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'गाय' के नाम पर 1893 में हुआ पहला दंगा, 66 में इंदिरा ने चलवा दीं गोलियां

गाय एक ऐसा जानवर जो देश के हर एक गली, चौराहे पर जुगाली करता आसानी से नजर आ जाता है। हुर-हट आपने भी किया ही होगा आज भी, कि आपको निकलने का रास्ता मिल जाए। लगभग सभी के साथ ऐसा ही होता है।

Rishi
Published on: 1 May 2019 9:40 AM GMT
गाय के नाम पर 1893 में हुआ पहला दंगा, 66 में इंदिरा ने चलवा दीं गोलियां
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मथुरा : गाय एक ऐसा जानवर जो देश के हर एक गली, चौराहे पर जुगाली करता आसानी से नजर आ जाता है। हुर-हट आपने भी किया ही होगा आज भी, कि आपको निकलने का रास्ता मिल जाए। लगभग सभी के साथ ऐसा ही होता है। इसमें कोई नई बात नहीं है। लेकिन पिछले कुछ समय से गाय को वेरी-वेरी स्पेशल वाला ट्रीटमेंट मिलने लगा।

बीजेपी सरकार देश में आने के बाद से तथाकथित गौरक्षक पैदा हो गए। पूरा देश मॉब लिंचिंग से थर्रा उठा। इसके साथ ही जेहन में सवाल भी आने लगे कि गाय माता के नाम पर जो इतना कुछ हो रहा है। वो सबसे पहले कब हुआ, और क्यों हुआ, किसने किया। तो हमने भी पुराने रिकाडर्स झाड़ पोंछ निकाले और जानकारी आप के सामने ले आए हैं।

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बात शुरू करते हैं, वहां से जब सभ्यता शुरू ही हुई थी। नया-नया इंसान बना था। वो जानवरों और शाक भाजी पर ही निर्भर था। पाला और खा लिया। नहीं भी पाला तो भी पकड़ के खा ही लिया। इसके बाद जब कुछ अकल आई तो खाम-खां बैठने से अच्छा सोचा, कि चलो कुछ बो-जोत लिया जाए। तो उसे जो सबसे सीधा जानवर नजर आया वो थी हमारी गौ माता।

उसने फटाफट बाड़ तैयार की और कई सारी गाय और बैल उसमें डाल दिए। समय बीता और उनके बच्चे हुए कुछ गाय थीं। तो कुछ बैल। अब गाय दूध देती और बैल खेत में मेहनत करता। लेकिन उस समय तक भी गाय की पूजा शुरू नहीं हुई थी।

इसके बहुत बाद इस्लाम का उदय हुआ। ईद-बकरीद मनाई जाने लगी। मुस्लिम देश दुनिया में फ़तेह हासिल कर भारत देश तक पहुंच गए। यहां उसे सबसे सस्ती गाय ही नजर आई। उन्होंने गाय को धर्म के नाम पर कुर्बान कर दिया। ये जानवर इतना सस्ता था कि उन्होंने कुर्बानी की झड़ी लगा दी। यहां एक बात और बता दें, इस समय तक गाय को थोडा बहुत धार्मिक महत्त्व मिलने लगा था।

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मुसलमानों ने इसकी कुर्बानी के ज़रिए हिंदुओं को चिढ़ाने का काम भी किया। अब तक कई हिंदू धर्मं गुरु अपनी कथा कहानियों में गाय को माता देवताओं का वास स्थान बता महिमा मंडित करने लगे। इसका सीधा नतीजा ये हुआ, कि गाय और हिंदुओं में भावनात्मक बंधन बंधने लगा। ऐसा देख समझदार मुस्लिमों ने सीधे तौर पर गाय की कुर्बानी से तौबा कर ली। जबकि बहुत से ऐसा कर रहे थे। लेकिन कभी टकराव की स्थति नहीं पैदा हुई। इसके बाद गोरे आ धमके देश में। जो कुछ ही समय में मालिक बन बैठे। लेकिन उन्होंने अपने राज में गाय को विवाद का केंद्र नहीं बनने दिया।

यहाँ गौर करने वाली बात ये है, कि 1730 से ही भगवान कृष्ण और गौ माता एक दूसरे के पूरक के तौर पर देश दुनिया में हिंदुओं के मन में गहरे स्थापित हो चुके थे। 1870 में हिंदूओं ने गोरे शासकों से मांग कि की देश में गो हत्या रोकने के लिए कानून बनाया जाए। बेचारे गोरे 57 में ही देख चुके थे कि यहां के मुस्लिम और हिंदू गाय और सुअर को लेकर कितने धार्मिक हैं। ऐसे में इन्होने इस मुद्दे पर हाथ ही नहीं रखा और आपस में निपटने की राय दे दी।

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अब गोरों को क्या पता था, कि उनके ऐसा करने से जो हिंदू मुस्लिम अबतक उनके खिलाफ लड़ रहे थे, अपनी जान दे रहे थे। अब वो आपस में लड़ने लगेंगे। 70 से 80 के दशक में देशभर में गोरक्षा समितियां बनाई जाने लगी। देश के रहने वाले जो आज़ादी के लिए गोरी सरकार से लड़ रहे थे वो सब भूल आपस में लड़ने लगे।

71 में सिखों की कूका शाखा ने गाय की रक्षा अपने हाथ में ले ली। इसका मुख्य कारण ये था, कि हिंदुओं को अपने समर्थन में खड़ा किया जा सके और मुस्लिमों को बर्बाद कर दिया जाए। कुकाओं ने जमकर खून बहाया। गोरी सरकार को जब इसका पता चला तो उसने इन गोरक्षाको को दौड़ दौड़ कर मारा।

इसके साथ ही आन्दोलन समाप्त हो गया। लेकिन इसके बाद दयानंद सरस्वती ने आर्यधर्म का प्रचार आरंभ किया लेकिन इसके केंद्र में भी गाय थी। क्योंकि यही एक ऐसा नाम था जो हिंदुओं को एक झंडे के नीचे ला सकता था। खासकर उनको, जो धर्मांतरण कर मुस्लिम या इसाई बन गए गोरक्षा के नाम पर कईयों की घर वापसी भी हुई।

1883 में दयानंद की मौत के बाद गोरक्षा आंदोलन उनलोगों के हाथ में आ गया, जो इसकी छाया में अपनी निजी दुश्मनी और हित साधने वाले थे। फिर से ये आन्दोलन खूनी हो चला इसमें सभी जातियों ने भाग लिया। लेते भी क्यों न आखिर धर्मं का काम था।

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आग सुलग चुकी थी, बस उसे हवा देनी थी 1893 में वर्तमान का मऊ जिला वो उस समय आजमगढ़ का हिस्सा था। वहां गाय के नाम पर दंगा भड़क गया। जो कुछ ही समय में बिहार से होता हुआ कई राज्यों में फ़ैल गया। अगले 6 महीने में 31 दंगे हुए। तब से शुरू हुए ये दंगे आज भी जब तब गोरक्षा के नाम पर होते हैं।

अब तक कांग्रेस देश में मजबूत हो चुकी थी। 1893 में इलाहाबाद में कांग्रेस का एक बड़ा समारोह हुआ, जिसमें उस दौर के सबसे बड़े वाले गौरक्षक श्रीमन स्वामी पाधारे थे। इसके बाद दंगे हुए, जो मुसलमान अभीतक कांग्रेस का झंडा लेकर चल रहा था। अब उसे लगने लगा कि कांग्रेस अब उसके साथ बुरा कर रही है, तो उसने अपने रास्ते अलग कर लिए।

इसके बाद देश आज़ाद हुआ। पंडित नेहरू पीएम बने तो हिंदुओं को लगा कि सही समय है देश में गोकशी बंद करवाने का। देश भर में मांग उठने लगी कि संविधान में ऐसा प्रावधान किया जाए कि देश में गो हत्या बंद हो सके। वार्ता हुई लेकिन वो सफल नहीं हो सकी। इसके काफी समय बाद शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ के नेतृत्व में स्वामी करपात्री, महात्मा रामचंद्र वीर ने अनशन आरंभ किया।

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7 नवंबर 1966 को गोहत्या कानून की मांग पर संसद घेर ली गई। लगभग 10 हजार की भीड़ संसद के बाहर थी। लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गोकशी पर कोई भी मांग मानने से इंकार कर दिया। प्रदर्शन करने वालों ने जमकर उत्पात मचाया, दिल्ली में 48 घंटे का कर्फ्यू लगा। किसी ने बता दिया कि कांग्रेस अध्यक्ष कामराज के कहने पर इंदिरा ने ऐसा किया है।

फिर क्या था, कामराज के घर पर बोल दिया धावा, लगा दी आग। बदले में चली गोलिया जिसमें कई लाशें गिरीं। गाय की लड़ाई में इंसानों ने अपनी जान से हाथ धोया। तबसे अब तक देश में न जाने कितनी जान जा चुकी हैं।

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आशीष शर्मा ऋषि वेब और न्यूज चैनल के मंझे हुए पत्रकार हैं। आशीष को 13 साल का अनुभव है। ऋषि ने टोटल टीवी से अपनी पत्रकारीय पारी की शुरुआत की। इसके बाद वे साधना टीवी, टीवी 100 जैसे टीवी संस्थानों में रहे। इसके बाद वे न्यूज़ पोर्टल पर्दाफाश, द न्यूज़ में स्टेट हेड के पद पर कार्यरत थे। निर्मल बाबा, राधे मां और गोपाल कांडा पर की गई इनकी स्टोरीज ने काफी चर्चा बटोरी। यूपी में बसपा सरकार के दौरान हुए पैकफेड, ओटी घोटाला को ब्रेक कर चुके हैं। अफ़्रीकी खूनी हीरों से जुडी बड़ी खबर भी आम आदमी के सामने लाए हैं। यूपी की जेलों में चलने वाले माफिया गिरोहों पर की गयी उनकी ख़बर को काफी सराहा गया। कापी एडिटिंग और रिपोर्टिंग में दक्ष ऋषि अपनी विशेष शैली के लिए जाने जाते हैं।

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