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बाढ़ आने पर ही मानेंगी रूठी गंगा मइया

raghvendra
Published on: 22 Jun 2018 6:20 AM GMT
बाढ़ आने पर ही मानेंगी रूठी गंगा मइया
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शिशिर सिन्हा

पटना: गंगा मइया में जब तक ये पानी रहे, मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे। यह गीत काफी पुराना है। इस गीत के पीछे यही सोच है कि गंगा का पानी तो कभी खत्म नहीं होगा। लेकिन बिहार के शहरों से जिस तरह गंगा मइया रूठी नजर आ रही हैं, उससे इस गीत में बदलाव की जरुरत बहुत दूर नजर नहीं आ रही। प्राचीन पाटलिपुत्र को विकास का रास्ता गंगा तट पर बसे होने के कारण ही दिखा था, लेकिन वर्तमान पटना से गंगा रूठ चुकी हैं। दूसरे महत्वपूर्ण शहर भागलपुर की स्थिति भी इस मायने में अच्छी नहीं कही जा सकती है। बाढ़ प्राकृतिक आपदा है, लेकिन रूठी गंगा को मनाने के लिए यही एकमात्र रास्ता है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के शहरों में जिस गंगाजल को सप्लाई में डालकर पेयजल का रूप दिया जाता है, वैसा पानी बिहार में नहीं पहुंच पा रहा है। उत्तर प्रदेश तक गंगा से कई नहरें निकल रही हैं, लेकिन बिहार में आते ही इसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लग रहा है। छोटी-छोटी नदियां गंगा को प्रवाह के लिए पानी देती हैं और सभी को समेटते हुए गंगा बिहार से फरक्का की ओर निकल जाती है। बक्सर से बिहार में गंगा का प्रवेश होता है और मुख्य रूप से यह प्रदेश के दो बड़े शहरों से होकर गुजरती है। पहले राजधानी पटना और फिर भागलपुर। दोनों ही शहरों के लोग कभी गंगा तट का आनंद लेते थे, लेकिन फिलहाल इन्हीं तटों से दूरबीन के जरिए भी गंगा की धार को देखना असंभव है।

पैसा खर्च, काम नदारद

नमामि गंगे योजना के तहत करीब 5000 करोड़ रुपए बिहार सरकार को मिल चुके हैं, लेकिन अब तक रिवरफ्रंट छोडक़र किसी दिशा में काम जमीन पर नहीं दिख रहा है। इसके अलावा सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट पर भी काम चल रहा है, हालांकि इसका फायदा अभी दूर है। पटना में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट की संख्या चार से छह होने का फायदा भी तभी नजर आएगा, जब ट्रीटमेंट के बाद का ही पानी गंगा तक भेजा जाए। विद्युत शवदाह गृह को लेकर बक्सर, फतुहा, सुल्तानगंज में हो रहा काम उल्लेखनीय है। लेकिन जहां तक गंगा को करीब लाने या उसे निर्मल बनाने का सवाल है तो अभी नमामि गंगे का उद्देश्य दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है।

पाटलिपुत्र की पहचान थी गंगा

देश का इतिहास कहता है कि गंगा तट पर बसे होने के कारण ही पाटलिपुत्र का विकास तेजी से हुआ मगर आधुनिक साज-सुविधाओं से लैस होते पटना शहर से गंगा का नाता बहुत दूर का हो गया है। गंगा धीरे-धीरे पटना से दूर होती जा रही है। हरिद्वार, बनारस जैसे शहरों में जिस तरह गंगा तट से लोगों का रोज का नाता है, वैसा पटना में इतिहास की बात हो गई है।

अमूमन उन्हें ही गंगा की वास्तविक स्थिति का पता चलता है, जो जान-पहचान के किसी व्यक्ति की मौत के बाद शव के अंतिम संस्कार के लिए घाट का रुख करते हैं। करीब 15 साल पहले पटना में बांस घाट मुख्य श्मशान था, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। अब यहां वैसे लोग नहीं जाते जिन्हें गंगा में अवशेष समर्पित करना हो या गंगा स्नान करना हो। यहां से गंगा की धारा काफी पहले दूर हो गई। श्मशान अब गुलबी घाट हो गया, लेकिन यहां भी गंगा मानने भर के लिए ही है। जो है, वह भी शायद मोक्ष के नाम पर ही पवित्र मानने लायक।

कभी गोलघर की सीढिय़ों पर चढ़ते-चढ़ते गंगा दिख जाती थी, अब शिखर की ऊंचाई पर पहुंचकर भी गंगा के होने को महसूस ही किया जा सकता है। गंगा को देखने का अब एकमात्र सहज उपाय गांधी सेतु पर जाना ही है या फिर बाढ़ में गंगा के जलस्तर बढऩे का इंतजार करना विकल्प है।

सीवरेज से हुई दुर्गति

दीघा सडक़ के किनारे-किनारे गंगा की धार को रोकने के लिए जो बांध बना था, उसके अंदर अब गंगा की जमीन पर हजारों घर बने हैं और लाखों लोग रह रहे हैं। छोटे-बड़े मकानों के अलावा इससे दोगुनी संख्या में अस्थायी निर्माण इस दायरे में हैं।

कचरा निस्तारण की वास्तविकता देखें तो दीघा से पटना सिटी तक गंगा की तरफ जाने वाली संकरी गलियों में कभी पटना नगर निगम का ट्रैक्टर पहुंचा ही नहीं। ज्यादातर रास्ते ट्रैक्टर जाने लायक नहीं हैं। नतीजा यह है कि सडक़ों-गलियों का ज्यादातर कचरा हवा में उडक़र या नालियों में बहकर गंगा तक पहुंच जाता है। यह कचरा तो फिर भी अव्यवस्थित प्रक्रिया से गंगा तक पहुंचता है, व्यवस्थित तौर पर गंगा में करीब 400 एमएलडी नॉन-ट्रीटेड पानी रोज पहुंचता है। बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसे करीब सवा दो सौ एमएलडी कहता है, लेकिन वास्तविक हकीकत के लिए वह शहर के नौ बड़े नालों से आगे निकलकर सैकड़ों छोटे नालों की ओर नहीं देखता है।

बाबा वृद्धेश्वरनाथ से दूर हुईं गंगा

सावन में अनगिनत श्रद्धालु भागलपुर शहर से कुछ दूर हटकर बसे सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर झारखंड के देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ धाम जाकर महादेव को अर्पित करते हैं। सुल्तानगंज में अजगैबीनाथ मंदिर कभी गंगा के बीच में होता था और सावन में इस मंदिर तक पहुंचना आसान नहीं होता था।

अब यह मंदिर गंगा के पाट पर है और बाढ़ न आए तो मंदिर के चारों ओर दूर-दूर तक सूखा ही रहता है। उधर भागलपुर शहर के बीच में बाबा वृद्धेश्वरनाथ (बूढ़ानाथ) मंदिर है। कहा जाता है कि मंदिर में शिवलिंग तक गंगा आती थी, लेकिन अब मंदिर के निचले हिस्से तक भी गंगाजल बाढ़ के दौरान ही पहुंचता है। भागलपुर में सुल्तानगंज या विक्रमशीला सेतु से गंगा को देखना संभव है। बाबा वृद्धेश्वरनाथ मंदिर से बहुत दूर कहने को गंगा दिखती भी हैं, लेकिन यह मुख्य धारा नहीं है। जिन्हें वास्तविक गंगा स्नान करना है, उन्हें सबौर जाना पड़ता है।

नमामि गंगे पर ईमानदारी से काम जरूरी

लावारिस शवों के दाह-संस्कार से गंगा को बचाने का अभियान शुरू करने वाले विकास चंद्र उर्फ गुड्डू बाबा सुप्रीम कोर्ट तक दस्तक दे चुके हैं। गंगा में लावारिस मानव-पशु शव बहाए जाने, कचरा निस्तारण और सीवरेज बहाए जाने जैसे मुद्दों पर सरकारी तंत्र को आरटीआई और न्यायालय के जरिए सक्रिय रखने वाले गुड्डू बाबा नमामि गंगे योजना से खुश हैं, लेकिन आशंका जताते हैं कि बिहार में और तेज काम होना चाहिए था, अब एक साल में पता नहीं कि क्या पूरा हो सकेगा।

पटना को लेकर दो-तीन स्पष्ट कारण हैं। सबसे पहला कि गाद प्रबंधन पर काम नहीं हुआ। राष्ट्रीय जलमार्ग का प्रोजेक्ट चल गया होता तो गाद प्रबंधन भी हो जाता और पटना तक गंगा भी रहती। इसके अलावा ईंट-भट्ठा वालों के छोड़े वेस्टेज से टकराकर भी पानी उत्तर की ओर भाग गया।

प्रदूषण की स्थिति: पटना का करीब 400 एमएलडी सीवरेज रोजाना गंगा की ओर जाता है। यह किनारे की मिट्टी को मिट्टी नहीं रहने देता, सीमेंट की तरह कठोर कर देता है। इस पर पानी का टिकना संभव नहीं। वैसे भी सीवरेज गंगा से सट जाए तो आप इसे गंगा मानने की गलती ही कर सकते हैं।

सीवरेज ट्रीटमेंट और पॉलीथिन प्रबंधन जरूरी: औद्योगिक प्रदूषण बिहार में अपेक्षाकृत कम है, लेकिन शहर के सीवरेज बिना ट्रीट हुए गंगा में डाला जाएगा तो गंगा को बचाना कैसे संभव होगा। पटना में गंगा बचाओ अभियान और न्यायालय की फटकार के प्रभाव से लावारिस लाशें कम दिखती हैं, लेकिन प्रदेश के बाकी हिस्सों में आज भी मानव-शव बहाए जा रहे हैं। पशु-शव तो पूरे प्रदेश में गंगा में ही बहाए जा रहे हैं। सबसे जरूरी है सीवरेज ट्रीटमेंट और पॉलीथिन प्रबंधन। बिहार की आम जनता तो चार दिवसीय महापर्व में गंगा तट ही नहीं, बल्कि इसके रास्ते तक को अपने स्तर से साफ कर दिखा देती है। लोगों को पॉलीथिन कचरा नहीं फैलाने का प्रण लेना होगा और अपनी आस्था का प्रमाण गंगा में बहाने से रोकना होगा। इतना ही काफी है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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