय कानून के जरिए संरक्षित किया गया है जो जलवायु परिवर्तन से इंसानों को बचाने में एक बड़ी भूमिका निभा रहा है। वैज्ञानिक ऐसे अनछुए जंगलों को उद्योगों और इंसानों से बचाने के लिए ज्यादा कानूनों की मांग कर रहे हैं।

न्यूजीलैंड बराबर जल गये जंगल

साल 2016 में जंगलों की आग ने बड़ी मात्रा में वन्य क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाया। एक अध्ययन के मुताबिक जलवायु परिवर्तन समेत अल नीनो जैसे प्राकृतिक कारकों के चलते लगी आग ने दुनिया में न्यूजीलैंड बराबर जंगल जला दिए। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के नये डाटा के मुताबिक, दुनिया में 7.34 करोड़ एकड़ जंगल साल 2016 में तबाह हो गए। इस तबाही की सबसे बड़ी वजह रही जंगलों में लगने वाली आग जिनको अब तक एक प्राकृतिक आपदा माना जाता रहा है, लेकिन पिछले कुछ अध्ययन बताते हैं कि इसके लिए जलवायु परिवर्तन और तमाम मानवीय कारक भी जिम्मेदार हैं। जलवायु परिवर्तन ने आग के खतरों को बढ़ाया है, साथ ही कुछ क्षेत्रों के तापमान में असमान्य रूप से वृद्धि हुई है।

ये आग ब्राजील, इंडोनेशिया और पुर्तगाल जैसे देशों में अधिक नजर आयी। ब्राजील के अमेजन क्षेत्र के जंगलों समेत इंडोनेशिया के वर्षा वनों में लगी आग ने दुनिया के कुल वन्य क्षेत्र के नुकसान में एक चौथाई हिस्से का योगदान दिया। ब्राजील की आग ने तकरीबन 37 लाख हेक्यटेयर वन्य क्षेत्र का खात्मा किया, जो साल 2015 के मुकाबले तीन गुना अधिक था। इंडोनेशिया में साल 2015 की आग ने तकरीबन दस लाख हेक्टयेर क्षेत्र में लगे पेड़ों को खत्म कर दिया। 2015 के दौरान जंगलों में बड़े स्तर पर आग लगी, लेकिन इंडोनेशिया में साल 2016 के शुरुआती दिनों तक वृक्षों के नुकसान को दर्ज ही नहीं किया गया।

वैश्विक वन नुकसान में हुई 51 फीसदी की वृद्धि ने पर्यावरणविदों को चिंता में डाल दिया है। ग्रीनपीस से जुड़े जेन्स स्टॉपेल कहते हैं कि यह आंकड़ा भयावह है। पेरिस सम्मेलन में तय लक्ष्यों को पाने के लिए हम जंगलों का और नुकसान सहन नहीं कर सकते, साथ ही हमें इनकी क्षमता कार्बन डॉयआक्साइड के बढ़ते स्तर को कम करने के लिए बढ़ानी होगी। पेड़ कार्बन डायऑक्साइड को अवशोषित करते हैं और जंगलों को प्राकृतिक कार्बन डॉयआक्साइड सिंक बनाते हैं लेकिन आग ऐसे कार्बन सिंक को खत्म कर देती है और वातावरण में भी कार्बन उत्सर्जन को बढ़ा देती है। कार्बन सिंक, कार्बन और कार्बन से जुड़े रासायनिक यौगिक (कैम्किल कंपाउड) पदार्थों का असीमित प्राकृतिक और कृत्रिम भंडारण है। पेड़, मिट्टी, समुद्र तल में पाये जाने वाले पदार्थ कार्बन सिंक के उदाहरण हैं। कार्बन सिंक में लगातार आ रही गिरावट को इंडोनेशिया के उदाहरण से समझा जा सकता है। इंडोनेशिया के जंगलों में लगी आग ने बड़े स्तर पर कार्बन डायऑक्साइड का उत्सर्जन किया और इंडोनेशिया, दुनिया में कार्बन उत्सर्जनकर्ता देशों की सूची में महज छह हफ्ते में रूस को पछाड़ते हुए चौथे स्थान पर पहुंचा गया।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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